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परम पावन दलाई लामा की प्रस्तावित अरुणाचल यात्रा को लेकर चीन के ऐतराज की भारत सरकार ने कड़े शब्दों में निंदा की और स्पष्ट संदेश दिया कि भारत किसी की धमकी में नहीं आने वाला
विजय क्रान्ति
चीन सरकार इन दिनों फिर से भारत सरकार के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाए हुए है। इस बार उसका गुस्सा तिब्बत के पूर्व शासक और परमपावन दलाई लामा की प्रस्तावित अरुणाचल यात्रा को लेकर है, जो आगामी 4 अप्रैल से शुरू होगी और दस दिन तक चलेगी।
बीजिंग में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने अरुणाचल प्रदेश पर चीन का दावा दुहराते हुए भारत सरकार पर आरोप लगाया है कि दलाई लामा को तावांग की यात्रा की अनुमति देकर वह चीन के साथ भारत के रिश्तों को बिगाड़ रहा है। उसका कहना था कि अरुणाचल एक विवादास्पद इलाका है और दलाई लामा तिब्बत की आजादी के नाम पर चीन को तोड़ने में लगे हुए हैं, इसलिए दलाई लामा को अरुणाचल की यात्रा की इजाजÞत देकर भारत सरकार चीन के ‘अंदरूनी’ मामलों में दखल कर रही है।
चीन के इस बयान का दो टूक जवाब देते हुए भारत सरकार ने बीजिंग को समझाने की कोशिश की है कि दलाई लामा की प्रस्तावित अरुणाचल यात्रा का मामला एक आजÞाद देश और उसके मेहमान के बीच का है, जिसके लिए चीन या किसी और देश को हलकान होने की जरूरत नहीं है। भारत सरकार के प्रवक्ता ने चीनी बयान के जवाब में कहा है,‘‘दलाई लामा भारत के एक सम्मानित मेहमान हैं। लिहाजÞा उन्हें आजÞाद भारत के किसी भी हिस्से में आने-जाने की पूरी आजÞादी है।’’
अरुणाचल प्रदेश पर भारत सरकार की नीति को और स्पष्ट करते हुए केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्री किरन रिजीजू का जवाब था, ‘‘आज नई दिल्ली में एक राष्ट्रवादी सरकार है जो देश के हितों को ध्यान में रखकर फैसले करती है। हम न तो किसी दूसरे देश पर दबाव बनाने में विश्वास रखते हैं और न किसी और की धमकी में आने वाले हैं।’’
ऐसा पहली बार नहीं है कि दलाई लामा अरुणाचल जा रहे हैं और चीन ने इस पर अपनी तल्खी जताई है। असल में आए दिन चीन सरकार ऐसे मौके ढूंढती रहती है जिनके बहाने वह भारत के अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जता सके।
पहले भी ऐसा कई बार हुआ है जब अरुणाचलवासी भारतीय खिलाडियों, विशेषज्ञों और राजनेताओं को चीन सरकार ने वीजा देने से मना कर दिया। चीनी की दलील थी कि चूंकि चीन सरकार उन्हें ‘चीन का नागरिक’ मानती है इसलिए वे ‘प्रवासी चीनी नागरिक’ के तौर पर चीन की यात्रा कर सकते हैं। 2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ़ मनमोहन सिंह और 2015 की फरवरी में श्री नरेंद्र मोदी की तावांग यात्रा के समय भी चीन ने बहुत हायतौबा मचायी थी।
चोरी और सीनाजोरी
यहां यह याद किया जाना जरूरी है कि 1949 में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा खूनी सत्ता पलट के तुरंत बाद 1949 और 1951 के बीच चीन ने तिब्बत पर जबरन कब्जा जमा लिया था। उससे ठीक पहले 1949 में वह मध्य एशिया के एक अन्य देश पूर्वी तुर्किस्तान पर भी कब्जा कर चुका था। चीन ने उसे ‘शिंजियांग’ नाम दिया है। चीनी कब्जे से ठीक पहले तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान आजाद देश थे। आज चीन के पूरे इलाके में से आधे से ज्यादा क्षेत्रफल इन दोनों देशों का है। ये दोनों देश अपने-अपने तरीके से चीनी गुलामी से आजादी का आंदोलन चला रहे हैं।
भले ही चीन सरकार अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जता रही है लेकिन अपने इस दावे के समर्थन में वह भारतीय या अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के समाने आज तक एक सबूत भी नहीं पेश कर पायी है। इसमें शक नहीं कि भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर बसे अरुणाचल प्रदेश के एक बड़े हिस्से और सीमा पार तिब्बत की संस्कृति में बहुत समानताएं हैं। लेकिन दुनिया के हर हिस्से में दो देशों के सीमावर्ती इलाकों में भाषा और संस्कृति की समानताएं होना सामान्य बात है। भारत के लद्दाख और हिमाचल के कई इलाकों में भी वहां की बोली-भाषा और महायान बौद्ध धर्म में बहुत समानताएं हैं।
चीन का लंगड़ा दावा
चीन सरकार यह बताते नहीं थकती कि क्योंकि अरुणाचल में तिब्बत के छठे दलाई लामा त्सेयांग ग्यात्सो का जन्म 1683 में अरुणाचल के तावांग में हुआ था, इसलिए अरुणाचल भी चीन का हिस्सा है। चीन सरकार आज तक इस बात का जवाब भी नहीं खोज पायी है कि अगर तिब्बत इतिहास में चीन का हिस्सा रहा है तो भारत के साथ लगने वाली तकरीबन 4000 किमी लंबी सीमा में किसी एक जगह पर एक दिन के लिए भी कोई चीनी अधिकारी या सैनिक चौकी क्यों नहीं रही? या फिर यह कि इस पूरी सीमा पर चलने वाले भारत-तिब्बत सीमा व्यापार के लिए इतिहास के किसी भी दौर में कभी चीन सरकार का व्यापार प्रतिनिधि क्यों नहीं तैनात हुआ?
इतिहास के इस पूरे दौर में पश्चिम में गिलगित-बाल्टिस्तान से लेकर अरुणाचल (ब्रिटिश काल में इस क्षेत्र का नाम ‘नेफा’ यानी नार्थ ईस्टर्न फ्रंटियर एजेंसी था) तक पूरी सीमा भारत-तिब्बत मानी जाती रही है। इतिहास के किसी भी दौर में तिब्बत सरकार ने चीनियों को अपना देश लांघकर भारत-तिब्बत सीमा तक आने और भारत के साथ व्यापार संबंध बनाने की अनुमति नहीं दी। 1951 में जब चीन ने धोखेबाजी वाली तथाकथित सत्रह-सूत्री संधि करके तिब्बत को जबरन चीन में मिला लिया था, उस समय किशोर दलाई लामा को बचाने के लिए उन्हें भारत की सीमा के निकट द्रोमो लाकर रखा गया था। तब दलाई लामा से मिलने के लिए चीनी जनरल ने समुद्री मार्ग से कलकत्ता के रास्ते भारत आकर नई दिल्ली सरकार की अनुमति से तिब्बत में प्रवेश किया था।
‘दक्षिणी तिब्बत’ का शिगूफा
लेकिन पिछले कुछ साल से चीन सरकार ने अरुणाचल प्रदेश को ‘दक्षिणी तिब्बत’ कहना शुरू कर दिया है। उसकी दलील है कि क्योंकि तिब्बत चीन का ‘अभिन्न अंग’ है इसलिए ‘दक्षिणी तिब्बत’ का लगभग 90 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र भी चीन का है। भारत में चीन के पूर्व राजदूत दाई बिंगगुओ ने बयान दिया है कि अगर भारत सरकार चीन को यह 90 हजार वर्ग किमी. इलाका देने पर राजी हो जाए तो दोनों देशों के संबंधों को सुधारने और शांति स्थापित करने में मदद मिलेगी।
अरुणाचल को ‘दक्षिणी तिब्बत’ बताकर उसपर अपना हक जताने की चीनी दादागीरी का अब भारत के लिए एक साफ सुथरा जवाब यही है कि तिब्बत पर चीन के गैर कानूनी कब्जे को मान्यता देना बंद किया जाए। बीजिंग को बता दिया जाए कि एक गैरकानूनी हरकत की दुहाई देकर वह भारत की जमीन पर दावे नहीं
जता सकता।
नई सरकार की नई पहल
नई दिल्ली में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार आने के बाद इस रिश्ते में आमूलचूल बदलाव आया है। इससे पहले ज्यादातर मामलों में नई दिल्ली का रवैया या तो रक्षात्मक रहा या दब्बूपन भरा। लेकिन मोदी सरकार ने एक के बाद एक कई फैसले करके चीन को दिखा दिया है कि भारत के खिलाफ उसकी धौंसपट्टी का जमाना लद चुका है। उदाहरण के लिए श्री नरेंद्र मोदी के शपथग्रण समारोह में नई दिल्ली ने चीन को छोड़कर अपने पड़ोस के लगभग सभी देशों के राष्ट्रÑाध्यक्षों को बुलाया। बल्कि इस समारोह में धर्मशााला से तिब्बत की निर्वासन सरकार के निर्वाचित प्रधानमंत्री डॉ़ लोबसांग सांग्ये भी उपस्थित थे। उसके बाद केंद्र सरकार ने संप्रग सरकार की नीति से आगे बढ़कर और चीन के सारे विरोधों के बावजूद तिब्बत के एक अन्य वरिष्ठ पंथनेता कर्मा पा को अरुणाचल प्रदेश की यात्रा की अनुमति दे दी।
पीओके में चीनी दखल
भारत की जनता और दलाई लामा के बारे में भारत की नीति में आ रहे इस साहसी बदलाव को बहुत रुचि और सम्मान के साथ देख रही है। अरुणाचल के सवाल पर चीन की ओर से बार-बार बवाल खड़ा किए जाने को देखते हुए अब भारत सरकार के लिए भी यह सोचना जरूरी हो चुका है कि भारत के गिलगित-बाल्टिस्तान और पाकिस्तान के गैरकानूनी कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में चीन की
सैनिक और व्यापारिक गतिविधियों को चुनौती दी जाए।
चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर काराकोरम से लेकर बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक सड़कें और व्यापारिक-सैनिक प्रतिष्ठान बनाने का जो ‘सीपैक’ अभियान शुरू किया है वह भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन चुका है।
(लेखक चीन-तिब्बत मामलों के विश्ोषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार हैं )
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