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भारत की महिलाओं ने जीवन के हर क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर आज महिलाओं ने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है
प्रियंका द्विवेदी
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने अभी हाल एक साथ 104 उपग्रह छोड़कर विश्व रिकार्ड बनाया है। इसरो की इस सफलता में जितना पुरुष वैज्ञानिकों का हाथ है, उतना ही महिला वैज्ञानिकों का। दरअसल भारत में कभी महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र से दूर माना जाता था, उनके वैज्ञानिक होने की कल्पना करना तक मुश्किल था, लेकिन आज जैसे अन्य क्षेत्रों में महिलाएं देश का नाम रोशन कर रही हैं वैसे ही विज्ञान के क्षेत्र में भी वे अपना अहम स्थान बनाने में कामयाब हुई हैं। इसरो के उक्त अभियान को सफल बनाने में 8 महिला वैज्ञानिकों का अहम योगदान है। देश में महिला सशक्तीकरण की इससे बड़ी मिसाल कोई दूसरी नहीं हो सकती।
इसरो की महिला वैज्ञानिकों की इस टीम में मीनल संपत, अनुराधा टी. के., रितु करीधल, मुमिता दत्ता, नंदिनी हरिनाथ, कृति फौजदार, एन. वलामर्थी और टेसी थॉमस शामिल थीं। ये सभी वैज्ञानिक कैरियर के साथ परिवार के मध्य तो बेहतर सामंजस्य बैठा ही रही हैं, अपनी प्रतिभा और मेहनत के बूते विशेष तौर पर देश की भी सेवा कर रही हैं। इन महिलाओं ने 12 से 18 घंटे लगातार काम करके इस मिशन को सफल बनाया है। (देखें बाक्स)
विज्ञापन से कितनी दूर महिलाएं!
आज हमारे समाज में महिलाओं के प्रति अव्यक्त पूर्वाग्रह एक चुनौती बना हुआ है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तो हम आसानी से उन वैज्ञानिकों के नाम याद रखते हैं जो पुरुष हैं जबकि महिला वैज्ञानिकों के योगदान के मुश्किल से ही याद रखा जाता है। पर हमारे राष्ट्रीय जीवन का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा है, जहां महिलाओं की उपस्थिति नहीं है। लेकिन, पुरुषों की तुलना में उनकी संख्या न सिर्फ कम है, बल्कि उन्हें सामाजिक व्यवस्था में जिन बाधाओं का सामना करना पड़ता है, वे अवरोध पेशेवर जीवन में भी उनके रास्ते को बाधित करते हैं।
वैज्ञानिक शोध एवं अनुसंधान ऐसा ही एक क्षेत्र है, जिसमें महिलाओं के उत्कृष्ट योगदान और क्षमता के बावजूद उन्हें समुचित प्रोत्साहन और अवसर नहीं मिल पा रहे।
19वीं सदी में चिकित्सक आनंदीबाई जोशी से शुरू हुई यह यात्रा 20वीं सदी में जानकी अम्माल, कमला सोहोनी, अण्णा मणि, असीमा चटर्जी, राजेश्वरी चटर्जी, दर्शन रंगनाथन, मंगला नार्लिकर जैसी अनेक वैज्ञानिकों के जरिये मौजूदा सदी में यमुना कृष्णन, शुभा तोले, प्रेरणा शर्मा, नीना गुप्ता आदि तक पहुंची है। ये सिर्फ नाम भर नहीं हैं, बल्कि यह सिद्ध करते हैं कि गणित, विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में जटिल मीमांसाओं और सैद्धांतिकी की विकास प्रक्रिया में महिलाएं अप्रतिम योगदान कर सकती हैं। लेकिन, उच्च शिक्षा और शोध के स्तर पर महिलाओं की संख्या आज भी संतोषजनक नहीं है। विज्ञान से संबद्ध संस्थाओं में महिलाओं की मौजूदगी के मामले में भारत विश्व के 69 देशों की सूची में लगभग सबसे निचले पायदान पर है।
ऐसे में जरूरी है कि महिला सशक्तीकरण के प्रयास को तेज करते हुए विज्ञान में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाया जाए तथा सामाजिक और सांस्थानिक भेदभावों एवं पूर्वाग्रहों को तिलांजलि दी जाए। महिलाओं की समुचित हिस्सेदारी और योगदान के बिना देश के सवांर्गीण विकास के लक्ष्य को हासिल करना असंभव है। सच यह है कि छात्राएं विज्ञान और इसी तरह के चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में करियर बनाने को लेकर उत्साहित नहीं होतीं और इस संबंध में न तो उन्हें उचित मार्गदशर्न मिलता है और न ही प्रोत्साहन। यह स्थिति तो तब है, जब बराबर यह दावा किया जाता है कि सरकारें महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र में अपनी योग्यता व उपयोगिता उसी तरह साबित करने का मौका दे रही हैं, जैसा हाल के दशक में उन्होंने मैनेजमेंट व आईटी सेक्टर में साबित किया है।
विज्ञान के क्षेत्र में आज महिलाओं की संख्या बढ़ी तो है फिर भी उनकी अपेक्षित भागीदारी नहीं है। वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद यानी सीएसआईआर द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण (एससीआई जर्नल में प्रकाशित) से इसकी एक झलक मिलती है। इससे यह तथ्य साफ हुआ है कि इच्छा और रुचि के बावजूद भारत के विज्ञान जगत में महिलाओं की स्थिति सुधरी नहीं है। सर्वे के मुताबिक देश के शोध और विकास क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 15 है।
हालांकि शिक्षित महिलाएं अपने बारे में प्रचलित रूढि़वादी धारणाएं तोड़ने का प्रयास कर रही हैं, बशर्ते उन्हें अपनी काबिलियत साबित करने के उचित मौके मिलें। बैलिस्टिक मिसाइल अग्नि-4 की परियोजना निदेशक रहीं डीआरडी ओ की वैज्ञानिक टेसी थॉमस के अनुसार, ''यदि महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र में अपनी क्षमता और योग्यता साबित करने का मौका दिया जाए तो वे पुरुषों से बेहतर साबित हो सकती हैं। विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के संबंध में आज यह समझ बनाने की जरूरत है कि विज्ञान और तकनीक का मामला सामाजिक अपेक्षाओं से जुड़ा है।''
अंतरिक्ष में जाने वाली महिला विज्ञानियों ने इस जरूरत को साबित कर दिया है। भारतीय मूल की वैज्ञानिक सुनीता विलियम्स ने अंतरिक्ष में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष केन्द्र पर जाकर यही दर्शाया है कि महिलाएं कठिन हालात का मुकाबला करने में पीछे नहीं हैं।
विज्ञान के बड़े सम्मान जैसे, शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार, इन्फोसिस प्राइज हों या फिर साइंस और मीडिया कवरेज, हर मोर्चे पर महिलाओं के योगदान की समुचित समीक्षा की आवश्यकता महसूस होती है। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार पाने वाली न्यूरोसाइंटिस्ट डॉक्टर विदिता वैद्य कहती हैं,''किसी भी साइंस कॉन्फ्रेंस में जाएं तो आपको मंच पर महिला वैज्ञानिक कम ही दिखती हैं। इससे यह संदेश जाता है जैसे आप एक भी महिला वैज्ञानिक को तलाश नहीं पाए। पूरी प्रक्रिया में कोई न कोई गड़बड़ी तो है।''
वहीं एक कड़वी सच्चाई यह है कि प्रतिभावान भारतीय महिला वैज्ञानिकों से हमारे ही देश के लोग परिचित नहीं हैं। आप किसी स्कूल में जाएं और बच्चों से कुछ महिला वैज्ञानिकों के नाम लेने के लिए कहें। उनमें से ज्यादातर मैरी क्यूरी या डोरोथी हाकिंस का नाम लेंगे। लेकिन उनमें से कोई किसी भारतीय महिला का नाम नहीं लेगा, क्योंकि हमारी स्कूली किताबों, मीडिया और पढ़े-लिखे लोगों में इनका कभी जिक्र ही नहीं आता। अगर हम चाहते हैं कि लड़कियां विज्ञान को करियर बनाएं तो हमें उनके सामने ऐसे भारतीय आदर्श रखने होंगे, जिन्होंने इसी परिवेश में रहकर वैज्ञानिक बनने का सफर तय किया है।
इतिहास का झरोखा
वैसे भारत में महिलाओं के विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ाने की परंपरा कम मात्रा में सही, पर बहुत पहले से रही है। स्वतंत्रता से पूर्व परतंत्र भारत में विज्ञान शिक्षा के क्षेत्र में पहला नाम आनंदी बाई जोशी का आता है, जिन्होंने 1886 में अमेरिका के फिलाडेल्फिया विवि से चिकित्सक की डिग्री हासिल की थी। आज से करीब 80 साल पहले एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता में परास्नातक में पढ़ाई के लिए कमला शेनोय ने कदम बढ़ाने की हिम्मत की थी। किंतु कहते हैं, प्रो. सी. वी. रमन जैसे प्राध्यापक वैज्ञानिक उस समय उनकी प्रतिभा को समझ नहीं पाए और उन्हें प्रवेश नहीं मिला। आखिर में उन्हें असंस्थागत छात्रा के रूप में प्रवेश मिल ही गया। कठोर मेहनत और लगन से उन्होंने प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद रमन के विचार परिवर्तित हुए और आखिर में उन्हें संस्थागत छात्रा के रूप में प्रवेश मिला। भारतीय विज्ञान अकादमी द्वारा 'लीलावतीज डॉटर्स: द वूमेन साइंटिस्ट्स ऑफ इंडिया' शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में 12वीं सदी के महान खगोल विज्ञानी आर्यभट्ट की गणितज्ञ बेटी लीलावती का विशद विवरण मिलता है।
पूर्व में रहे विज्ञान के क्षेत्र में चर्चित नाम
आनंदी बाई जोशी (1865-1887): आनंदी जोशी भारत की पहली महिला डॉक्टर हैं, जिन्होंने उस समय महिला डॉक्टर होने का इतिहास रचा। उनका प्रारंभिक जीवन कठिनाइयों से भरा हुआ था। कम उम्र में शादी होने और मां बनने पर उन्हें नवजात बेटे की मौत का दुखद सामना करना पड़ा। इसी घटना ने उन्हें चिकित्सक बनने की प्रेरणा दी। उन्होंने तमाम रूढि़यों को दरकिनार करते हुए खूब मेहनत की और एक प्रतिष्ठित डाक्टर बनकर समाज की सेवा की।
जानकी अम्माल (1897-1984): 4 नवंबर, 1897 को केरल में जन्म जानकी अम्माल वनस्पति और कोशिका विज्ञानी थीं। उन्होंने सबसे ज्यादा अनुसंधान गन्ने और बैंगन पर किया। उन्होंने अधिकांश समय ब्रिटेन में काम किया और फिर 1951 में भारत लौटकर भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (बीएसआई) के पुनर्निर्माण के लिए काम करते हुए बीएसआई के महानिदेशक पद को शोभित किया। औषधीय पौधों पर उनका कार्य आज भी विशेष महत्व रखता है। अपने शोध के कारण 1957 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया था।
कमला शेनोय: कमला शेनोय प्रथम भारतीय महिला वैज्ञानिक थीं जिन्हें अपने शोध की गुणवत्ता के कारण महान वैज्ञानिक प्रोफेसर सी.वी. रमन के साथ काम करने का गौरव और सौभाग्य मिला।
अन्ना मणि: अन्ना मणि एक भारतीय मौसम वैज्ञानिक थीं। वे भारतीय मौसम विज्ञान विभाग में उपमहानिदेशक के पद पर रहीं। उन्होंने भी प्रोफेसर सी.वी. रमन के साथ काम किया था। मौसम उपकरण के क्षेत्र में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
असीमा चटर्जी: असीमा चटर्जी ने कार्बनिक रसायन विज्ञान और फाइटोकैमिस्ट्री के क्षेत्र
में काम किया। उन्होंने एल्कलॉयड पर अनुसंधान और मिर्गर्ी, मलेरिया रोधी दवाओं का विकास किया।
राजेश्वरी चटर्जी: राजेश्वरी चटर्जी कर्नाटक से पहली महिला इंजीनियर थीं। 1946 में उन्हें विदेश में अध्ययन करने के लिए दिल्ली सरकार ने उस समय छात्रवृत्ति दी थी। उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में परास्नातक डिग्री प्राप्त की और अपने पति के साथ माइक्रोवेव इंजीनियरिंग में कार्य किया। उन्होंने भारत
में माइक्रोवेव अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना की।
दर्शन रंगनाथन: उन्होंने कार्यात्मक संकर पेप्टाइड्स और प्रोटीन संश्लेषण के क्षेत्र में अग्रणी काम किया एवं सुपरमॉलिक्यूलर डिजाइन, जैविक प्रक्रियाओं के रासायनिक सिमुलेशन, संश्लेषण सहित जैव कार्बनिक रसायन विज्ञान, नैनो ट्यूब के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण काम किया। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर उत्कृष्ट शोध कार्य किया एवं प्रोफेसर दर्शन रंगनाथन स्मारक व्याख्यानमाला की शुरुआत की।
महारानी चक्रवर्ती: महारानी चक्रवर्ती एक आण्विक जीवविज्ञानी रही हैं। उन्होंने 1981 में एशिया में पुन संयोजक डीएनए तकनीकी पर प्रथम प्रयोगशाला का आयोजन किया था।
चारुशीला चक्रवर्ती : चारुशीला का जन्म संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ था। बाद में वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में रसायन विज्ञान की प्रोफेसर नियुक्त हुईं। उन्होंने अमेरिका की नागरिकता त्यागकर भारत में श्रेष्ठ अनुसंधान कार्य किए। उन्हें शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च, बंगलूरू, कंप्यूटेशन सामग्री विज्ञान, जवाहर लाल नेहरू सेंटर की सक्रिय सहयोगी सदस्या हैं।
मंगला नार्लीकर: मंगला नार्लीकर का नाम विज्ञान से हटकर गणित शोधकर्ताओं में लिया जाता है। उन्होंने घरेलू जिम्मेदारियों को वहन करते हुए गणित में पी.एचडी. की और में रोचक बनाने के लिए काफी काम किया। उनके बनाए पाठ्यक्रम को आज भी मुंबई, पुणे विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है।
(लेखिका मेवाड़ विश्वविद्यालय, राजस्थान में पत्रकारिता विभाग में सहायक प्रोफेसर और टेक्निकल टुडे पत्रिका में सह संपादक हैं।)
हम किसी से कम नहीं
संध्या बजाज
वैज्ञानिक 'सी', रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन, दिल्ली
आज भी विज्ञान या इंजीनियरिंग विषय पढ़ने वाली लड़कियों का अनुपात शहरों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में 30/70 या 35/65 ही देखने में आता है, लेकिन अब इसमें सुधार के संकेत मिल रहे हैं। टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हमारे यहां अनुसंधान की सहूलियतें अभी उतनी भले नहीं हैं, पर टेक्नोलॉजी के क्रियान्वयन में हम अव्वल हैं। बेशक, हमारी महिला वैज्ञानिकों ने, मंगल आर्बिटर हो या 104 उपग्रह छोड़े जाने का अभियान हो, उपलब्ध टेक्नोलॉजी से कमाल का काम कर दिखाया। भले उन अभियानों में लगे उपकरण विदेशी होंगे पर उन्हें पूरे हिसाब से इस्तेमाल करने में हमने अपनी दक्षता साबित की है।
हमारी महिला वैज्ञानिक किसी भी अन्य देश की महिला वैज्ञानिकों से किसी मायने में कम नहीं हैं। आज बहुत सी लड़कियां अंतरिक्ष विज्ञान या टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आना चाहती हैं, उनके लिए सबसे पहले जरूरी है कि वे अपनी बुनियाद मजबूत करें। आधारभूत अध्ययन पर बहुत ज्यादा ध्यान दें। अच्छी बात यह है कि हमारे यहां महिलाओं में एक अच्छे प्रबंधक और एक साथ कई काम बखूबी करने के गुण पैदाइशी होते हैं। कॉर्पोरेट जगत में भी शीर्ष पदों पर महिलाओं के बैठे होने का राज यही है कि वे बहुत अच्छी प्रबंधक होती हैं, क्योंकि उनमें 'कम्पेशन', 'पैशन' और 'इमोशन' होता है, और होता है ज्ञान। उनका चीजों को देखने का नजरिया बहुमुखी होता है, जो एक टीम का नेतृत्व करने के लिए जरूरी है।
आज की लड़कियों को मैं यही कहूंगी कि हिम्मत और हौसला रखते हुए किसी
भी क्षेत्र में आगे बढ़ें, सफलता उनके
कदम चूमेगी। (वार्ताधारित)
रितु करीधल
उप संचालन निदेशक, मंगल आर्बिटर मिशन
रितु बचपन से ही अंतरिक्ष में रुचि रखती थीं। उनके मन में चंद्रमा के घटते-बढ़ते आकार को लेकर सवाल रहते थे। अंतरिक्ष के अंधकार के पीछे के रहस्य को जानने की जिज्ञासा थी। उनकी शुरू से ही भौतिक विज्ञान व गणित की गुत्थियों में विशेष रुचि थी। इसरो में काम करते हुए उन्हें करीब 18 साल हो चुके हैं। वैज्ञानिक दल की सदस्य के नाते वे गर्व कहसूस
करती हैं।
अनुराधा टी.के.
जीओसैट कार्यक्रम निदेशक, इसरो उपग्रह केंद्र
अनुराधा इसरो की सबसे वरिष्ठ अधिकारी हैं। उन्होंने 34 साल के कार्यकाल में ऐसे-ऐसे कारनामे किये हैं जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है। वे पृथ्वी के केंद्र से कम से कम 36,000 किमी दूर अंतरिक्ष में संचार उपग्रह भेजने में माहिर हैं। वे 9 साल की थीं तभी से अंतरिक्ष में होने वाली गतिविधियों में दिलचस्पी रखती थीं।
कृति फौजदार
निरीक्षक, प्रोजेक्ट, इसरो
कृति फौजदार के अनुसार इसरो में महिलाओं के लिए बहुत स्थान हैं, वे विभिन्न सैटेलाइट निरीक्षण एवं इसरो की अन्य परियोजनाओं में कार्य कर रही हैं।
नंदिनी हरिनाथ
उप संचालन निदेशक, मंगल आर्बिटर मिशन
नंदिनी इसरो की एक और प्रतिभावान वैज्ञानिक हैं, जिनका पहला प्रदर्शन टेलीविजन पर स्टार ट्रेक था। इसरो में आज उन्हें 20 साल हो चुके हैं।
वे मंगल यान के अपने प्रोजेक्ट को लेकर बेहद गौरवान्वित महसूस करती है। वे 2000 रु. के नए नोट पर मंगलयान की तस्वीर को देख बेहद खुश हुई थीं, क्योकि वे खुद भी इस प्रोजेक्ट का हिस्सा थीं।
मीनल संपत
उप सिस्टम इंजीनियर, इसरो
मीनल संपत इसरो में सिस्टम इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं। इन्होंने भारत के मंगल मिशन में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
टेसी थामस
विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में भारतीय महिलाओं की प्रतिनिधि
1963 में जन्मीं टेसी थॉमस हाल ही में तब चर्चा में आईं जब उन्हें 16 आईआईटीज के संगठन में बतौर निदेशक नियुक्त किया गया। बता दें कि टेसी विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधि चेहरा हैं। टेसी के जीवन का शुरुआती हिस्सा एक राकेट लॉन्चिंग स्टेशन के करीब गुजरा। बचपन से ही टेसी को रॉकेट और मिसाइलों में दिलचस्पी थी, बाद में यही उनके करियर का पैशन बन गया। वे डीआरडीओ की अग्नि-4 मिसाइल परियोजना की निदेशक रहीं। वैसे टेसी ने अपना करियर बतौर वैज्ञानिक 1988 में शुरू किया था। टेसी ने अग्नि-3 परियोजना में बतौर एसोसिएट प्रोजेक्ट निदेशक काम किया था। उन्हें अग्निपुत्री भी कहा जाता है। टेसी उन भारतीय छात्राओं के लिए मिसाल हैं, जो छोटे से शहरों से निकलकर अपने सपनों की मंजिल हासिल कर लेती हैं।
मुमिता दत्ता
वरिष्ठ वैज्ञानिक, इसरो
कोलकता की मुमिता दत्ता भी इसरो की वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं, वे मंगल आर्बिटर मिशन के लिए सराहनीय काम कर चुकी हैं।
एन. वलामर्थी
निदेशक, इमेजिंग सैटेलाइट
वलामथ र्ी प्रथम रडार इमेजिंग सैटेलाइट की निदेशक रही हैं, जिन्हें 2015 में प्रथम अब्दुल कलाम सम्मान दिया गया। वे 1984 में इसरो से जुड़ी थीं।
उन्होंने अनेक सफल अभियानों जैसे इंसैट-2ए, आईआरएस, आईसी, आई डी, टीईएस में भी काम किया।
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