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राज्य में बदले राजनीतिक हालात के बावजूद भाजपा को ढाई से तीन गुना अधिक वोट मिले हैं। पार्टी 10 में से 8 नगर निगमों पर काबिज हुई है और 25 में से 15 जिला परिषदों में बहुमत के करीब पहुंची
मोरेश्वर जोशी
लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा ने इस बार महाराष्ट्र निकाय चुनावों में भी अपना दबदबा कायम रखा। बीते सप्ताह राज्य के 10 नगर निगमों और 25 जिला परिषदों के चुनाव नतीजे आए। इसमें भाजपा ने आठ नगर निगमों पर कब्जा जमाया, जबकि 15 जिला परिषदों में वह बहुमत के करीब पहुंची। इनमें जहां पांच जिला परिषदों में उसे पूर्ण बहुमत हासिल हुआ वहीं, शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के खाते में दो-दो जिला परिषदें आई हैं। इसी के साथ निगमों में पार्टी की सीटें 205 से बढ़कर 550 हो गई हैं। करीब डेढ़ माह पहले लगभग 200 नगर निकायों के लिए हुए चुनाव में भी भाजपा को बड़ी सफलता मिली थी। इस चुनाव में धमाकेदार प्रदर्शन के साथ भाजपा शीर्ष पर है। दूसरे स्थान पर एनसीपी है, जबकि कांग्रेस तीसरे और शिवसेना चौथे स्थान पर रहीं।
निकाय चुनाव के नतीजों से साफ हो गया है कि महाराष्ट्र की 70 वर्ष की राजनीति का रुख बदला है। खास बात यह है कि जिन जगहों पर शिवसेना, एनसीपी या कांग्रेस सत्ता में आई है, वहां भी भाजपा को ढाई से तीन गुना अधिक वोट मिले हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में मिली सफलता और बदलते राजनीतिक हालात पर विचार करें तो निकाय चुनाव में भाजपा ने 20 फीसदी से अधिक का फासला तय किया है। इसके मुकाबले दूसरे दल काफी पीछे छूट गए हैं। संभावना जताई जा रही है कि भाजपा अन्य दलों की मदद से 12 से 15 परिषदों में सत्ता में आ सकती है। इस जीत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्य के मुख्यमंत्री श्री देवेंद्र फडणवीस के कामकाज में गतिशीलता और विश्वसनीयता पर किसानों और कामगारों के भरोसे के रूप में देखा जा रहा है।
भाजपा और शिवसेना के चरमराते संबंधों के कारण निकाय चुनाव पर लोगों की निगाहें टिकी हुई थीं। चूंकि मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है इसलिए भी इस चुनाव में लोगों की दिलचस्पी थी। खासतौर से 38,000 करोड़ के भारी-भरकम बजट वाली बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बी.एम.सी) पर किसका कब्जा होगा, स्थानीय राजनीति में यह चर्चा का विषय था। 227 पार्षदों वाली नगर पालिका में भाजपा को 82, जबकि शिवसेना को 84 सीटें मिलीं। यानी पिछली बार के मुकाबले भाजपा को इस बार ढाई गुना ज्यादा सीटें मिली हैं। 2012 में भाजपा ने बी.एम.सी की 31 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि शिवसेना को 76 सीटें मिली थीं। इस बार सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हुआ है। वह 51 सीटों से घटकर 31 पर आ गई है, जबकि एनसीपी 13 से 9 सीटों पर सिमट गई है। फिलहाल भाजपा और शिवसेना को 30-35 सीटों की जरूरत है। कांग्रेस के पास 31 सीटें तो हैं, लेकिन लगता नहीं कि दोनों दलों में से कोई उसकी मदद लेगा।
इस चुनाव में सीटों के आंकड़ों से ज्यादा महत्वपूर्ण 'शिवसेना की भूमिका' रही। एक दौर था जब इस क्षेत्रीय दल की पहचान पूरे देश में थी। तत्कालीन शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने पार्टी को इस ऊंचाई तक पहुंचाया था। तीस साल पहले तत्कालीन भाजपा नेता प्रमोद महाजन और बालासाहेब ठाकरे ने गठबंधन का फैसला कर राजनीति में नए युग का सूत्रपात किया था। ढाई साल पहले तक दोनों दलों के बीच यह गठबंधन कायम रहा और दोनांे ने मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ा। लेकिन विधानसभा चुनाव के दौरान दोनों दलों के बीच सीट बंटवारे पर सहमति नहीं हो पाई। इसके बावजूद दोनों ने साझा सरकार बनाई। इस बार निकाय चुनाव में भी दोनों के बीच सीट बंटवारे पर बात नहीं बनी और दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान शिवसेना ने यह घोषणा भी कर दी कि 'गठबंधन टूट चुका है।'
भाजपा-शिवसेना गठबंधन का पिछले तीन चुनाव पर क्या असर पड़ा है? इसे देखने पर वास्तविक स्थिति का अनुमान हो जाएगा। लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र की कुल 48 सीटों में से भाजपा को 23 और शिवसेना को 20 सीटें मिली थीं। इसी आधार पर विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे के समय भाजपा ने राज्य में बढ़े हुए अनुपात मंे सीटें मांगी थीं। मतलब भाजपा ने 125 सीटें मांगी थीं, लेकिन शिवसेना 90 से ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं थी। लिहाजा भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। उसे 122 सीटें मिलीं, जबकि शिवसेना के खाते में 63 सीटें ही आईं। मतलब साफ था कि भाजपा ने अपनी तैयारी के हिसाब से ही सीटें मांगी थीं और उतनी सीटें वह ले भी आई। वहीं, भाजपा ज्यादा सीटें देकर शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने को भी तैयार थी।
दरअसल, भाजपा ने इतनी तैयारी कर ली थी कि वह अकेले दम पर बहुमत से थोड़ी कम, लेकिन सरकार बनाने लायक सीटें तो ले ही आएगी। बी.एम.सी चुनाव में भी कमोबेश यही स्थिति थी। बीते 5-10 वर्ष से बी.एम.सी पर लग रहे वित्तीय आरोपों के मद्देनजर मुख्यमंत्री का जोर इस बात पर था कि दोनों दलों का चुनावी एजेंडा पारदर्शी हो। सीट बंटवारे के समय विधानसभा की तरह ही भाजपा ने ज्यादा सीटें मांगीं। लेकिन शिवसेना ने भाजपा को न केवल 60 सीटें देनी चाहीं, बल्कि यह कहते हुए गठबंधन तोड़ दिया कि इससे ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। मुख्यमंत्री ने 225 में से आधी सीटें जीतने की संभावना जताई थी। इसमें 15-20 सीटें कम होने का अनुमान था। यानी पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा को अनुमानित सीटें ही मिलीं।
बहरहाल, इस स्थिति राजनीतिक विश्लेषण करने के बजाय इतना जरूर कहा जा सकता है कि अगर शिवसेना ने भाजपा की बढ़ती भूमिका मान ली होती तो राज्य सरकार और बी.एम.सी में उसकी स्थिति कुछ अलग ही होती। फिलहाल भाजपा 'बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय' के सिद्धांत पर चल रही है, लेकिन 'पारदर्शिता' के मुद्दे पर कायम रहेगी।
बी.एम.सी के अलावा महाराष्ट्र में अन्य स्थानों पर भाजपा की सफलता ज्यादा निर्णायक थी। राज्य के 10 नगर निगमों में से आठ पर वह सत्ता में आई है। इनमें से अधिकतर पर पार्टी बहुमत में है, जबकि कुछ जगहों पर अन्य दलों की मदद से सत्ता में आई है। मुंबई से लगते ठाणे नगर निगम में शिवसेना को स्पष्ट बहुमत 164 सीटें मिली है, लेकिन भाजपा की सीटें सात से बढ़कर 23 हो गई हैं। पिछली बार शिवसेना को 53 सीटें मिली थीं। 50 लाख की आबादी वाले पुणे नगर निगम में भाजपा 50 वर्षों से काम कर रही है। 162 पार्षदों वाले निगम में भी उसकी सीटें 26 से बढ़कर 98 हो गई है। वहीं, 40 लाख की आबादी वाले पिंपरी चिंचवड नगर निगम में यह संख्या 3 से बढ़कर 78 हो गईं। इन दोनों स्थानों पर भाजपा को निर्णायक बहुमत मिला है।
इसी तरह, पश्चिम महाराष्ट्र में तीन नगर निगम हैं। इनमें भाजपा की 74 सीटें थीं, जो अब 222 हो गई हैं। इसमें सोलापुर नगर निगम अपेक्षाकृत ग्रामीण क्षेत्र में है। गौरतलब है कि यह इलाका पूर्व केंद्रीय मंत्री सुशील शिंदे का गढ़ माना जाता है। यहां बीड़ी मजदूरों की बस्ती है। हालांकि नोटबंदी के बाद वहां किसी का रोजगार तो नहीं छूटा, लेकिन कुछ समय तक लोगों को आर्थिक असुविधा जरूर हुई। विरोधियों का कहना था कि सोलापुर में भाजपा को वोट नहीं मिलेगा, लेकिन हकीकत में वहां उसके वोट बढ़े हैं। 102 पार्षदों वाले निगम में भाजपा सदस्यों की संख्या 49 हो गई है, जबकि कांग्रेस दयनीय स्थिति में पहुंच गई है। वहीं, इस क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में, जहां भाजपा का परंपरागत वोटर नहीं था, वहां भी जिला परिषद् उसकी सीटें 4 से बढ़कर 99 हो गईं।
अगर उत्तर महाराष्ट्र की बात करें तो वहां शिवसेना को थोड़ी बढ़त मिली है, लेकिन भाजपा की सीटें भी 33 से बढ़कर 54 हो गईं। शिवसेना को पिछली बार 38 सीटें मिली थीं, जो अब 44 हो गई हैं। यह किसानों का इलाका है और इसमें नासिक शहर के अलावा मुख्यतया केला, संतरा, कपास और प्याज की फसल उगाने वाले इलाके आते हैं, जिन्हें खान देश कहा जाता है। पिछली बार उत्तरी इलाके में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एम.एन.एस) ने जीत दर्ज की थी, लेकिन इस बार भाजपा सत्ता पर काबिज हुई है। जिला परिषद में उसकी सीटें 4 से 14 हो गई हैं।
जीत के सूत्रधार
निकाय चुनाव मुख्यत: मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और प्रदेश अध्यक्ष राव साहेब दानवे के नेतृत्व में लड़े गए। वहीं, मुंबई में आशीष शेलार तथा पश्चिम महाराष्ट्र में राजस्व मंत्री चंद्रकातदादा पाटील ने भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। पुणे में खाद्य एवं नगर आपूर्ति मंत्री श्री गिरीश बापट और उत्तरी महाराष्ट्र में सिंचाई मंत्री गिरीश महाजन ने स्थिति संभाली थी।
वहीं, दिवंगत प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे जैसे दिग्गज नेताओं के क्षेत्र मराठवाड़ा में भाजपा सदस्यों का आंकड़ा 57 से बढ़कर 133 पर पहुंच गया है। विदर्भ में तो जैसे चमत्कार ही हो गया। नागपुर नगर निगम में वैसे तो भाजपा 10 साल से सत्ता में है, लेकिन इस बार उसे बहुत अधिक बढ़त मिली है। 151 सदस्यों के सभागृह में उसेे 108 सीटें मिलीं, जो पहले 62 थीं। इसके अलावा विदर्भ कीजिला परिषदों में भी वह 61 से 139 पर पहुंच गई है। भाजपा ने अकोला और अमरावती नगर निगम अपने दम पर जीते हैं।
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