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इस्लामी जिहादियों को ऐसी वैचारिक और मजहबी घुट्टी पिलाई जाती है कि वे डर त्याग कर मरने और मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसे आत्मघातियों का मुकाबला वैचारिक स्तर पर ही करना होगा। इस विकल्प पर आज नहीं, तो कल भारत को काम करना ही पड़ेगा
ज्ञानेन्द्र बरतरिया
पहले पठानकोट, फिर उरी और उसके बाद नगरोटा। 29-30 नवंबर को, जब पाकिस्तान में वहां के नवनियुक्त सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने कमान संभाली, नगरोटा में सैन्य शिविर पर आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें सेना के दो अधिकारी और पांच जवान शहीद हो गए। आठ घंटे चली मुठभेड़ में हमला करने वाले तीनों आतंकवादी मारे गए और उनके पास से जैश-ए-मोहम्मद के कथित अफजल गुरु दस्ते के नाम से लिखे उर्दू भाषा के दस्तावेज मिले। सेना ने कहा कि भारी हथियारों से लैस आतंकवादियों ने नगरोटा सैन्य शिविर के पिछले हिस्से में जंगली इलाके से परिसर में प्रवेश किया था। वहां चारों तरफ कंटीले तार और छोटी दीवार थी। तीनों आतंकी तार काटकर और संतरियों पर गोलीबारी करते हुए और ग्रेनेड फेंकते हुए शिविर में दाखिल हुए।
दरअसल, उस दिन जम्मू में दो आतंकवादी हमले हुए थे। सांबा के पास रामगढ़ में अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास घंटों चली मुठभेड़ में बीएसएफ ने तीन आतंकवादियों को मार गिराया। मुठभेड़ खत्म होते ही इस क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी थी। इस मुठभेड़ में बीएसएफ के उपमहानिरीक्षक सहित चार सुरक्षाकर्मी घायल हो गए।
सांबा की घटना का उल्लेख नगरोटा मामले के साथ करना आवश्यक है। अगर सांबा में तीन आतंकवादियों को खत्म न किया गया होता, तो निश्चित तौर पर यही आतंकवादी किसी और स्थान पर हमला करते। तुरंत नहीं करते, तो कुछ समय बाद करत
सामान्य-सी बात!
सारे घटनाक्रम की कडि़यां देखिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं। वे छुट्टी मना रहे नवाज शरीफ को फोन करते हैं, और अकस्मात् उनसे मिलने पहुंचते हैं। जवाब? जवाब दूसरे छोर से मिलता है। थोड़े ही समय बाद पठानकोट में वायुसेना के अड्डे पर हमला होता है।
एक सामान्य-सी बात? एक रिवाज? एक परिपाटी? यह तो हमेशा से ऐसा ही चलता रहा है?
नहीं। भले ही यह हमेशा से ऐसा ही चलता रहा हो, इसे हमेशा ऐसे ही चलते रहने नहीं दिया जा सकता। और इसे सामान्य बात, रिवाज, परिपाटी किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
फिर जवाब। 18 सितंबर को उरी में सेना के अड्डे पर हमला होता है। 19 जवान शहीद होते हैं। 14 साल का सबसे बड़ा हमला। जवाब में 29 सितंबर को भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक करता है। घुसपैठ के लिए तैयार बैठे दर्जनों आतंकवादी और पाकिस्तानी सैनिक वहीं मार गिराए जाते हैं। एक नया उत्तर। संदेश यह कि भारत अब आतंकवादी वारदातों को सामान्य सी बात नहीं मानेगा। भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पाकिस्तान को अलग-थलग कर देता है। पाकिस्तान को सिर्फ चीन का साथ मिल पाता है।
सर्जिकल स्ट्राइक का घाव गंभीर था। जवाब में फिर घटनाक्रम तेज होता है। बारामूला, लंगैत, पंपोर और अंतत: नियंत्रण रेखा पर भारी गोलाबारी। दो भारतीय सैनिकों के शवों को क्षत-विक्षत कर दिया जाता है। कुल मिलाकर 26 भारतीय सैनिक शहीद। जवाब में भारत भी पाकिस्तान की दर्जनों चौकियां ध्वस्त कर देता है, कई दर्जन पाकिस्तानी सैनिक मार दिए जाते हैं। पाकिस्तान त्राहि-त्राहि करता है, लेकिन सिर्फ धोखा देने के लिए। संदेश यही कि आतंकवादी वारदातों को सामान्य और नियमित बात माना जाए। प्लीज।
8 नवंबर। भारत एक और सर्जिकल स्ट्राइक करता है। 500 और 1000 के भारतीय नोट खारिज कर दिए जाते हैं। इससे पाकिस्तान के हवाला कारोबार, ड्रग्स के धंधे और नकली नोटों के कारोबार को गहरा झटका लगता है। यही तीनों आतंकवाद वित्तपोषण के महत्वपूर्ण स्रोत थे। कश्मीर में पत्थरबाजी तुरंत बंद हो जाती है। पाकिस्तान के सबसे बड़े हवाला कारोबारी जावेद खानानी की कराची में संदिग्ध मौत होती है, जिसे उसका परिवार आत्महत्या करार देता है और पोस्टमार्टम कराने से इनकार कर देता है।
पठानकोट, उरी, बारामूला, लंगैत, पंपोर, नियंत्रण रेखा और नगरोटा। कोई शक नहीं कि हर कोशिश पर ज्यादा, बहुत ज्यादा नुकसान पाकिस्तान को ही हुआ है। लेकिन लड़ाई आंकड़ों की नहीं है। फिर लड़ाई क्या है?
दरअसल, आप पठानकोट से लेकर नगरोटा तक की सूची को चाहे जितना पीछे ले जा सकते हैं, और अभी जहां तक नजर आता है, वहां तक के भविष्य के लिए संभवत: आगे भी ले जा सकते हैं। अल्पकालिक दायरे से बाहर जाकर देखें, तो इतिहास एक जैसा ही नजर आएगा।
पाकिस्तान की तरफ से इस दौरान कई बयान दिए जाते हैं। सभी रटे-रटाए। लेकिन एक वाक्य सभी में जरूर होता है- 'कश्मीर सारी समस्या की जड़ है।' माने जब तक कश्मीर पाकिस्तान को नहीं मिलता, यह सब ऐसे ही चलेगा। अब कश्मीर तो मिलना नहीं है, इसे वे भी जानते हैं। माने आतंकवाद हर हाल में जारी रहेगा। चाहे भारत जवाबी कार्रवाई करे या न करे।
लड़ाई का वैचारिक पहलू
वास्तव में यह पाकिस्तान का बहुत सपाट, और दीर्घगामी नीतिगत बयान है कि – 'आतंकवाद जारी रहेगा।' असली लड़ाई भी यही है। जिनके बूते यह लड़ाई लड़ी जा रही है, वे फिदायीन हैं। अंग्रेजी में कहें तो सुसाइडल। हिन्दी में आत्मघाती। जब मरना ही किसी का लक्ष्य हो, तो उसे मरने के, नुकसान के भय से – या प्रतिरोध से रोकना संभव ही नहीं होता। जाहिर है, वे न तो कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं, न किसी अन्य तात्कालिक या दीर्घकालिक लक्ष्य के लिए, न पाकिस्तान की इस सोच के लिए कि हजारों घाव करने से भारत को खत्म किया जा सकेगा। वे सिर्फ जान देने के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें बताया गया है कि जान देने से उन्हें जन्नत मिलेगी, जहां 72 हूरें होती हैं। जिहाद इसलिए उनकी जरूरत है। जो मरने पर उतारू हो, स्वाभाविक है कि वह किसी को भी 0कोई भी नुकसान पहुंचा सकता है। यही इतिहास है। सिर्फ जियाउल हक के समय से नहीं, उसके भी बहुत पहले से।
एक जैसे नजर आने वाले इस इतिहास को उलटा कैसे जा सकता है? स्वाभाविक है कि विचार की लड़ाई विचार के स्तर पर ही लड़नी पड़ेगी। भारत आम तौर पर यह लड़ाई सामरिक स्तर पर लड़ता है। नगरोटा के बाद भारत में उभरे सुरों को देखिए। प्रतिपक्ष ने, सावधानी के बावजूद, कमोबेश इसे सरकार पर प्रहार करने के मुद्दे के तौर पर लिया। टिप्पणीकारों में से अधिकांश ने इस पर पिछली घटनाओं से सबक न ले पाने की टिप्पणियां कीं, जो उन्होंने संभवत: पहले भी कई बार की होंगी।
यह वैचारिक युद्ध में न्यूनता का परिचायक है। प्रतिरोध की विफलता मूलत: इस बात में है कि आप विचार के स्तर पर युद्ध नहीं लड़ रहे होते हैं। पाकिस्तान की ओर से, या ज्यादा सही शब्दों में, पश्चिमी सीमा की ओर से हो रहे हमलों से सबक न ले पाना संभवत: उतना बड़ा संकट नहीं है, जितना सबक न सिखा पाना रहा है। फिदायीनों का प्रतिरोध भले ही न हो सके, फिदायीन सोच का प्रतिरोध जरूर पैदा करना होगा। कुछ अच्छे सुझाव अवश्य आए हैं, जैसे प्रशिक्षण, तैयारी का स्तर या अधोसंरचना में सुधार के सुझाव। लेकिन ये सभी अपनी प्रकृति में न केवल रक्षात्मक हैं, बल्कि चिंतन की सामरिकता की सीमा में ही हैं। इस तरह के युद्ध में सामरिक समझ की अपनी सीमा है।
भारत विरोधी विचारों का तालमेल
एक बार फिर पाकिस्तान की इस सोच पर लौटें कि हजारों घाव करने से भारत को खत्म किया जा सकेगा। यह सोच पाकिस्तान की सेना और उसकी तमाम विस्तारित शाखाओं के बीच विश्वास में बदल चुकी है। वे ऐसा सोचते ही नहीं, बल्कि इस पर यकीन भी करते हैं। आप उन्हें सबक सिखाने की कोशिश कर सकते हैं, सीखने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। न वे 1965 में सीखने को तैयार हुए, न 1971 में, न कारगिल के बाद और न सर्जिकल स्ट्राइक से। यकीन और तर्क में यही अंतर होता है।
आप हजारों घाव करके किसी राष्ट्र को कैसे खत्म कर सकते हैं? वह भी किसी ऐसे राष्ट्र को, जिसे न किसी व्यक्ति ने राष्ट्र बनाया, न किसी राजा ने और न किसी सेना ने? इसका उत्तर वही दिया जाता है, जो आप वामपंथी गढ़ में सुनते रहे हैं। यह कि भारत कोई राष्ट्र ही नहीं है। भारत तेरे टुकड़े होंगे-यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला हो या न हो, हजारों घाव के सिद्धांत की सहायक धारा जरूर है। किस तरह दो वैचारिक मिथक-कथानक एक बिन्दु पर पहुंच एकसार हो सकते हैं- यह इसका ज्वलंत उदाहरण है।
सामरिक समझ का हावी होना
दीर्घकालिक दृष्टि से देखा जाए, तो ऐसा प्रतीत होता है कि भारत पर होने वाले विविध प्रकार के आक्रमणों में वैचारिक पक्ष काफी प्रबल है, और भारतीय प्रत्युत्तरों में सामरिक समझ हावी है और वैचारिक पक्ष गौण ही है। भारत के प्रति तमाम शत्रुतापूर्ण विचारों के बीच आसानी से बन जाने वाले सामंजस्य का संभवत: यही कारण है। 500 और 1000 के नोटों को बंद करने के विरोध में दिए जा रहे तकार्ें को एक बार गौर से देखिए। आपको ऐसा भी प्रतीत हो सकता है, जैसे भारत के ही लोग इस बात को लेकर परेशान हो रहे हों, कि भारत ने आतंकवाद की आर्थिक कमर क्यों तोड़ दी? यह काम उस प्रतिपक्ष के द्वारा किया जा रहा है, जो वस्तुस्थिति को काफी गहराई से जानता है।
नोटबंदी और राष्ट्रीय सुरक्षा
वस्तुस्थिति क्या है? फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स ने, जो एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, मनी लउंड्रिंग एंड टेररिस्ट फाइनेंसिंग रिलेटेड टू काउंटरफेटिंग ऑफ करेंसी (आप स्वयं भी इसे इंटरनेट पर देख सकते हैं) अर्थात नकली नोटों से संबंधित कालेधन को सफेद करने और आतंकवाद को धन उपलब्ध कराने के विषय पर जून, 2013 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में प्रमाणों के साथ स्पष्ट तौर पर कहा था कि मुंबई पर लश्कर ए तैयबा के हमलों में नकली भारतीय मुद्रा का प्रयोग किया गया था। अगर हम अपनी सुरक्षा को सामरिक दृष्टि से न देखकर गहराई से देख रहे होते, तो जो फैसला 8 नवंबर, 2016 को हुआ, वह कम से कम 2013 में ही हो जाना चाहिए था। वह भी तब, जब हम यह मानकर चलें कि भारत सरकार को अपनी ओर से तो इसकी जानकारी ही नहीं रही होगी। बहरहाल, इसी रिपोर्ट के अनुसार हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकवादी नकली भारतीय मुद्रा का प्रयोग करते आ रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2009 की तुलना में 2011 के दौरान भारत में पकड़ी गई नकली भारतीय मुद्रा की मात्रा में 210 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। फरवरी, 2012 में इंटरपोल ने हांगकांग से दी गई अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पाकिस्तान से जहाज में लादकर ले जाई गई नकली भारतीय मुद्रा हांगकांग में पकड़ी गई थी, जहां से उसे चीन और नेपाल के रास्ते भारत लाया जा रहा था। सीमा पर भी कई बार नकली भारतीय मुद्रा पकड़ी गई थी। ये सारी बातें उस समय की भारत सरकार की जानकारी में भी थीं।
और अब, जावेद खानानी की कथित आत्महत्या के बाद, कथित इसलिए क्योंकि यह बहुत संभव है कि आईएसआई ने उसकी हत्या की हो, क्या सामने आया है? खुद पाकिस्तानी अखबारों में प्रकाशित खबरों के अनुसार यह कि हवाला का जो कारोबार पाकिस्तान की आईएसआई के नियंत्रण में था, वह किसी तीसरे देश में डॉलरों की वसूली करके उनकी एवज में नकली भारतीय मुद्रा भारत भेज देता था। माने एक पंथ दो काज। भारत में नकली मुद्रा भेज दी गई और उधर पाकिस्तान ने बिना कुछ किए धरे डॉलर कमा लिए। कितने? अनुमान है कि भारत में 1000-500 की नोटबंदी के बाद पाकिस्तान को 40 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा का घाटा हुआ है। (देखें पाकिस्तानी अखबार डॉन) तस्वीर यहां बहुत साफ हो जाती है।
वैचारिक पराजय के लक्षण
अगर पाकिस्तान से छप कर आ रहे नकली नोटों में एक वैचारिक युद्ध की छाया देखी गई होती, तो इसका जवाब भी वैचारिक स्तर पर देने का विचार जरूर किया जाता। अब यहां भारत में हो रहे विरोध में दिए जा रहे तर्क किस तरह के हैं? जैसे यह कि लोगों को परेशानी हो रही है – अर्थात् भारत को कभी भी कोई बड़ा कदम नहीं उठाना चाहिए, क्योंकि भारत के लोग बड़ा कदम उठाने पर होने वाली परेशानी झेलने में सक्षम नहीं हैं। इसी तरह एक तर्क यह है कि इसके बारे में किसी को विश्वास में नहीं लिया गया – अर्थात् भारत से कभी भी कोई ऐसा कदम उठाने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, जो किसी परिणाम तक पहुंचता हो। उसे समय से पहले लीक करके विफल हो जाने देना चाहिए था। एक इच्छा संसद में व्यक्त की गई थी- इससे तो मंदी आ जाएगी। जैसे नकली नोटों और मुंबई जैसे हमलों से उन्नति आनी हो।
यह ठीक वैसा ही है, जैसे 1971 में लोंगेवाला के मोर्चे पर हुई लड़ाई की सत्य घटना पर आधारित बॉर्डर फिल्म का जब पाकिस्तान में विरोध किया गया, तो भारत के बौद्धिक वर्ग के एक हिस्से ने कहा कि मुंबई वालों को बॉर्डर जैसे सैनिक विषय पर फिल्म बनाने के बजाए इसे किसी प्रेमकथा में बदल कर बनाना चाहिए था। किसी सैनिक विषय पर गर्वस्पद या परिणामस्पद फिल्म से आपत्ति इसलिए, क्योंकि इसका संदेश उस बात से मेल नहीं खाता, जिस पर यकीन किया जा चुका था। भारत के मुट्ठी भर जवानों ने पाकिस्तान के सैकड़ों टैंकों को हरा दिया- यह रटे-रटाए यकीन के विरुद्ध है। रेखांकित करने योग्य बात यह है कि नोटबंदी के विरोध के इन तकार्ें में नकली नोटों का, उनसे आतंकवाद को किए जाते रहे पोषण का कहीं कोई जिक्र नहीं है। संभवत: वे नकली नोटों को और आतंकवाद को सामान्य सी, रोजमर्रा की बात मानते हों। पाकिस्तान जो यकीन करता है, वह इससे जरा भी भिन्न कहां है?
विफल कदम और विकल जन- यही यकीन और उसके पहले का चिंतन मूलत: उस विचार को खाद-पानी देता है, जो विचार यह मानकर चलता है कि भारत पर हमले करते रहना, यहां के नागरिकों की हत्याएं करते रहना तो सामान्य बात है। उसी सामान्य बात की कहानी में नकली नोटों का प्रचलन फिट हो जाता है, उसी में भ्रष्टाचार फिट हो जाता है।
यह उस वैचारिक युद्ध का हिस्सा है, जो हमने शायद पूरे मनोयोग से लड़ा ही नहीं। न अपनी धरती पर, और न दुश्मनों की धरती पर। भौतिक युद्ध तो अपने स्थान पर है, लेकिन इस वैचारिक युद्ध को कब तक टाला जा सकेगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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