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डॉ कृष्णलाल श्रीधराणी
(प्रस्तुत लेख में विज्ञ लेखक ने अत्यंत रोचक तथा दार्घतम रूप में दर्शाया है कि पं. नेहरू
'समझदारी' का नारा लगाते-लगाते राष्ट्र का सतत अहित करते जा रहे हैं।)
पं. नेहरू को सही बात के प्रति अनुराग है, विशेष रूप से उस समय जबकि वह किसी वस्तु के सम्बंध में गंभीरता के साथ विचार करते हैं। सामान्य कम्युनिस्टों के और विशेष रूप से चीनी कम्युनिस्टों के बारे में विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि 'साम्राज्यवादी' उनके लिए एक जादू भरा मंत्र है। जहां तक उनका संबंध हैं, इस 'फार्मूले' के आधार पर किसी भी वस्तु या व्यक्ति की व्याख्या की जा सकती है। वास्तव में प्रधानमंत्री ने एक गंभीर बात कही है। कम्युनिस्टों की आदत ही है कि वे किसी नारे विशेष को बार-बार लगाकर स्वयं को तो सम्मोहित करते ही हैं, दूसरों को भी सम्मोहित कर डालते हैं। स्वयं को किसी मूर्च्छा अभिभूत कर लेते हैं और इसके पश्चात उनका यथार्थ से सम्बंध विच्छेद हो जाता है। अगर ऐसा न होता तो चीनी तथा भारतीय दोनों ही कम्युनिस्टों ने भारत की उन भावनाओं के बारे में गलत अंदाज कैसे लगा लिया होता जो 2500 मील लंबी सीमा के प्रश्न को लेकर उमड़ उठी हैं? मैंने 'जादू' शब्द का प्रयोग अलंकारिक रूप से किया है। मानव विकास के पूर्व धार्मिक युग के अविकसित विज्ञान को यहां संज्ञा दी जाती थी। मानव-विकास की उस अवस्था में जादू भी वही काम करता था जो आज विज्ञान करता है।
अमरीका के एक भूतपूर्व कम्युनिस्ट उपन्यासकार हॉवर्ड फास्ट ने कम्युनिस्टों की इस अमूल्य सम्मोहन वृत्ति का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है। वह कहते हैं ''(कम्युनिस्ट)' पार्टी में प्रदर्शन प्राय: किए जाते हैं और वह भी अक्सर निस्प्रयोजनार्थ केवल इस विश्वास के साथ कि वृहत समानान्तर आंदोलनों की चालना ही जा सकेगी। अनुभव के आधार पर उपलब्ध ज्ञान का इस वृत्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्रस्ताव भी सम्मोहन किया के रूप में पारित किए जाते हैं। (भारत में कांग्रेस भी यही करती है।) मैं आए दिन इस पक्की धारणा से प्रस्तावों को पारित किया जाता हुआ देखता हूं कि वे भावनाओं को उभाड़ेंगे; किन्तु क्रियाशीलता के सतत् अभाव के कारण प्रस्तावों का प्रभाव जादू टोने से अधिक नहीं होता।
'समझदारी' जादू के डंडे के रूप में- यदि राज्य सभा में पं. नेहरू ने श्री चाऊ-एन-लाई को इसलिए कोसा कि उन्होंने ''साम्राज्यवादी'' शब्द में जादू भरी विशेषताएं खोज निकाली हैं। तो निश्चयपूर्वक चीन वाले भारतीयों को इसलिए कोस सकते हैं कि वे 'समझदार' को अंतर्भूव शक्ति पर आस्था रखते हैं। कितने भी मौन, निर्बलताएं तथा तुष्टीकरण ''समझदारी'' के आवरण के नीचे नासमझीपूर्वक छिपाए जा सकते हैं। चीनियों को हमारे भूखण्ड को दबा लेने दो, 'हम शक्ति का प्रदर्शन नहीं करेंगे।' क्योंकि हम एक समझदार राष्ट्र हैं। भले ही चाऊ-एन-लाई अपने पत्र में पं. नेहरू को असत्यमषी घोषित कर दें; परन्तु हम तो काश्मीरी ब्राह्मण की समझदारी का इसी प्रकार का उत्तर देंगे: 'यह बात उनके लिए बहुत ही आश्चर्य में डालने वाली और निराशाजनक है कि अत्यंत सुलभ्य संस्कृति और विनम्रता के लिए प्रख्यात कोई सरकार और राष्ट्र इस प्रकार की गलती करे और भारत सरकार के साथ ऐसी भाषा में व्यवहार करे जो किसी शत्रु राष्ट्र के लिए भी अभद्रतापूर्ण है।'
'जीव का शिव तक पहुंचने का प्रयास ही जीवन-विकास है'
—: श्री एकनाथ रानाडे, सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ :—
इस विनश्वर सृष्टि के अंतर्भूत एक शाश्वत तत्व मौजूद है, जिसे हमारे पूर्व पुरुषों ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखने तथा दिव्य बूद्धि से समझने का प्रयास किया है, उस अविनाशी तत्व को खोजने की सतत् चेष्टाएं की है।
दिव्यदृष्टा पूर्व पुरुष- हम जानते हैं कि जब मनुष्य 18-20 साल की वय में होश संभालता है तो अपनी कुछ धारणाएं बनाकर जीवन-पथ पर चलना प्रारंभ करता है। इसी प्रकार जब हमारे प्रतिभावन बुद्धिमान पूर्व पुरुषों ने होश संभाले तो उन्हें द्विव्य-दृष्टि तथा दिव्य बुद्धि प्राप्त थी और होश संभालने का वास्तविक अर्थ भी तो यही है। पश्चात मानव-जीवन में जो एक स्थिर तत्व है, उसका रहस्य समझते हुए उन्होंने अपने जीवन की दिशा निर्धारित की।
जीवन का शिव तक पहुंचने का लक्ष्य- मनुष्य में नाना प्रकार की भूख रहती है-शारीरिक, मानसिक तो होती ही है-आत्मा की भी एक भूख होती है और जिसको हमारे पूर्वजों ने अत्यधिक प्रमुखता दी। सोचा, इस आत्मा को किस मार्ग से उन्नतिशील बनाया जा सकता है? इसे भरपूर ऊंचाई तक पहुंचाने हेतु कौन सी सोपान-परंपरा अपनाई जाए? और अन्तत: यह सब अच्छी प्रकार से हृदयंगम करते हुए उन्होंने जो साधन-पथ उचित समझा, उसे सबके समक्ष प्रस्तुत किया। परन्तु इतना सब 10, 20 व 100 वषोंर् में नहीं हो पाया होगा। असंख्य वर्ष लगे होंगे, तब कहीं निश्चित रूप से हमारे पूर्व समाज की जीवन यात्रा प्रारम्भ हुई होगी। अपना यही 'समाज' आगे राष्ट्र के रूप में परिणित हुआ। समाज यथार्थ में समाज बना। कुछ लोग इकट्ठा खेलने लगे, उसको तो 'समाज' नहीं कहा जा सकता। समाज के अर्थ अनेक लोगों के 'समूह' भी नहीं है। तो हमारे उस पूर्व समाज के भीतर पहले 'वयम' का प्रादुर्भाव हुआ। 'वयम' अर्थात् 'हम सब'। फिर सत्यान्वेषण करते हुए उन सबों का एक ध्येय, एक लक्ष्य बना कि हम मानव से अतिमानव बनेंगे तथा अतिमानव से देवत्व तक पहुंचने का प्रयास प्रारम्भ हुआ।
दिशाबोध
सत्तावादी केवल सत्ता पर एकाग्र रहते हैं
''किसी भी नवस्वतंत्र देश के सार्वजनिक नेताओं का वर्गीकरण चार वर्गों में किया जा सकता है। एक वर्ग है शुद्ध सत्तावादियों का। पक्षी की बायीं आंख पर सारा ध्यान केंद्रित करने वाले अर्जुन की भांति ये शुद्ध सत्तावादी अपने चित्त को केवल सत्ता पर एकाग्र करते हैं। दूसरा वर्ग है विशुद्ध राष्ट्र-निर्माताओं का। उनका भी चित्त एकाग्र ही होता है, किन्तु राष्ट्र-निर्माण के कार्य पर। इस कार्य की सिद्धि के लिए आवश्यकता पड़ने पर राजनीति में भाग लेना अपरिहार्य हो, तब भी ऐसा करने से होने वाले लाभ एवं हानि तथा अपनी भूमिका का समग्र विचार करते हुए इस वर्ग के लोग राजनीतिक कार्य से दूर रहते हैं। या यों कहा जा सकता है कि इन लोगों के गणित के अनुसार राजनीतिक कार्य को किन्हीं अन्य लोगों के द्वारा तो करवाया जा सकता है, किन्तु स्वयं ही राजनीति में उतरने के कारण नैतिक अधिकार कम होता दिखाई देता हो तो उससे होने वाली हानि अधिक बड़ी रहेगी। इन दोनों वर्गों के लोगों को स्पष्टत: पहचाना जा सकता है। किन्तु दो अन्य वर्गों की सीमारेखा बहुत ही सूक्ष्म होती है और परिणामस्वरूप उनका वर्गीकरण कठिन हो जाता है।'' —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-1, पृ. 16)
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