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डॉ. कृष्णा एम एल्ला
60 वर्ष वैज्ञानिक एवं उद्योगपति
रोगों को विदाई टीका
कई बीमारियों के टीके बना चुके डॉ. एल्ला किसान बनना चाहते थे। लेकिन कड़ी मेहनत और मां की प्रेरणा ने उन्हें वैज्ञानिक से उद्योगपति बना दिया। उनकी कंपनी करोड़ों रु. का कारोबार कर रही
प्रेरणा मां और पत्नी
दिलचस्प आंकड़ा
कंपनी अब तक 50 टीके पेटेंट करा चुकी है और नौ नए टीकों पर काम कर रही है।
उद्देश्य
आए दिन फैलती बीमारियों की रोकथाम के लिए टीके और जटिल बीमरियों पर शोध
का अहम मोड़
मां ने कहा, बेटा,वापस आ जाओ और जो करना चाहते हो करो।
ज्ञान और धन के प्र्रति दृष्टि
मैं व्यापारी होता तो शोध नहीं करता। हम वैज्ञानिक हैं। हम जुनून की हद तक देखते हैं, अनुमान लगाते हैं और आगे बढ़ते हैं।
नागार्जुन
जीका वायरस का टीका बनाकर सुर्खियों में आने वाले डॉ़ कृष्णा.एम एल्ला सफल वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि सफल उद्योगपति भी हैं। तमिलनाडु के वेल्लोर जिले के मॉलिक्यूलर बायोलॉजिस्ट डॉ़ एल्ला एक साधारण किसान परिवार से हैं और खुद किसान बनना चाहते थे, लेकिन कृषि विज्ञान में गहरी दिलचस्पी उन्हें अमेरिका ले गई। डॉ़ एल्ला ने हवाई विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और विस्कन्सिन मेडिसन विश्वविद्यालय से पी.एचडी. की। वे दक्षिण कैरोलिना के मेडिकल विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक थे। लेकिन पत्नी और मां के कहने पर देश लौट आए और 1996 में पत्नी सुचित्रा के साथ हैदराबाद में भारत बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड नाम से एक कंपनी बनाई। दो साल बाद ही 1998 में हेपेटाइटिस-बी का टीका रीवैक-बी बाजार में उतारने के बाद पहली बार उनकी कंपनी चर्चा में आई।
यह दुनिया का पहला सीजियम क्लोराइड रहित हेपेटाइटिस बी का टीका है। उन्होंने इसकी कीमत एक डॉलर रखी, जबकि अन्य कंपनियों के टीके की कीमत 35 से 40 डॉलर थी। ड़ॉ. एल्ला की कंपनी ने दिसंबर, 2014 में जीका वायरस के टीके पर काम शुरू किया और सात माह में ही उसका प्रतिरूप तैयार कर लिया और पेटेंट के लिए अर्जी दे दी। कंपनी का दावा है कि भारत बायोटेक इंटरनेशनल दुनिया की पहली कंपनी है जिसने जीका वैक्सीन के पेटेंट के लिए आवेदन किया है। शुरुआत में अन्य फार्मा एवं बायोटेक कंपनियों की तरह भारत बायोटेक भी टीके की अनुकृति तैयार करती थी, क्योंकि तब तक भारत में उत्पादों के पेटेंट कराने की इजाजत नहीं थी।
2005 में भारत में उत्पाद पेटेंट व्यवस्था लागू होने पर कंपनियों के लिए शोध के रास्ते खुले। लेकिन डॉ़ एल्ला के सामने धन की कमी सबसे बड़ी चुनौती थी। फिर भी उन्होंने कंपनी में टीका विभाग बनाया और शेयर बेचकर, अनुदान और कर्ज लेकर शोध के लिए 1,000 करोड़ रु. राशि जुटाई कम्पनी ने तीन साल में तीन टीके विकसित किए। ये बच्चों में डायरिया, टायफायड और जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों की रोकथाम में सक्षम हैं। 60 वर्षीय डॉ. एल्ला इबोला वायरस का टीका बनाने का दावा भी कर चुके हैं। उनकी कंपनी अब तक 50 टीके पेटेंट करा चुकी है और नौ नए टीकों पर काम कर रही है।
डॉ. एल्ला कहते हैं,''मेरे पिताजी साधारण किसान थे। स्कूली पढ़ाई के बाद मैं कृषि की पढ़ाई करना चाहता था, लेकिन पिताजी ने इजाजत नहीं दी। पढ़ाई पूरी करने के बाद आर्थिक दबाव पड़ने लगा तो मैंने एक फार्मा कंपनी में नौकरी कर ली। हालांकि मैं देश में हो रहे शोधों से खुश नहीं था, फिर भी मेरी रुचि शोध में नहीं थी। नौकरी के दौरान ही अमेरिका में पढ़ाई के लिए एक छात्रवृत्ति मिली। यदि मुझे वह छात्रवृत्ति नहीं मिली होती तो मैं आगे की पढ़ाई के लिए जाता ही नहीं। पत्नी सुचित्रा और अपनी मां के कारण मैंने देश वापस आने का फैसला लिया। मां ने कहा, बेटा, नौ इंच का तो पेट है, कब तक और कितना पैसा कमाओगे। उससे ज्यादा तुम नहीं खा सकते। वापस आ जाओ और जो करना चाहते हो, करो। इसके बाद 1996 में मुझे वापस आना पड़ा। आज उनकी कंपनी देश में मॉलीक्यूलर रिसर्च के क्षेत्र में अग्रणी है।
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