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मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता ज्यादा दिन सत्ता से बाहर रहने पर कैसे बौरा जाते हैं, उसकी मिसाल आज बंगाल में देखी जा सकती है। पार्टी के पुराने कार्यकर्ता भी अब संगठन से दूरी बनाने लगे हैं। उन्हें पार्टी में बिखराव के साथ ही दो-फाड़ होने के संकेत दिखने लगे हैं
असीम कुमार मित्र
बंगाल में 'मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का अवसान' हो गया है—यह कहना शायद पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ताओं को पहले अखरता रहा हो, परन्तु आज वह संभावना भी न के बराबर हो गई है। कारण यह है कि विधानसभा चुनाव में प. बंगाल के मानचित्र से लगभग साफ हो जाने के बाद मार्क्सवादियों ने सोचा था कि कांग्रेस के साथ एमसीडी चुनाव में गठबंधन करने से कम से कम राज्य की राजनीति में उनको टिकने लायक जमीन मिल जाएगी। परंतु वैसा नहीं हुआ।
उनका पुराना नारा था—लड़ाई करते रहेंगे, करते रहेंगे। परन्तु उन्होंने राजनीतिक लड़ाई की जो पद्धति अपनायी थी, आम जनता ने उसे बिलकुल नकार दिया। इसीलिए उनके द्वारा शुरू किया गया एक भी आंदोलन आज तक सफल नहीं हुआ। चाहे वह संपूर्ण बंगाल बंद का मुद्दा हो, किसी कंपनी विशेष का या शिक्षा क्षेत्र का कोई मामला। एमसीडी चुनाव को सामने रखकर केन्द्रीय माकपा नेतृत्व ने सोचा था कि अगर कांग्रेस साथ रहेगी तो तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को एक फुंकार से रास्ते से हटा देंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उलटे, दोनों पाटियों ने एक-दूसरे के साथ विश्वासघात का रास्ता अपनाया। हुआ यूं कि दोनों दल जिस नीति के सहारे एक-दूसरे को खत्म करना चाहते थे, उस नीति ने दोनों को ही बर्बाद कर दिया और ध्वंस के कगार पर ला खड़ा किया है। माकपा के लिए आज परिस्थिति ऐसी बनी हुई है कि एक जमाने में उसके लिए 'जान देने वाले' कार्यकर्ता भी आज दूर खड़े रहना पसंद करते हैं। क्योंकि उनके साथ गाली-गलौज होती है, इसके अलावा कहीं-कहीं उन पर मार भी पड़ रही है। यही कारण है कि एक जमाने में रसूख रखने वाले उसके शूरवीर नेता भी आज घर के कोने में चुप्पी साधे बैठे रहना ही ज्यादा पसंद करते हैं।
हाल ही में उनकी दुनिया में एक ऐसे इंसान का दखल हुआ है जिसे वे अपना 'राजनीतिक तारणहार' समझ रहे हैं। इसका नाम है कन्हैया कुमार। लेकिन उसने कोलकाता के महाजाति सदन में खड़े होकर भारतीय सेना का अपमान करते हुए जैसे ही यह कहा कि ''हमारी भारतीय सेना में वही भर्ती होते हैं जिनमें 9वीं और 10वीं के बाद आगे पढ़ाई करने की योग्यता नहीं होती। वही लोग सेना में जाकर जवान की नौकरी करते हैं'…तो ये शब्द सुनते ही चारों ओर से कन्हैया कुमार पर सड़े अंडे फेंके जाने लगे। श्रोताओं के बीच से ये सड़े अंडे फेंके जाते देखकर कन्हैया कुमार तथा पार्टी के लोग घबरा गए। फिर थोड़ा संभलकर चिल्लाकर बोलने लगे-इस कार्यक्रम में चोरी-छिपे जरूर भाजपा के लोग आ गए है। उनको तुरंत यहां से निकालने की व्यवस्था की जाए। इसके बाद सभा अचानक खत्म हो गयी।
पिछले कुछ अरसे से इस तरह की बहुत-सी घटनाएं घटती रही हैं। भारतीय राजनीति में कम्युनिस्टों की घुसपैठ तथा उसके विस्तार के कारण जो जहर यहां फैला है, उसके दुष्प्रभाव से संपूर्ण भारतीय राजनीति प्रभावित हुई है। 1989 में सारे संसार से कम्युनिस्टों का सफाया हो गया था, वे बहुत सारे गुटों में बंट गए थे। आज प. बंगाल में वही हालत कम्युनिस्टों की होने जा रही है।
परन्तु इससे राज्य की राजनीति में एक स्थिरता आएगी, ऐसा नहीं लगता, क्योंकि वाम राजनीति का जहर समाज के सभी वगोंर् में इस हद तक फैला है कि कहीं भी शांति दिखाई नहीं देती। माकपा ने अपनी टूटन के इस दौर में भी अपने कार्यकर्ताओं को सभी राजनीतिक दलों में दाखिल करा दिया है-और ऐसा सिर्फ कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस में ही नहीं, सभी में हुआ है। कई बार ऐसी घुसपैठ स्वाभाविक भी होती है, परन्तु इसी के साथ इन लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से शिक्षा, प्रशासन, नीति निर्माता विभागों, प्रेस आदि सभी क्षेत्रों में घुसपैठ की है। राज्य सरकार में घुसपैठ किए कम्युनिस्ट अपप्रचार तथा अफवाहों का सहारा लेकर जहां केन्द्रीय सरकार को बदनाम कर रहे हैं, वहीं राज्य सरकार के कार्यों में भी दखलंदाजी कर रहे हैं। वामपंथी दलों की समाप्ति से इनके राष्ट्रविरोधी कार्यकलाप बंद हो जाएंगे, ऐसी बात नहीं है। इन लोगों ने 'वामपंथी बुद्धिजीवी' नामक जिस गुट को जन्म किया है, उसके द्वारा आने वाले दिनों में ये लोग देश को काफी नुकसान पहुंचाएंगे, जिसकी शुरुआत हो चुकी है। हाल ही भारत सेना द्वारा पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादियों के खिलाफ जो सर्जिकल स्ट्राइक की गई थी, उसको लेकर क्या कुछ नहीं कहा गया।
दरअसल, 2014 के विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद से प. बंगाल में मार्क्सवादियों के अंदर आपसी झगड़े इतने बढ़ गए हैं कि उन्हें सारे भारत का एक सम्मेलन आयोजित करना पड़ रहा है जो कोलकाता में होने जा रहा है। साधारणत: पार्टी के अन्दर जब एक-दूसरे पर दोषारोपण का सिलसिला बढ़ जाता है तो उसे सुलझाने के लिए ऐसा सम्मेलन बुलाया जाता है, जहां आरोपों-प्रत्यारोपों पर खुलकर चर्चा होती है, फिर एक सिद्धांत तय किया जाता है। खबर तो यह है कि माकपा अभी से ही गुटों में बंट गयी है। ऊपर से दिखने वाले प्रकाश कारत गुट तथा सीताराम येचुरी गुट को छोड़कर और भी कई गुट यहां काम कर रहे हैं। अत: विशेषज्ञों का मानना है कि सम्मेलन के बाद दल के अंदर दो फाड़ तो होगा ही। इस तरह कई गुटों में बंटकर माकपा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
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