|
मार्क्सवादी नेता प्रकाश कारत ने इधर एक लेख लिखा है-'अपने दुश्मन को जानो'। इस लेख में कारत ने मोदी सरकार को तानाशाह, अंध-राष्ट्रवादी, हिन्दुत्ववादी तो कहा, किन्तु फासीवाद नहीं। उन के अनुसार, भारत में न तो फासिज्म है, न इस के आने का कोई संकेत है। तब से इस पर मार्क्सवादियों में विवाद हो रहा है। कारत की निंदा करते हुए कई मार्क्सवादी दावे कर रहे हैं कि भारत में फासीवाद-शासन है। ऐसा कहने वाले बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के जाने-माने प्रोफेसर भी हैं।
यह दृश्य हमारे देश में समाज ज्ञान और मानविकी अध्ययन की दुर्दशा का भी संकेत है। राजनीति-ग्रस्त होकर साहित्य, इतिहास और राजनीति की पूरी समझ वामपंथी आंदोलन का औजार भर बन गई है। नहीं तो भारत सरकार को फासीवाद कहा जाना और देश के बड़े-बड़े अखबारों में ऐसे लेेख छपना अकल्पनीय होता। यह कोई पहली बार, या केवल मोदी सरकार को फासीवाद कहने की बात नहीं है। सोलह वर्ष पहलेे वाजपेयी सरकार के बारे में भी यही कहा गया था। उस से पहले इंदिरा गांधी को भी फासीवाद कहा गया था। जय प्रकाश नारायण आंदोलन को भी कम्युनिस्टों ने फासीवाद कहा था। कुछ तो राजीव गांधी को भी फासीवाद कहते थे। यह सब कहने वालेे विभिन्न मार्क्सवादी ही थे। इनमें जेएनयू के इतिहास विभाग के अध्यक्ष पद पर सुशोभित प्रोफेसर भी थे। यदि यहां के सभी मार्क्सवादियों द्वारा फासीवाद विशेषण से नवाजे गए भारतीय नेताओं की सूची बनाएं, तो इस का एक ही अर्थ मिलेगा कि जो उन्हें नापसंद हो, जिन से वे घृणा करें, वह फासीवाद हुआ। हैरत तो यह है कि इस सपाट मूढ़ता के बावजूद भारतीय मीडिया में मार्क्सवादियों को विशिष्ट बौद्धिक माना जाता है!
इधर कई वामपंथी खुद को मोदी-विरोध के रूप में चमकाने के लिए वाजपेयी, आडवाणी के प्रति बड़ी सहानुभूति दिखाने लगे हैं। मगर याद रहे, इन्हीं लोगों ने वाजपेयी की उदारता को भी 'नकली' बताते हुए उन्हें 'छिपा' (क्लोजेट) फासीवाद बताया था। मार्क्सवादी प्रोफेसरों ने 19-20 वर्ष पहले दावा किया था कि यदि वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तो अल्पसंख्यकों का जीना दूभर हो जाएगा, विरोधी लेखकों को जेल में डाल दिया जाएगा, भारत बीस साल पीछे हो जाएगा, आदि।
इस झूठे प्रचार की असलियत देख लेने के बाद भी पुन: संभावित मोदी सरकार के लिए वही डरावना प्रचार किया गया। इस हद तक कि विभिन्न दलों के नेताओं ने सार्वजनिक मंच से अत्यंत हिंसक बयान दिए। अब 2 साल बीत चुके हैं। सरकार का सारा कामकाज सामने है, फिर भी वही प्रचार जारी है। सचाई को समझने के लिए यही काफी है कि किसी 'फासीवाद' शासन में हर ऐरा-गैरा शासन को खुलआम बुरा-भला बोलता फिरे! ऐसा फासीवाद तो निपट बेचारा है, जिसे जो चाहे निडर होकर अपना निशाना बनाता रहे।
वस्तुत: पूरा मामला भयंकर दुष्प्रचार का है। इस में गोयबल्स (हिटलर का प्रचार मंत्री) शैली का उपयोग होता है कि किसी साफ झूठी बात को भी इतना दुहराओ कि लोगों को लगे, कुछ तो सचाई होगी ही। मोदी के बारे में विगत 14 वषोंर् से ऐसे दुष्प्रचार का असर भी हुआ। सब से ज्यादा वामपंथियों पर ही, जिन्होंने अपने ही अंध-विश्वासी प्रचार के घटाटोप से अपना माथा ऐसा चकरा लिया है कि उन से किसी संवाद की गुंजाइश नहीं बचती।
मार्क्सवादी जिस किसी को फासीवाद कहते रहते हैं। वे इसी तकनीक से स्वयं को 'प्रगतिशील', गरीबों का हितैषी आदि भी दिखाने का स्वांग रचते हैं। हैरत की बात नहीं कि ठीक विश्वविद्यालयी युवाओं, उनसे निकले रेडिकल पत्रकारों के बीच उनके प्रयत्न सफल रहे हैं। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिन्हें सबसे ज्यादा सही जानकारी होनी चाहिए, वही झूठे प्रचार में आ जाते हैं। जब कि अनपढ़ या कम शिक्षित जनता ही अधिक संतुलित समझ रखती है! मोदी मामलेे में भी यही हुआ। आम लोगों ने उन्हें परिश्रमी, भ्रष्टाचार-विरोधी, न्यायप्रिय आदि माना, जबकि मार्क्सवादी बुद्धिजीवी उन्हें लगातार फासीवाद कहते चलेे जा रहे हैं। यह विरोधाभास क्या है?
सच पूछिए, तो फासिज्म इतने हाल का अनुभव है कि इसकी तार-तार जानकारी सुलभ है। प्रामाणिक विवरण, दस्तावेज, आंकड़े, तस्वीरें, फिल्में, संग्रहालय, असंख्य आपबीतियां, सैकड़ों विद्वत पुस्तकें, यहां तक कि न्यूरेनबर्ग जैसे मुकदमों की लंबी अदालती कार्रवाइयां तक इस विषय पर उपलब्ध हैं। उन पर सरसरी नजर डालते ही दिख जाएगा कि 'अभी भारत में फासीवाद शासन है', यह कहना वैसा ही है जैसे तालिबानी अफगानिस्तान को विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र कहना! यही नहीं, अधिक रुचि लेकर दुनिया की अन्य हालिया तानाशाहियों से तुलना करने पर यह भी दिखेगा कि अनेक बिन्दुओं पर फासिज्म और कम्युनिज्म, दोनों बिल्कुल भाई-भाई रहे हैं। जिस ने फासिज्म की नींव रखी, वह बेनितो मुसोलिनी खुद पहले कम्युनिस्ट ही था। फिर हिटलर के नाजीवाद में फासिज्म अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा। फिर भी, कई क्रूरताओं में हिटलरी फासीवाद स्तालिनी कम्युनिस्टों से बहुत पीछे थे और पीछे ही रहे। यह सब सरलता से जांचने की चीज है।
हिटलरी फासिज्म और स्तालिनी कम्युनिज्म दोनों भयंकर तानाशाहियां थीं। दोनों नरसंहारकारी प्रवृत्तियों से परिचालित थीं। दोनों का आधार अंध-विश्वासी अहंकारी विचारधाराएं थीं। कई बिन्दुओं में कम्युनिस्ट ही फासीवादों के बड़े भाई हैं। हिटलरी यातना-शिविरों में कुछ अमानवीय कारनामे तो स्तालिन के लेबर-कैंपों की सीधी नकल थे। यह सब प्रामाणिक तथ्य है।
सिद्धांतत: भी, हिटलर के 'नस्ली जन-संहार' और लेनिन-स्तालिन-माओ के 'वर्गीय जन-संहार' में प्रत्यक्ष समानता थी, कि 'कुछ समूहों को जीने का अधिकार नहीं है, चाहे उस के सदस्यों ने कोई अपराध किया हो या नहीं'। बच्चों, स्त्रियों समेत उन्हें खत्म किया गया, क्योंकि वे अमुक नस्ल या अमुक वर्ग के थे। रूसी कम्युनिज्म के संस्थापक लेनिन का वर्ग-सिद्धांत और व्यवहार यही था। रूसी किसानों की एक पूरी आबादी को 'कुलक' कहकर खत्म कर दिया गया। अबोध शिशुओं, बच्चों, स्त्रियों समेत। उन निरीह लोगों ने कभी किसी का कुछ बिगाड़ा हो, सो बात नहीं। लेेनिन की पार्टी ने स्पष्ट कहा कि वह पूरा का पूरा समुदाय 'शत्रु-वर्ग' के रूप में चिन्हित था, इसलिए उन्हें मार डाला गया। ठीक उसी प्रकार, हिटलर ने यहूदियों को 'गंदी नस्ल' कह कर उनका पूरी तरह साफाया करने का अभियान चलाया। यदि यह नर-संहार प्रवृत्ति की समानता नहीं थी, तो क्या था? फासीवाद शासन और कम्युनिस्ट शासन में कोई किसी से छोटा नहीं था। दोनों विचारधाराएं और शासन विराट पैमाने पर मानवता के अपराधी रहे। यह तो द्वितीय विश्व-युद्घ के अंत की सांयोगिक स्थिति थी, जिस से कम्युनिस्टों ने अपने को फासीवाद-विरोधी के रूप में खूब प्रचारित किया। उन्होंने इस भ्रामक धारणा से पूरा लाभ उठाया कि नाजी-हिटलरी संहार कोई अद्वितीय किस्म का था। इस से कम्युनिस्ट लोग अपने अपराधों की ओर से लोगों का ध्यान हटाने में सफल रहे। उन्होंने ही यह प्रचारित किया कि फासीवाद लोग सब से घृणित हैं। जबकि वास्तविक लेखे-जोखे से नजर आता है कि फासिज्म और कम्युनिज्म में न केवल भारी समानताएं थीं, बल्कि कुछ मामलों में कम्युनिस्ट शासन अधिक भयावह रहा।
पहली समानता, दोनों तानाशाही सत्ताएं थीं, जिस में सत्ता और सूचना का पूरा तंत्र इने-गिने लोगों के हाथ में केंद्रित होता था। लोकतांत्रिक संस्थाएं, स्वतंत्र प्रेस और न्यायपालिका दोनों को नामंजूर रहीं। दूसरा, दोनों ही आम 'सफाए' के हामी थे। यानी जनता के किसी न किसी हिस्से को जिंदा रहने देने लायक नहीं समझते थे। तीसरे, दोनों को ही भविष्य का अपना बना-बनाया नक्शा समाज पर बलपूर्वक लागू करना था। इस के लिए उन्हें किसी नैतिकता या कानून की परवाह नहीं थी। चौथे, दोनों युद्धखोर रहे। आस-पास के देशों पर हमला कर उन्हें कब्जे में लेना उनकी आदत थी। पांचवें, दोनों घनघोर और झूठे प्रचार का भरपूर उपयोग करते रहे। छठे, दोनों ही किसी न किसी को शैतान दुश्मन के रूप में पेश कर अपने अत्याचारों को छिपाते या उचित ठहराते रहे। इन तत्वों को तनिक हेर-फेर से किसी भी फासीवाद या कम्युनिस्ट सत्ता में देखा जासकता है। उत्तर कोरिया और चीन में आज भी इन विशेषताओं में कुछ या कई को पाया जा सकता है।
अब स्वयं देखें कि उक्त 6 विशेषताओं में कौन-सी वाजपेयी या मोदी सरकार के विचार या व्यवहार में दिखी या दिख रही है? यही 6 बातें फासीवादों की पहचान हैं। रोचक बात यह कि यही विशेषताएं अनेक जिहादी संगठनों और तालिबानी शासनों में दिख रही हैं। बहरहाल, उन विशेषताओं को हर तरह के संगठनों, शासनों के क्रिया-कलापों और साहित्य में भी स्वयं देख-परखकर समझा जा सकता है। वैसे भी, यदि कोई फासीवाद है तो उसे अपनी बातें छिपाने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि तानाशाही, हिंसक मानसिकता तो उस की पहचान ही है! इसीलिए तो विश्व-इतिहास में वे इतने बदनाम हुए।
सइ सचाई की परख के लिए स्वयं भारत के अंदर की एक तुलना भी हो सकती है। दो राज्यों की तुलना। गुजरात में मोदी-शासन को कथित रूप से 'फासीवाद शासन' कहा गया था। जबकि प. बंगाल में तीन दशक तक घोषित कम्युनिस्ट शासन था। मोदी शासन के क्रिया-कलापों पर तो सवार्ेच्च न्यायालय से लेकर मीडिया तक हजारों पन्ने काले किए जा चुके हैं। जिसे अब प्रमाणिक रूप से कोई स्वयं देख सकता है कि गुजरात में मोदी-राज में क्या हुआ और क्या नहीं हुआ था। लेकिन पश्चिम बंगाल में क्या हुआ, इस का आकलन किसने किया है? यहां उदाहरण के लिए केवल एक प्रसंग का उल्लेख किया जा रहा है। 5 वर्ष पहले बांगला मीडिया में 'कंकाल कांड' की चर्चा कई महीने गर्म रही थी। तब पूर्वी और पश्चिमी मिदनापुर जिलों में जमीन के नीचे थोक भाव से नर कंकाल मिले थे। प्रारंभिक जांच में ही पाया गया कि वह मार्क्सवादियों द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों की सामूहिक हत्याएं थीं। जून 2011 से खबरें आनी शुरू हुईं, जब मलिकडंगा गांव में लोगों को एक ढके गड्ढे में कई नर कंकाल मिले थे। फिर पश्चिमी मिदनापुर में 31 नर कंकाल इकट्ठे मिले। पूर्वी मिदनापुर में भी सामूहिक नर कंकाल गड़े मिले। एक प्राथमिक पाठशाला के सेप्टिक टैंक में भी लोगों को मार कर दबा दिया गया था। कंकाल कांड पर पूर्व मार्क्सवादी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के दो सहयोगी सुशांत घोष और लक्ष्मण सेठ सीधे संदिग्ध पाए गए। घोष कैबिनेट मंत्री थे और सेठ हाल्दिया के दबंग सांसद। नर कंकालों का एक जखीरा घोष के घर के पिछवाड़े ही निकला, जिनकी डीएनए जांच के बाद उस में तृणमूल कांग्रेस के एक समर्थक का कंकाल भी पाया गया। तब सुशांत घोष गिरफ्तार होकर जेल पहुंचे।
ये केवल वे उदाहरण हैं जो सामने आ गए। ममता बनर्जी के अनुसार पश्चिमी मिदनापुर में ही कम से कम 55 और नर कंकाल कहीं न कहीं दबे पड़े होंगे। ममता ने कोई अभियान चलाकर ऐसे मामले नहीं खोजे थे। वह तो अनायास निकले कंकाल थे, जिन में कुछ की शिनाख्त सामान्य पुलिस जांच में हो गई। जहां हत्या के सूत्र सीधे मार्क्सवादी नेताओं से जुड़े, वहां कार्रवाई हुई। उस पर मार्क्सवादियों की प्रतिक्रिया क्या थी? उन्होंने कहा कि वे सब पुराने मामले हैं! यानी, वे इनकार करने की स्थिति में नहीं थे। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा कि नर कंकालों की ''खुदाइ योजनाबद्ध तरीके से की जा रही है। यह एक फासीवाद संगठन द्वारा की जा रही बदले की राजनीति है।'' लीजिए, एक और फासीवाद-ममता बनर्जी! मगर किस चीज का बदला?
स्पष्टत: पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी राज वोट-बल पर उतना नहीं, जितना क्रूर हिंसा से चलता रहा। कांग्रेस नेता मानस भूनिया ने गृह मंत्रालय के आकंड़ों के हवाले से 1997 से लेकर 2004 के बीच पश्चिम बंगाल में 20,000 राजनीतिक हत्याएं होने की बात कही थी। जबकि पार्टी पर्यवेक्षक की हैसियत से कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने वहां 9,000 हत्याएं हुई बताई थीं। अब जरा इस की तुलना गुजरात में मोदी राज से करके देख लें। इसलिए भी, क्योंकि जहां गुजरात सरकार की 'गड़बडि़यों' के बारे में 12 वर्ष तक देश-विदेश का मीडिया, न्यायपालिका, विरोधी दल, एनजीओ आदि सभी लोग खोद-खोद कर 'सचाई' ढूंढते रहे! इसलिए, वहां जो मिला है वह सामने है। जबकि बंगाल के मार्क्सवादी राज को 'प्रगतिशील' और 'आदर्श' बताने वाले लेख, बयान और प्रचार ही होते रहे। वहां कभी किसी मानवाधिकार हनन की कोई चिंता किसी संस्था को हुई हो, इसका स्मरण राष्ट्रीय मानस को तो नहीं है।
इस प्रकार, अनायास, एक ही प्रसंग से मामूली तुलना भी बताती है कि बंगाल का मार्क्सवादी शासन किस हद तक असली फासीवादों के करीब था। और यह भी, कि गुजरात में मोदी राज को या अभी भारत सरकार को फासीवाद कहा जाना कितना बड़ा झूठ है। चूंकि, मोदी सरकार को मुख्यत: मार्क्सवादी ही 'फासीवाद' कह रहे हैं, इसलिए भयंकर झूठ बोलने और बार-बार दुहराने वाली विशेषता के आधार पर भी देखा जा सकता है कि मार्क्सवादी लोग फासीवाद तकनीक का ही प्रदर्शन कर रहे हैं।
वस्तुत: कम्युनिज्म और फासिज्म का इतिहास इतने हाल का है कि कोई भी दोनों का पूरा कच्चा चिट्ठा देख सकता है। उत्तरी कोरिया, चीन और क्यूबा अभी भी जिस हद तक कम्युनिस्ट हैं, उस सीमा तक आज भी वहां उपर्युक्त 6 विशेषताएं कमोबेश मौजूद हैं। वहां स्वतंत्र प्रेस, न्यायपालिका और दूसरे राजनीतिक दलों का कोई अस्तित्व नहीं है। चीनी सत्ता ने अपने निहत्थे छात्रों पर टैंक चलवा दिए, जो कुल दो दिन पहले तक उन्हीं के शब्दों में 'देशभक्त' थे! तिब्बत में सैकड़ों बौद्ध मठों का विध्वंस किया गया। वस्तुत: सत्ताधारी रूसी, चीनी कम्युनिस्टों ने करोड़ों निदार्ेष लोगों की हत्याएं करने की बात समय-समय पर स्वयं मानी है। फिर भी, उन्होंने किसी हत्यारे को सजा नहीं दी, ध्यान इस पर देना चाहिए!
अत: यह एक धूर्ततापूर्ण रणनीति रही है कि सारी दुनिया के कम्युनिस्ट केवल अमेरिका को शैतान बता-दिखा कर अपने अंधे अनुयायियों को सदैव तत्पर युद्ध-मुद्रा में रखते हैं। वही नीति अंदरूनी राजनीति में भी चलाई जाती है कि किसी न किसी को, दल या नेता को, भयंकर दानव के रूप में चित्रित कर सारी राजनीति चलाई जाए। इसलिए कभी इंदिरा, कभी राजीव, तो अब मोदी फासीवाद कहे जा रहे हैं। मार्क्सवादी राजनीति भारत में इसी तरह अंध-विरोध, घृणा और घोर दुष्प्रचार पर केंद्रित रही है। वस्तुत: गंभीर राजनीति-शास्त्र में फासिज्म और कम्युनिज्म, दोनों को 'सर्वाधिकारवाद' (टोटेलिटेरियनिज्म) के दो रूप बताया गया है। सत्ता पर एकाधिकार, नागरिक अधिकारों का खात्मा, बेहिसाब हत्याएं, प्रेस पर पूर्ण नियंत्रण और किसी न किसी के खिलाफ घोर दुष्प्रचार-यही फासिज्म था। इस के सिवा इसका कोई और मतलब नहीं। ये सभी तत्व कम्युनिस्ट मानसिकता व व्यवहार में भी रहे हैं। इन्हें मार्क्सवादी-माओवादी साहित्य में आज भी देखा जा सकता है। हालांकि सामान्य कम्युनिस्ट अनुयायी न तो लेनिन, स्तालिन या माओ का वास्तविक जीवन और कार्य जानते हैं, न फासिज्म और कम्युनिज्म की समानता को। ऐसा निरा अज्ञान ही आम तौर पर वामपंथी युवाओं की पहचान है। नरेंद्र मोदी को फासीवाद मानकर चीख-पुकार करते रहना उसी अज्ञान की मिसाल है।
यह हमारे दु:खद शैक्षिक परिदृश्य का सूचक है कि कथित उच्च-शिक्षित लोग ही इस के सूत्रधार हैं। यहां इतिहास, राजनीति, साहित्य के पाठ्यक्रमों के घोर राजनीतिकरण ने एक दुष्चक्र बना दिया है। जिस में ऐसी अनर्गल बातें कहने और गाली-गलौज को बौद्धिकता समझा जाता है। यह चार-पांच दशक पहले आरंभ हुआ। बड़ी अकादमियों, विश्वविद्यालयी पदों से ज्ञान के बदले कम्युनिस्ट प्रचार को प्रसारित किया जाने लगा। इतिहास, साहित्य आदि की 'प्रगतिशील' व्याख्या के नाम पर कम्युनिस्ट मतवाद को तस्करी से हर सामाजिक, साहित्यिक विषय में घुसा डाला गया। इस तरह, दो पीढि़यों से एक रटा-रटाया वामपंथी पार्टी-साहित्य ही कथित समाज विज्ञान और साहित्य का अध्ययन बन कर रह गया है। तभी यह अंध-विश्वासी मानसिकता बनी कि जिस किसी को फासीवाद कहकर उस की लानत-मलानत की जाए। शिक्षा में इस घातक दुश्चक्र को तोड़ने की सख्त जरूरत है। -शंकर शरण
फासीवाद और कम्युनिस्ट शासन की समानताएं
-दोनों तानाशाही सत्ताएं थीं, जिस में सत्ता और सूचना का पूरा तंत्र इने-गिने लोगों के हाथ में केंद्रित होता था। लोकतांत्रिक संस्थाएं, स्वतंत्र प्रेस और न्यायपालिका दोनों को नामंजूर रहीं।
-दोनों ही आम 'सफाए' के हामी थे। यानी जनता के किसी न किसी हिस्से को जिंदा रहने देने लायक नहीं समझते थे।
-दोनों को ही भविष्य का अपना बना-बनाया नक्शा समाज पर बलपूर्वक लागू करना था। इस के लिए उन्हें किसी नैतिकता या कानून की परवाह नहीं थी।
-दोनों युद्धखोर रहे। आस-पास के देशों पर हमला कर उन्हें कब्जे में लेना उन की आदत थी।
-दोनों घनघोर और झूठे प्रचार का भरपूर उपयोग करते रहे।
-दोनों ही किसी न किसी को शैतान दुश्मन के रूप में पेश कर अपने अत्याचारों को छिपाते या उचित ठहराते रहे।
टिप्पणियाँ