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जिनके आगे झुकीं विरोधी ताकतें
देवी दुर्गा वस्तुत: शक्ति की अपरिमितता की द्योतक हैं। वे दुर्गति नाशिनी हैं। दुर्गा शब्द का यही निहितार्थ है। पाशविक प्रवृत्तियों के आतंक से जब-जब संसार में हाहाकार मचता है तो आदि शक्ति मां जगदम्बा उनके विनाश के लिए महाकाली का रूप धारण कर लेती हैं। अपने भक्तों को सदैव अभय देने वाली मां दुर्गा की आराधना के लिए नवरात्र को मुहुर्त विशेष की मान्यता प्राप्त है। इस विशिष्ट अवसर पर जानें प्रस्तुत है मां शक्ति के कुछ चुनिंदा चमत्कारी मंदिरों से जुड़ी कुछ घटनाएं एवं चमत्कार जिसके आगे विरोधी और आक्रांता शक्तियां भी नतमस्तक हुए बिना न रह सकीं प्रस्तुति : पूनम नेगी
तनोट माता
राजस्थान के जैसलमेर जिले से करीब 130 किमी. दूर भारत-पाकिस्तान सीमा के नजदीक स्थित तनोट माता का मंदिर एक चमत्कारी मंदिर माना जाता है। लगभग 1,200 साल पुराने इस मंदिर में स्थापित देवी मां को सीमा रक्षक देवी व सैनिकों की माता के नाम से भी पुकारा जाता है। तनोट माता आवड माता के नाम से भी विख्यात हैं। पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में स्थित शक्तिपीठ की अधिष्ठात्री मां हिंगलाज भवानी का ही एक रूप मानी जाती हैं। सीमा पर तैनात भारतीय जवानों की इस मंदिर के प्रति अटूट आस्था है। इनकी मानें तो उन्हें देश की सीमा की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा देने का हौसला तनोट माता के आशीर्वाद से ही मिलता है।
गौरतलब है कि 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना की तरफ से मंदिर परिसर में तकरीबन तीन हजार से ज्यादा बम गिराये गए पर मंदिर को एक खरोंच तक नहीं लगा सके। हैरानी की बात यह भी कि यहां गिराये गये 450 बम तो फटे तक नहीं। ये बम आज भी मंदिर परिसर में बने संग्रहालय में यहां आने वाले भक्तों के दर्शनार्थ रखे हुए हैं। कहते हैं कि इस युद्ध के बाद पाक सेना के एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने भी इस मंदिर की चमत्कारी शक्ति का लोहा मानते हुए यहां सिर नवाया था। इतना ही नहीं, 4 दिसंबर, 1971 की रात पंजाब रेजिमेंट और सीमा सुरक्षा बल की एक कंपनी ने पाकिस्तान के हमले के दौरान उसकी पूरी टैंक रेजिमेंट को धूल चटाकर तनोट माता मंदिर के पास के एक स्थान लोंगेवाला को पाकिस्तानी टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था। लोंगेवाला विजय के बाद भारतीय सेना ने मंदिर परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण कराया था जहां तब से हर वर्ष 16 दिसंबर को शहीदों की याद में उत्सव मनाया जाता है। यहां यह बताते चलें कि भारत-पाक युद्ध के बाद से इस मंदिर की देखरेख का जिम्मा सीमा सुरक्षा बल के पास है और उसने यहां अपनी एक चौकी स्थापित कर रखी है। नवरात्र में मंदिर परिसर में विशाल मेले का आयोजन होता है। सीमा पर तैनात सैनिकों का कहना है कि तनोट माता बहुत शक्तिशाली हैं हमारी हर मनोकामना पूर्ण करती हैं। हमारे सिर पर हमेशा माता की कृपा बनी रहती है, इसलिए दुश्मन हमारा बाल तक बांका नहीं कर सकता।
तरकुलहा देवी
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले से 20 किमी. दूर चौरीचौरा के समीप स्थित तरकुलहा देवी मंदिर भी अपनी चमत्कारी सामर्थ्य के लिए विख्यात है और इसने गुलामी के दौरान अंग्रेज अधिकारियों को अपनी शक्ति का अहसास कराया था। मंदिर से जुड़ा एक रोचक वाकया 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान का है। कहा जाता है कि डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह जो देश की क्रांतिकारी गतिविधियों में काफी सक्रिय रहते थे, तरकुलहा देवी के परम भक्त थे। वे गुर्रा नदी के निकट के वनप्रांत में तरकुल (ताड़) वृक्ष के नीचे पिंडी रूप में स्थापित तरकुलहा माता की उपासना किया करते थे। वे उनकी ईष्ट देवी थीं। बंधू बाबू में राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी। अंग्रेजों के जुल्म की कहानियां सुनकर उनका खून खौल उठता था। वे गुरिल्ला युद्ध में माहिर थे। जब कभी भी कोई अंग्रेज उस जंगल से गुजरता तो बंधू सिंह उसको मार कर उसका सिर काटकर देवी मां के चरणों में समर्पित कर देते। शुरू में तो अंग्रेज यही समझते रहे कि उनके साथी जंगली जानवरों का शिकार हो गये लेकिन कुछ ही समय बाद बात खुल गयी कि ये कारनामे बंधू सिंह के हैं तो वे अंग्रेज अधिकारियों की अंाख की किरकिरी बन गये। इलाके के ही एक व्यवसायी ने कुछ पैसों के लालच में उनकी मुखबिरी की और अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया जहां उन्हें फांसी की सजा सुनाई गयी। बताया जाता है कि अंग्रेजों ने सार्वजनिक रूप से उन्हें छह बार फांसी पर चढ़ाने की कोशिश की लेकिन वे एक बार भी सफल नहीं हुए। इससे हैरान परेशान अंग्रेज उस दैवी शक्ति के समक्ष नतमस्तक हुए जिनके भक्त को वे तमाम कोशिशों के बाद भी मृत्युदंड नहीं दे सके। किंवदंती है कि जब अंग्रेज अधिकारियों ने हार मान ली तो बंधू सिंह ने देवी मां का ध्यान कर उन्हें मानवी काया से मुक्त करने की प्रार्थना की। देवी मां ने अपने भक्त की प्रार्थना सुन ली। इसके बाद उनके संकेत पर अंग्रेज सैनिकों ने सिर झुका कर उन्हें फांसी दे दी। अमर शहीद बंधू सिंह के सम्मान में यहां एक स्मारक भी बना है। तरकुलहा देवी मंदिर में मन्नत पूरी होने पर घंटी बांधने की परम्परा भी है।
ज्वाला देवी
हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलोमीटर दूर स्थित है विश्व प्रसिद्ध मां ज्वालामुखी सिद्ध पीठ। मान्यता है कि यहां देवी सती की जीभ गिरी थी। कहा जाता है कि मां ज्वाला ने अपनी शक्ति का चमत्कार दिखाकर मुगल बादशाह अकबर को सिर झुकाने पर विवश कर दिया था। जोता वाली देवी और नगरकोट के नाम से विख्यात इस मंदिर को पांडवों ने खोजा था। खास बात यह है कि इस मंदिर में किसी मूर्ति की नहीं बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। इस स्थान पर पृथ्वी के गर्भ से नौ अलग-अलग जगह से ज्वालाएं निकलती हैं जिसके ऊपर यह मंदिर बना है। इन नौ ज्योतियों को मां महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका और अंजीदेवी का प्रतीक माना जाता है।
मुगल बादशाह अकबर के यहां सिर नवाने की घटना माता के परम भक्त ध्यानू भगत से जुड़ी है। तब भारत में अकबर का शासन था। हिमाचल के नादौन ग्राम निवासी ध्यानू भगत अपने साथियों के साथ मां ज्वाला के दर्शन को जा रहे थे। इतना बड़ा दल देखकर अकबर के सिपाहियों ने उन्हें पकड़कर दरबार में पेश किया। अकबर ने दल के मुखिया ध्यानू भगत से पूछा- ''तुम इतने आदमियों के साथ कहां जा रहे थे।'' ध्यानू ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया- ''ज्वालामाई के दर्शन करने।'' तब अकबर ने पूछा, ''यह ज्वालामाई कौन हैं?'' ध्यानू ने उत्तर दिया, ''ज्वालामाई संसार का पालन करने वाली माता। उनका प्रताप ऐसा है कि बिना तेल-बत्ती के उनकी ज्योति सदैव जलती रहती है।'' यह सुनकर अकबर अचरज से भर गया। उसने ध्यानू की बात की असलियत जानने की मंशा से कहा- ''ठीक है, देखते हैं। हम तुम्हारे घोड़े की गर्दन अलग कर देते हैं, अगर तुम्हारी देवी वाकई ताकतवर होंगी तो वे उसका कटा सिर जोड़ कर उसे फिर जिंदा कर देंगी।'' ध्यानू भगत ने माता की जय बोलकर बादशाह से विदा ली और अपने साथियों सहित माता के दरबार में रातभर जागरण किया। ध्यानू ने मां से प्रार्थना की कि बादशाह मेरी परीक्षा ले रहा है, मेरी लाज अब आपके हाथ में है। कहते हैं कि मां की कृपा से ध्यानू का घोड़ा फिर से जिंदा हो गया। यह चमत्कार देख बादशाह अकबर हैरान रह गया। वह अपनी सेना के साथ मां ज्वालादेवी के मंदिर पहुंचा और अपनी आंखों से वह ज्वाला देखी। फिर भी उसके मन में शंका रही और उसने अपने सैनिकों से पूरे मंदिर परिसर में पानी भरवा दिया लेकिन तब भी माता की ज्योति नहीं बुझी। यह देखकर अकबर का अहंकार चूर-चूर हो गया। उसे मां की ताकत का यकीन हो गया। उसने माता के दरबार में सिर नवाकर अपनी भ्ाूल के लिए क्षमा मांगी और सवा मन (पचास किलो) सोने का छत्र चढ़ाया लेकिन माता ने उस छत्र को स्वीकार नहीं किया और वह छत्र गिर कर किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया। बादशाह अकबर के चढ़ाए उस छत्र को ज्वाला देवी के मंदिर में आज भी देखा जा सकता है। यूं तो वैज्ञानिक दृष्टि से पृथ्वी के गर्भ से ज्वाला निकलना कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण पूरी दुनिया में कहीं ज्वाला व कहीं गरम पानी निकलता रहता है। लेकिन, इस सिद्धपीठ की ज्वाला चमत्कारिक है क्योंकि अंग्रेजी शासन में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन के अन्दर से निकलती इस ऊर्जा का इस्तेमाल कर सके लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस ऊर्जा को नहीं ढूंढ पाए। वहीं अकबर भी लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा नहीं सके। यह दोनों बातें यहां किसी अदृश्य शक्ति की महत्ता को ही सिद्ध करती हैं।
जीण माता
हमारे देश में देवी-देवताओं के साथ असंख्य कथाएं जुड़ी हैं कहा जाता है कि कट्टर मुगल बादशाह औरंगजेब को जीण माता मंदिर में घुटने टेकने पड़े थे। लोक मान्यता के अनुसार औरंगजेब ने राजस्थान के सीकर जिले में स्थित जीण माता के मंदिर को तोड़ने के लिए अपने सैनिकों के साथ धावा बोला। यह बात जब स्थानीय लोगों को पता चली तो दुखी श्रद्धालु जीण माता से प्रार्थना करने लगे। भक्तों की पुकार पर माता ने चमत्कार दिखाया और मधुमक्खियों के एक झुंड ने मंदिर परिसर में मौजूद औरंगजेब और मुगल सैनिकों पर धावा बोल दिया। मधुमक्खियों के काटने से बेहाल पूरी सेना घोड़े और मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। कहते हैं कि इस हमले में बादशाह की हालत बहुत गंभीर हो गयी। तब अपने मंत्रियों के कहने पर उसने अपनी गलती मानकर माफी मांगी और माता की अखंड ज्योति जलाने के लिए हर महीने सवा मन तेल देने का वचन दिया। इसके बाद औरंगजेब की तबियत में सुधार होने लगा। कहते हैं कि वह कई साल तक दिल्ली से तेल भेजता रहा। औरंगजेब के बाद भी यह परम्परा जारी रही।
कालान्तर में जयपुर के महाराजा ने इस तेल को मासिक के बजाय वर्ष में दो बार नवरात्र के समय भिजवाना आरम्भ कर दिया। बाद में तेल के स्थान पर पैसे भिजवाए जाने लगे। जीण माता का वास्तविक नाम जयंती है जिन्हें देवी दुर्गा का अवतार माना जाता है। राजस्थान के सीकर जिले में घने जंगल से घिरा यह मंदिर तीन छोटी पहाड़ों के संगम पर स्थित है। इस मंदिर में माता की सुंदर प्रतिमा के साथ शिवलिंग और नंदी भी विराजमान हैं। कहा जाता है कि यह मंदिर तकरीबन एक हजार साल पुराना है लेकिन कुछ इतिहासकार इसका निर्माण काल आठवीं सदी में मानते हैं। नवरात्र पर इस मंदिर में श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ती है।
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