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महत्वपूर्ण मुद्दों से जुड़े तथ्यों को जनता के सामने लाना मीडिया का दायित्व है
री में पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले पर पूरे देश में गुस्सा दिखा, लेकिन मीडिया के एक खास तबके के लिए यह सुनहरा मौका था। ऐसा मौका जब वे सरकार और खास तौर पर प्रधानमंत्री से अपना हिसाब बराबर कर सकें। भले ही इसके लिए झूठ बोलना पड़े या देश के विरोध में बातें करनी पड़ें। ऐसी हर बात जिसका फायदा दुश्मन को हो और आम लोगों तथा सेनाओं के मनोबल पर बुरा असर पड़ता हो। यह गिरोह हर आतंकवादी हमले के वक्त सक्रिय होता है। अच्छी बात यह है कि लोग पत्रकारिता के नाम पर चल रहे इस 'स्लीपर सेल' को अच्छी तरह पहचानने लगे हैं।
उरी हमले के चंद घंटों के अंदर देश के कुछ बड़े पत्रकारों ने सोशल मीडिया और अपने कार्यक्रमों के जरिए यह जताने की कोशिश की थी कि पाकिस्तान पर 'हमला' किया जा सकता है। इस गिरोह के प्रोपेगेंडा का यह पहला चरण होता है। कोशिश होती है पहले से ही भड़के गुस्से को और भड़काने की।
सरकार जब सेना और रणनीतिकारों से विचार-विमर्श के बाद कुछ कदम उठाने की तरफ बढ़ती है तो यही 'मायावी' गिरोह पलटी मार चुका होता है। प्रधानमंत्री ने कहा कि 'उरी के दोषियों को सजा मिलेगी', तो इसका मतलब निकाला गया कि प्रधानमंत्री युद्ध का इशारा कर रहे हैं। इसके साथ ही शुरू हो जाता है दूसरा चरण, जब यह गिरोह 'शांति का मसीहा' बन जाता है। ऐसा जताने की कोशिश होती है कि भारत में सभी लोग पूर्ण युद्ध के लिए उतावले हुए जा रहे हैं और इस गिरोह के पत्रकार लोगों को शांत
करवा रहे हैं। एक महिला पत्रकार ने तो भारतीयों की तरफ से पाकिस्तान से माफी तक मांग डाली।
एक तरफ यह शातिर खेल चल रहा था, तो दूसरी तरफ कई चैनल टीआरपी बटोरने के लिए इस गंभीर मुद्दे पर बेहद छिछली बहसें कराने में जुटे रहे। सरकार ने जब सिंधु के पानी पर अधिकार के एकतरफा समझौते और पाकिस्तान को वरीयता वाले देश का दर्जा दिए जाने पर विचार शुरू किया तो मीडिया के मायावी गिरोह का नया रूप सामने आया। एनडीटीवी चैनल ने तो सिंधु संधि के पक्ष में बाकायदा अभियान चलाया। यह जताने की कोशिश हुई कि भारत 'पानी को हथियार की तरह' इस्तेमाल कर रहा है।
संधि के पक्ष में ऐसे-ऐसे कुतर्क दिए गए कि लगा कि इस चैनल को भारत की जरूरतों से ज्यादा पाकिस्तान के लोगों की चिंता है।
सिंधु संधि पर भारत सरकार के कड़े फैसले के बाद के परिदृश्य को मीडिया का यह हिस्सा अपनी जीत बता रहा है। ऐसा शायद जनता में भ्रम पैदा करने के लिए किया जा रहा है कि देखो, सरकार सिंधु के मुद्दे पर पीछे हट गई। जबकि समझने वाले समझ रहे हैं कि ऐसा नहीं है। क्या यह मीडिया की जिम्मेदारी नहीं थी कि वह संधि पर सरकार के फैसलों का मतलब सही परिप्रेक्ष्य में लोगों को समझाए?
उरी हमले पर दो मुख्यमंत्रियों ने ऐसे बयान दिए जिनसे पाकिस्तान को फायदा होता, लेकिन मीडिया ने अनदेखी कर दी। ये मुख्यमंत्री थे त्रिपुरा के माणिक सरकार और दिल्ली के अरविंद केजरीवाल।
क्या भारत के संविधान की शपथ लेने वाले किसी नेता को यह छूट दी जा सकती है कि वह आतंकी हमले जैसे नाजुक वक्त में देश के विरोध में खड़ा हो? अच्छा होता अगर मीडिया इन दोनों मुख्यमंत्रियों की राजनीति के इस पहलू से भी देश को अवगत कराता। उधर उत्तर-प्रदेश में मुलायम परिवार की राजनीतिक नूराकुश्ती को भी मीडिया में खूब जगह मिली। कुल मिलाकर चाचा और भतीजे के झगड़े में 'बाहरी व्यक्ति' खबरों में आ गया। जिन पत्रकारों की विश्वसनीयता संदिग्ध है, उनके बीच यह बाहरी व्यक्ति काफी लोकप्रिय है।
शायद यही कारण है कि हर मुद्दे पर उनकी लंबी-लंबी राय चैनलों पर चलने लगी है। इस सबके बीच मीडिया ने कैराना में हिंदुओं के पलायन पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रपट की बात दबा दी। इस मामले में क्या उन चैनलों और अखबारों की भूमिका की जांच नहीं होनी चाहिए, जिन्होंने पीडि़त हिंदू परिवारों की मदद की बजाय उनकी पीड़ा को ही खारिज कर दिया था?
दिल्ली में एक लड़की को बीच सड़क पर चाकू घोंपकर मार डाला गया। इसकी सीसीटीवी तस्वीरें पूरे दिन चैनलों ने जमकर दिखाईं। कुछ ही चैनलों ने संयम बरता। बाकी ने इस वीभत्स घटना को मनोरंजक समाचार में बदल दिया।
सवाल है कि यह वीडियो दिखाना क्यों जरूरी है? हत्यारे के लिए 'आशिक' और 'मनचला' जैसे शब्द इस्तेमाल किए गए। फिल्मों की वजह से ये सारे विशेषण कुछ विकृत मानसिकता वालों को अच्छे भी लग सकते हैं। जब चैनलों पर 24 घंटे से भी ज्यादा वक्त तक ये तस्वीर चल गईं तो उसके बाद नियामक संस्था एनबीए की नींद टूटी और उसने एडवाइजरी जारी करके कर्तव्य की इतिश्री कर ली। इस घटना ने मीडिया की आत्म-नियामक संस्थाओं की उपयोगिता पर एक बार फिर सवाल खड़ा कर दिया है।
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