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पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने जहां एक शानदार विरासत छोड़ी है तो वहीं कई मसलों पर अनावश्यक विवाद भी छोड़े हैं। नए गवर्नर उर्जित पटेल को विवाद से दूर छोड़े गए कामों को निष्कर्ष तक पहुंचाने की चुनौती
आलोक पुराणिक
ऊर्जित पटेल ने रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद संभाल लिया है, वैसे वे रिजर्व बैंक के कामकाज से अपरिचित नहीं हैं। रिजर्व बैंक में वे बतौर डिप्टी-गवर्नर काम कर ही रहे थे। तो यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि उनका प्रमोशन ही हो गया है बतौर रिजर्व बैंक गवर्नर। रिजर्व बैंक का गवर्नर भारतीय अर्थव्यवस्था के चुनिंदा बहुत ही महत्वपूर्ण लोगों में से एक होता है। उसके कदमों से ही नही, उसके इशारों तक से अर्थव्यवस्था की सांस ऊपर- नीचे होती है। बाजार ऊ पर-नीचे डोल जाता है।
विरासत में क्या मिला
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन बड़ी धूमधाम से विदा हुए, वैसी धूमधाम उन्हांेने अपने पूरे कार्यकाल में बनाये रखी। उनकी छवि राकस्टार जैसी बनी या बनाई गई। रघुराम राजन लगातार व्याख्यानों, बयानों के लिए चर्चित रहे। वे प्रोफेसर के तौर पर अमेरिका के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में काम कर चुके हैं। तर्क-वितर्क की प्रोफेसरी परंपराओं के अनुरूप उनका रिजर्व बैंक का कार्यकाल भी रहा। वहीं ऊर्जित पटेल इसके ठीक उलट ज्यादा व्याख्यानबाजी या बयानों के लिए अब तक नहीं जाने जाते। राजन भी अनुभवी गवर्नर थे। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से लेकर तमाम दुनिया के घटनाक्रम को उन्होंने ना सिर्फ देखा है, बल्कि उन पर विस्तार से लिखा भी है। पटेल भी उन्हीं की परंपरा के गवर्नर हैं, बहुत पढ़े लिखे। रिजर्व बैंक के नये गवर्नर के सामने मोटे तौर पर कुछ ये महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं। एक, बैंकों और खास तौर पर सरकारी बैंकों में डूबते कर्ज का मसला। दूसरा, महंगाई के मसले पर रिजर्व बैंक भूमिका का उचित निर्वहन। तीसरा, ब्याज दरों और महंगाई के बीच एक संतुलन की स्थापना का काम। चार, बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र के तेजी से बदलते चेहरे का नियमन। पांच, वित्तीय साक्षरता में रिजर्व बैंक की भूमिका का निर्वहन। छह, बैंकिंग क्षेत्र में नये विकासक्रम को स्वस्थ तरीके से संयोजित करना। राजन ने बहुत शानदार विरासत छोड़ी है कई मामलों में, और कई मामलों में अनावश्यक विवाद भी छोड़े हैं। बैंकों के डूबते कजोंर् पर राजन का रुख कड़ा रहा। उनके नेतृत्व में रिजर्व बैंक ने तमाम बैंकों को उनकी बैलेंस शीट की सफाई यानी खराब कजोंर् के कचरे को साफ करने के निर्देश बैंकों को दिये। राजन के छोड़े गये तमाम कामों को आगे बढ़ाना, विवादरहित तरीके से, ऊ र्जित पटेल की जिम्मेदारी है। उन्होंने भी खासी दुनिया देखी है, खास तौर पर दुनिया भर की बैंकिंग व्यवस्था का बखूबी अंदाज है उन्हें। राजन की तरह पटेल का भी जुड़ाव अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से रहा है।
चुनौतियां और मौके भरपूर हैं
पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने जहां एक शानदार विरासत छोड़ी है तो वहीं कई मसलों पर अनावश्यक विवाद भी छोड़े हैं। नए गवर्नर उर्जित पटेल को विवाद से दूर छोड़े गए कामों को निष्कर्ष तक पहुंचाने की चुनौती
डूबत कर्ज सरकारी बैंकों के लिए अस्तित्व का मसला रहे हैं। विजय माल्या जैसे भगोड़े प्रमोटर बैंकों से कर्ज लेकर विदेश भागकर मौज में हैं। जनता का पैसा सरकारी बैंकों की पूंजी की शक्ल में डूब गया। डूबत कजोंर् के लिए कड़े नियम बनाये गये हैं। पहले होता यह था कि मरीज मरने को है, फिर भी उसकी बीमारी की खबर छिपायी जाती थी। अब ऐसा नहीं है। कई सरकारी बैंकों ने खुलेआम अपने डूबत कजोंर् की घोषणा की और उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। बैंक ऑफ बड़ौदा जैसे बड़े सरकारी बैंक का शेयर इसके चलते बुरी तरह टूटा। कई छोटे-बड़े सरकारी बैंकों को डूबत कजोंर् ने अपनी चपेट में लिया। ऊ र्जित पटेल को डूबत कजोंर् पर बहुत कुछ करना है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि तमाम सरकारी बैंक डूबत कजार्ें को सबके सामने लाने में कोई हीलाहवाली ना करें। यह ऐसा मसला है कि जैसे किसी की कैंसर हो जाये और वह इसे इस डर से छिपाये कि उसकी 'इमेज' को खतरा पैदा हो जायेगा। इमेज से ज्यादा महत्वपूर्ण वास्तविक स्थिति होती है, जो हर हाल में पारदर्शी तरीके से सबके सामने आनी चाहिए। पटेल के लिए यह चुनौती इसलिए बड़ी हो जाती है कि भारतीय बैंकिंग जगत का बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा सरकारी हाथों में है। पारदर्शी व्यवस्था को लगातार बेहतर बनाये रखना उनकी चुनौतियों में से एक है। इस मामले में कोई कमी-बेशी हुई, तो पटेल की दूसरी सफलताओं पर भी ग्रहण लग जायेगा।
महंगाई के मसले पर रिजर्व बैंक की भूमिका
रिजर्व बैंक और महंगाई का बहुआयामी रिश्ता है। रिजर्व बैंक महंगाई को लगातार 'ट्रेक' करता है। उनके द्वारा बनायी समितियां महंगाई को लगातार ट्रेक करती रही हैं। पटेल खुद उस समिति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर चुके हैं, जिसने महंगाई की दर को नियंत्रित करने की पुरजोर वकालत की थी। अगस्त, 2016 में उपभोक्ता महंगाई सूचकांक 5़ 05 प्रतिशत रहा यानी इसका मतलब है कि अगस्त, 2015 के मुकाबले उपभोक्ता महंगाई में 5़ 05 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। रिजर्व बैंक चाहेगा कि यह दर और कम हो। क्योंकि इससे इसे अपने कामकाज में आसानी होती है। आसानी यह होती है कि रिजर्व बैंक फिर ब्याज दरों में कमी का सिग्नल दे सकता है। महंगाई और रिजर्व बैंक का रिश्ता बहुत पेचीदा है।
रिजर्व बैंक महंगाई की दर नीचे चाहता है। पर उसका महंगाई पर कोई नियंत्रण इस अर्थ में नहीं है कि अगर मौसमी कारणों से सब्जियों के भाव बढ़ गये हों, अरहर की दाल के भाव बढ़ गये हों, तो फिर ये बढ़े हुए भाव महंगाई सूचकांकों में बढ़ी हुई महंगाई दर्शाएंगे। अरहर की दाल के भाव रिजर्व बैंक या वित्त मंत्रालय के चाहने भर से कम नहीं हो जायेंगे। उनका अलग गणित है। पर अरहर के बढ़े हुए भाव रिजर्व बैंक के सामने महंगाई दर को बढ़ाकर रखते हैं। इसकी वजह से उसके सामने यह मसला खड़ा हो जाता है कि वह ब्याज दरों में कमी का सिगनल दे या नहीं। वह ब्याज दरों को कम करे या नहीं। याद किया जा सकता है कि पूर्व गवर्नर राजन का इस मसले पर सुब्रह्मण्य स्वामी के साथ लंबा झगड़ा रहा है। स्वामी ब्याज दरों में कटौती के समर्थक थे, पर रघुराम राजन जाते-जाते इस बात पर अड़े रहे कि महंगाई इतनी कम नहीं हुई कि ब्याज दरों में कमी कर दी जाये। महंगाई और ब्याज दरों का रिश्ता यह है कि रिजर्व बैंक यह मान सकता है कि अगर ब्याज दरों में कमी कर दी जाए, तो तमाम चीजों को खरीदना आसान हो जायेगा। जैसे कार के लोन की ब्याज दर कम हो जाये, तो कार खरीदना आसान हो जायेगा। मकान लोन की ब्याज दर कम हो जाये, तो मकान खरीदना आसान हो जायेगा और जिस चीज को खरीदना आसान हो जायेगा, उसकी मांग बाजार में बढ़ जायेगी। जिस चीज की मांग बाजार में बढ़ जायेगी, उसके भाव बढ़ जायेंगे, यानी मोटे तौर पर ब्याज में कटौती कहीं ना कहीं महंगाई में बढ़ोतरी करेगी, जो पहले ही बढ़ी हुई है। यानी कुल मिलाकर अगर महंगाई दर लगातार गिरती जाए, तो फिर रिजर्व बैंक के लिए ब्याज दरों में कटौती का काम आसान हो जाता है। राजन इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं थे कि महंगाई का स्तर गिरकर वहां आ गया है कि ब्याज दर को बढ़ाना ठीक मान लिया जाये। अब उसके नये गवर्नर से यह उम्मीदें लगायी जा रही हैं कि वह शायद जल्दी ही ब्याज दरों में कटौती के सिग्नल दे देंगे।
ब्याज दरों और महंगाई दर में संतुलन का काम
नये गवर्नर के सामने यह चुनौती है कि वे महंगाई की चिंताओं और ब्याज दरों की कटौती की मांग के बीच संतुलन कैसे कायम करते हैं। यह काम आसान नहीं है। सुब्रह्मण्यम स्वामी इसे और मुश्किल बना सकते हैं। ब्याज दरों और महंगाई दर में संतुलन स्थापित करना बहुत मुश्किल काम इसलिए होता है कि तमाम उद्योग और कंपनियां लगातार ऐसी मांग करती रहती हैं कि ब्याज दर कम की जाए। एक अध्ययन के मुताबिक अगर ब्याज दर में एक प्रतिशत की कमी हो, तो औसतन मुनाफे में 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है यानी ब्याज कटौती के बाद मुनाफा 100 करोड़ से बढ़कर 107 करोड़ रुपये हो सकता है। बैठे-बिठाये मुनाफे में इतनी बढ़ोतरी कौन नहीं चाहेगा, पर मुद्दा और व्यापक है। क्या ब्याज में कटौती होने भर से उद्योग जगत में निवेश का माहौल बन जायेगा, यह सवाल महत्वपूर्ण है। पूर्व गवर्नर राजन लगातार यह तर्क देते रहे थे कि उद्योग जगत में क्षमताएं पहले ही बहुत हैं यानी उन्हंे नये निवेश की जरूरत नहीं है, वे तो पुरानी क्षमताओं के आधार पर ही उत्पादन करके माल को बाजार में ला सकते हैं। उनकी बात का आशय यह था कि पुरानी क्षमताओं के आधार पर ही उत्पादन संभव है कि उसके लिए नये निवेश की जरूरत तब पड़ेगी जब नयी मांग पैदा हो। अगर मांग होगी, तो उद्योगपति नया निवेश करेगा। हाल में यह देखने में आया है कि जिन उद्योगों, कंपनियों के अपने उत्पादों, सेवाओं की मांग दिखायी पड़ रही है, उन्होंने 9 प्रतिशत सालाना की ब्याज दर से बाजार से कर्ज लिया है, क्योंकि उन्हें आश्वस्ति है कि उनके माल-सेवाआंे की मांग है।
संक्षेप में यह तय करना रिजर्व बैंक के गवर्नर का काम है कि बाजार में निवेश में बढ़ोतरी क्या सिर्फ ब्याज दरों में कटौती से हो जायेगी या इससे महंगाई बढ़ने के रास्ते भी खुल जाएंगे। इस तरह से देखें तो रिजर्व बैंक गवर्नर का काम सिर्फ आंकड़ों के आधार पर नहीं होता, उसकी अपनी समझ, उसका अपना मूल्यांकन इस सब में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ब्याज दरों में कटौती हो या ना हो, रिजर्व बैंक के गवर्नर को फिजूल में केंद्रीय सरकार से उलझते हुए नहीं दिखना चाहिए। इससे सरकार की और रिजर्व बैंक दोनों की गरिमा कम होती है।
बैंकिंग-वित्तीय जगत का बदलता चेहरा
पेटीएम से लेकर तमाम ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों पर कुछ-कुछ काम ऐसे हो रहे हैं, जो अब तक बैंकों के ही काम माने जाते रहे थे। तकनीक ने बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं का चेहरा पूरी तरह बदल दिया है। डिपाजिट अब सिर्फ बैंक ही नहीं रख रहे हैं, वह अब पेटीएम के पास भी है और फ्लिपकार्ट के पास भी है। तकनीक ने पैसे के लेनदेन को आसान कर दिया है, पर रिजर्व बैंक का काम इससे मुश्किल हो गया है। उस पर बड़ी हद तक देश की वित्तीय व्यवस्था की विश्वसनीयता बनाए रखने की जिम्मेदारी की है। तकनीक सुविधा देती है, पर इसके चलते उपभोक्ताओं के साथ कोई धोखाधड़ी ना हो जाए, यह सुनिश्चित करना भी रिजर्व बैंक का काम है। यह काम ऐसा है, जिसमें केंद्रीय बैंक के पास बहुत लंबा तजुर्बा नहीं है। रिजर्व बैंक के किसी गवर्नर ने इस तरह की चुनौतियों का सामना नहीं किया, क्योंकि तकनीक का, इंटरनेट का ऐसा विकास पहले कभी नहीं था। ऊ र्जित पटेल को इन चुनौतियों को समझना पड़ेगा और निपटना पड़ेगा। इनसे निपटने में कोई भी चूक पूरी व्यवस्था को चौपट कर सकती है।
वित्तीय साक्षरता में रिजर्व बैंक की भूमिका
वित्तीय बाजारों में बहुत तेजी से विकास हो रहा है और बैंकिंग वित्तीय सेवाओं का चेहरा बहुत तेजी से बदल रहा है। पर इस संबंध में आम जनता में साक्षरता बहुत कम है। रिजर्व बैंक ने कुछेक पोस्टरों और थोड़ी सी और सामग्री तैयार करने के अलावा इस मामले में कुछ नहीं किया। यानी वित्तीय साक्षरता के मसले को और खासकर भारतीय भाषाओं में वित्तीय साक्षरता को रिजर्व बैंक के गवर्नर को बहुत ही गंभीरता से लेना होगा, उसे सिर्फ खानापूर्ति समझकर नहीं निपटाना चाहिए।
चुनौतियां और मौके भरपूर हैं
पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने जहां एक शानदार विरासत छोड़ी है तो वहीं कई मसलों पर अनावश्यक विवाद भी छोड़े हैं। नए गवर्नर उर्जित पटेल को विवाद से दूर छोड़े गए कामों को निष्कर्ष तक पहुंचाने की चुनौती
डूबत कर्ज सरकारी बैंकों के लिए अस्तित्व का मसला रहे हैं। विजय माल्या जैसे भगोड़े प्रमोटर बैंकों से कर्ज लेकर विदेश भागकर मौज में हैं। जनता का पैसा सरकारी बैंकों की पूंजी की शक्ल में डूब गया। डूबत कजोंर् के लिए कड़े नियम बनाये गये हैं। पहले होता यह था कि मरीज मरने को है, फिर भी उसकी बीमारी की खबर छिपायी जाती थी। अब ऐसा नहीं है। कई सरकारी बैंकों ने खुलेआम अपने डूबत कजोंर् की घोषणा की और उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। बैंक ऑफ बड़ौदा जैसे बड़े सरकारी बैंक का शेयर इसके चलते बुरी तरह टूटा। कई छोटे-बड़े सरकारी बैंकों को डूबत कजोंर् ने अपनी चपेट में लिया। ऊ र्जित पटेल को डूबत कजोंर् पर बहुत कुछ करना है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि तमाम सरकारी बैंक डूबत कजार्ें को सबके सामने लाने में कोई हीलाहवाली ना करें। यह ऐसा मसला है कि जैसे किसी की कैंसर हो जाये और वह इसे इस डर से छिपाये कि उसकी 'इमेज' को खतरा पैदा हो जायेगा। इमेज से ज्यादा महत्वपूर्ण वास्तविक स्थिति होती है, जो हर हाल में पारदर्शी तरीके से सबके सामने आनी चाहिए। पटेल के लिए यह चुनौती इसलिए बड़ी हो जाती है कि भारतीय बैंकिंग जगत का बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा सरकारी हाथों में है। पारदर्शी व्यवस्था को लगातार बेहतर बनाये रखना उनकी चुनौतियों में से एक है। इस मामले में कोई कमी-बेशी हुई, तो पटेल की दूसरी सफलताओं पर भी ग्रहण लग जायेगा।
महंगाई के मसले पर रिजर्व बैंक की भूमिका
रिजर्व बैंक और महंगाई का बहुआयामी रिश्ता है। रिजर्व बैंक महंगाई को लगातार 'ट्रेक' करता है। उनके द्वारा बनायी समितियां महंगाई को लगातार ट्रेक करती रही हैं। पटेल खुद उस समिति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर चुके हैं, जिसने महंगाई की दर को नियंत्रित करने की पुरजोर वकालत की थी। अगस्त, 2016 में उपभोक्ता महंगाई सूचकांक 5़ 05 प्रतिशत रहा यानी इसका मतलब है कि अगस्त, 2015 के मुकाबले उपभोक्ता महंगाई में 5़ 05 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। रिजर्व बैंक चाहेगा कि यह दर और कम हो। क्योंकि इससे इसे अपने कामकाज में आसानी होती है। आसानी यह होती है कि रिजर्व बैंक फिर ब्याज दरों में कमी का सिग्नल दे सकता है। महंगाई और रिजर्व बैंक का रिश्ता बहुत पेचीदा है।
रिजर्व बैंक महंगाई की दर नीचे चाहता है। पर उसका महंगाई पर कोई नियंत्रण इस अर्थ में नहीं है कि अगर मौसमी कारणों से सब्जियों के भाव बढ़ गये हों, अरहर की दाल के भाव बढ़ गये हों, तो फिर ये बढ़े हुए भाव महंगाई सूचकांकों में बढ़ी हुई महंगाई दर्शाएंगे। अरहर की दाल के भाव रिजर्व बैंक या वित्त मंत्रालय के चाहने भर से कम नहीं हो जायेंगे। उनका अलग गणित है। पर अरहर के बढ़े हुए भाव रिजर्व बैंक के सामने महंगाई दर को बढ़ाकर रखते हैं। इसकी वजह से उसके सामने यह मसला खड़ा हो जाता है कि वह ब्याज दरों में कमी का सिगनल दे या नहीं। वह ब्याज दरों को कम करे या नहीं। याद किया जा सकता है कि पूर्व गवर्नर राजन का इस मसले पर सुब्रह्मण्य स्वामी के साथ लंबा झगड़ा रहा है। स्वामी ब्याज दरों में कटौती के समर्थक थे, पर रघुराम राजन जाते-जाते इस बात पर अड़े रहे कि महंगाई इतनी कम नहीं हुई कि ब्याज दरों में कमी कर दी जाये। महंगाई और ब्याज दरों का रिश्ता यह है कि रिजर्व बैंक यह मान सकता है कि अगर ब्याज दरों में कमी कर दी जाए, तो तमाम चीजों को खरीदना आसान हो जायेगा। जैसे कार के लोन की ब्याज दर कम हो जाये, तो कार खरीदना आसान हो जायेगा। मकान लोन की ब्याज दर कम हो जाये, तो मकान खरीदना आसान हो जायेगा और जिस चीज को खरीदना आसान हो जायेगा, उसकी मांग बाजार में बढ़ जायेगी। जिस चीज की मांग बाजार में बढ़ जायेगी, उसके भाव बढ़ जायेंगे, यानी मोटे तौर पर ब्याज में कटौती कहीं ना कहीं महंगाई में बढ़ोतरी करेगी, जो पहले ही बढ़ी हुई है। यानी कुल मिलाकर अगर महंगाई दर लगातार गिरती जाए, तो फिर रिजर्व बैंक के लिए ब्याज दरों में कटौती का काम आसान हो जाता है। राजन इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं थे कि महंगाई का स्तर गिरकर वहां आ गया है कि ब्याज दर को बढ़ाना ठीक मान लिया जाये। अब उसके नये गवर्नर से यह उम्मीदें लगायी जा रही हैं कि वह शायद जल्दी ही ब्याज दरों में कटौती के सिग्नल दे देंगे।
ब्याज दरों और महंगाई दर में संतुलन का काम
नये गवर्नर के सामने यह चुनौती है कि वे महंगाई की चिंताओं और ब्याज दरों की कटौती की मांग के बीच संतुलन कैसे कायम करते हैं। यह काम आसान नहीं है। सुब्रह्मण्यम स्वामी इसे और मुश्किल बना सकते हैं। ब्याज दरों और महंगाई दर में संतुलन स्थापित करना बहुत मुश्किल काम इसलिए होता है कि तमाम उद्योग और कंपनियां लगातार ऐसी मांग करती रहती हैं कि ब्याज दर कम की जाए। एक अध्ययन के मुताबिक अगर ब्याज दर में एक प्रतिशत की कमी हो, तो औसतन मुनाफे में 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है यानी ब्याज कटौती के बाद मुनाफा 100 करोड़ से बढ़कर 107 करोड़ रुपये हो सकता है। बैठे-बिठाये मुनाफे में इतनी बढ़ोतरी कौन नहीं चाहेगा, पर मुद्दा और व्यापक है। क्या ब्याज में कटौती होने भर से उद्योग जगत में निवेश का माहौल बन जायेगा, यह सवाल महत्वपूर्ण है। पूर्व गवर्नर राजन लगातार यह तर्क देते रहे थे कि उद्योग जगत में क्षमताएं पहले ही बहुत हैं यानी उन्हंे नये निवेश की जरूरत नहीं है, वे तो पुरानी क्षमताओं के आधार पर ही उत्पादन करके माल को बाजार में ला सकते हैं। उनकी बात का आशय यह था कि पुरानी क्षमताओं के आधार पर ही उत्पादन संभव है कि उसके लिए नये निवेश की जरूरत तब पड़ेगी जब नयी मांग पैदा हो। अगर मांग होगी, तो उद्योगपति नया निवेश करेगा। हाल में यह देखने में आया है कि जिन उद्योगों, कंपनियों के अपने उत्पादों, सेवाओं की मांग दिखायी पड़ रही है, उन्होंने 9 प्रतिशत सालाना की ब्याज दर से बाजार से कर्ज लिया है, क्योंकि उन्हें आश्वस्ति है कि उनके माल-सेवाआंे की मांग है।
संक्षेप में यह तय करना रिजर्व बैंक के गवर्नर का काम है कि बाजार में निवेश में बढ़ोतरी क्या सिर्फ ब्याज दरों में कटौती से हो जायेगी या इससे महंगाई बढ़ने के रास्ते भी खुल जाएंगे। इस तरह से देखें तो रिजर्व बैंक गवर्नर का काम सिर्फ आंकड़ों के आधार पर नहीं होता, उसकी अपनी समझ, उसका अपना मूल्यांकन इस सब में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ब्याज दरों में कटौती हो या ना हो, रिजर्व बैंक के गवर्नर को फिजूल में केंद्रीय सरकार से उलझते हुए नहीं दिखना चाहिए। इससे सरकार की और रिजर्व बैंक दोनों की गरिमा कम होती है।
बैंकिंग-वित्तीय जगत का बदलता चेहरा
पेटीएम से लेकर तमाम ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों पर कुछ-कुछ काम ऐसे हो रहे हैं, जो अब तक बैंकों के ही काम माने जाते रहे थे। तकनीक ने बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं का चेहरा पूरी तरह बदल दिया है। डिपाजिट अब सिर्फ बैंक ही नहीं रख रहे हैं, वह अब पेटीएम के पास भी है और फ्लिपकार्ट के पास भी है। तकनीक ने पैसे के लेनदेन को आसान कर दिया है, पर रिजर्व बैंक का काम इससे मुश्किल हो गया है। उस पर बड़ी हद तक देश की वित्तीय व्यवस्था की विश्वसनीयता बनाए रखने की जिम्मेदारी की है। तकनीक सुविधा देती है, पर इसके चलते उपभोक्ताओं के साथ कोई धोखाधड़ी ना हो जाए, यह सुनिश्चित करना भी रिजर्व बैंक का काम है। यह काम ऐसा है, जिसमें केंद्रीय बैंक के पास बहुत लंबा तजुर्बा नहीं है। रिजर्व बैंक के किसी गवर्नर ने इस तरह की चुनौतियों का सामना नहीं किया, क्योंकि तकनीक का, इंटरनेट का ऐसा विकास पहले कभी नहीं था। ऊ र्जित पटेल को इन चुनौतियों को समझना पड़ेगा और निपटना पड़ेगा। इनसे निपटने में कोई भी चूक पूरी व्यवस्था को चौपट कर सकती है।
वित्तीय साक्षरता में रिजर्व बैंक की भूमिका
वित्तीय बाजारों में बहुत तेजी से विकास हो रहा है और बैंकिंग वित्तीय सेवाओं का चेहरा बहुत तेजी से बदल रहा है। पर इस संबंध में आम जनता में साक्षरता बहुत कम है। रिजर्व बैंक ने कुछेक पोस्टरों और थोड़ी सी और सामग्री तैयार करने के अलावा इस मामले में कुछ नहीं किया। यानी वित्तीय साक्षरता के मसले को और खासकर भारतीय भाषाओं में वित्तीय साक्षरता को रिजर्व बैंक के गवर्नर को बहुत ही गंभीरता से लेना होगा, उसे सिर्फ खानापूर्ति समझकर नहीं निपटाना चाहिए।
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