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वर्ष: 13 अंक: 8 7 सितम्बर ,1959
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय नहीं, जनतंत्रनिष्ठ नहीं
मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि केंद्रीय हस्तक्षेप के प्रश्न पर अपराधी के कठघरे में भारत सरकार नहीं, बल्कि केरल की कम्युनिस्ट सरकार खड़ी है। मैं अपनी तथा अपने अन्य सहयोगियों की ओर से यह कहना चाहता हूं कि केरल में जो कुछ हुआ यदि वह किसी दूसरे राज्य में, जहां कांग्रेस सरकार कार्य कर रही है, हुआ होता तो मेरे मतानुसार आप भली प्रकार कह सकते थे कि हम लोगों ने अपना पग बहुत पहले उठा लिया होता।
वास्तव में वह कठिनाई जिसका हम सामना कर रहे हैं, मूलभूत है। वह यह है कि यह कहां तक संभव है कि कम्युनिस्ट पार्टी जैसी पार्टीजो राष्ट्रीय पार्टी से थोड़ा परे है तथा जिसका चिंतन और गतिविधियां राष्ट्रीय एवं आंतरिक तत्वों पर निर्भर न करते हुए बाह्य एवं गैर-राष्ट्रीय तत्वों पर निर्भर करती है-भारत की विद्यमान परिस्थितियों में फिर हो सकती है और यह यहां के अन्य गुटों एवं दलों से सहयोग एवं आदान-प्रदान कर सकती है?
मैं कम्युनिज्म के आर्थिक पहलू के बारे में कुछ नहीं कह रहा हूं- कोई उसे स्वीकार करे या न करे- किन्तु मैं पार्टी की टैक्नीक-सत्ता पर अधिकार जमाने की टैक्नीक, जो सोशलिस्टों से सर्वथा भिन्न है, के बारे में ही विचार कर रहा हूं। जहां तक कम्युनिज्म का आर्थिक पक्ष है, मैं यद्यपि उसके अर्थों से पूर्णत: सहमत नहीं हूं तथापि उसका पूर्णतया विरोधी भी नहीं हंू। किन्तु जो चीज हमारे सामने आई वह कम्युनिस्टों की आर्थिक धारणाएं नहीं हैं, जिनसे आप सहमत हों अथवा नहीं। बल्कि वह कार्यप्रणाली है जिसका कम्युनिस्टों से घनिष्ठ संबंध जुड़ गया है और जिसे उस काल में निर्धारित किया गया था जब संसार में कहीं भी जनतंत्र का अस्तित्व नहीं था। किन्तु वह कम्युनिस्ट पार्टी के अंधभक्तों के मस्तिष्कों पर इतनी बुरी तरह कब्जा जमाकर बैठ गई है कि भले ही परिस्थितियां बिल्कुल बदल जाएं, चाहे संसार बदल जाए अथवा किसी देश की परिस्थितियां औरों से सर्वथा भिन्न हों, पर वे अपनी चिंतन और क्रिया के लौह ढांचे के बाहर नहीं निकल पाते। और यही वस्तु है जिसने एक उपद्रव खड़ा किया, न कि आर्थिक सिद्धांतों ने।
प्रमुख कठिनाई तो कम्युनिस्टों के सत्ता हड़पने के एवं अधिक से अधिक संघर्ष को प्रोत्साहन देने के उपायों के कारण खड़ी होती है कि संघर्ष में से कुछ न कुछतो खड़ा होगा ही। दुनिया में भारी संघर्ष छिड़ा हुआ है। किन्तु क्या इसका यह अर्थ है कि वे उसे तब तक बढ़ाते चले जाएं जब तक कि एक या दूसरा वर्ग पूर्ण विनाश को प्राप्त न हो जाए? संघर्षों और वर्गों को समाप्त करने के दूसरे तरीके भी हो सकते हैं!
मुझे यह बड़ा असाधारण लगता है कि कैसे ऊपर से बुद्धिमान दिखाई देने वाले लोग इस व्यर्थ के विवाद में फंस जाते हैं और हर समय उत्तेजना की अवस्था में रहते हैं। स्वाभाविक ही वे गलत दिशा में पड़ जाते हैं और वे न केवल गलत दिशा में चले जाते हैं, बल्कि कहें कि वे भारत की भूमि पर कार्य नहीं करते और विदेशों में सैद्धांतिक तथा मानसिक संबंध रखते हैं- अत: उन्हें सही दिशा में चलाया ही नहीं जा सकता। यही मुख्य कठिनाई है। स्वतंत्रता की प्राप्ति के बहुत बाद तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कहती रही है कि अभी भारत स्वतंत्र नहीं हुआ है और यही है जिसे मैं सोचने का लौह ढांचा कहता हूं। उनके लोह ढांचे को तथ्यों के अंतर का पता चलता ही नहीं, क्योंकि उन्हें स्वाधीनता को एक विशेष भूमिका में देखने की आदत पड़ गई है।
लोकमान्य के सपनों का भारत-5
हमारे राष्ट्र की दुरावस्था का
कारण देशभक्ति का अभाव
(स्व. श्री बद्रीशाह टुलघारिया)
प्रथम अध्याय में यह कह गया है कि सुसाध्य आजीविका, शान्ति, स्वतंत्रता और पौरुष के समष्टिगत हुए बिना समाज में कोई सुखी नहीं हो सकता। किन्तु सुसाध्य आजीविका आदि मनुष्यों के व्यक्तिगत हित की उपेक्षा करके जातिगत हित में लगे बिना समष्टिगत नहीं हो सकते।
आज का दृश्य
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है भारत। यह प्रत्यक्ष है कि इन दिनों सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला भारतभूमि की संतानों को घोर अन्न कष्ट हो रहा है। आज माई अन्नपूर्णा के प्रिय प्रमोद-कानन इस भारत के उदर-भरण बल-पौरुष समझा जाने लगा है। आज वसुमती बुद्धिमती इस भूमि का मुखारविंद चिंतारूपी तुषारलेखा से आकुलित हो रहा है। आज रत्नाकर मेखला, हिमगिरि मुकुरा इस भूमि में महादैन्य छाया हुआ है। आज साहित्य धनाग्रग्रामी इस भारत की साहित्य रूपी मान पताका उसी की संतानों के हाथ में उखाड़ी जा रही है। आज उसकी कीर्तिरूपी उज्जवल कौमुद्री अस्ताचल चूड़ावलिम्बनी हो रही है। आज भारत संतानों में सबको किसी न किसी प्रकार का दु:ख, किसी न किसी प्रकार की चिंता लगी हुई है-चाहे उनमें कोई मुकुटधारी हो अथवा कन्याधारी, चाहे कोई विद्या वारिधि हो अथवा निरक्षर भट्टाचार्य, चाहे कोई योगी हो अथवा भोगी। भूपतियों को चाहे अन्न-कष्ट न हो किन्तु उनको वह महादु:ख, वह दारुण चिंता है जिसका अनुमान नहीं किया जा सकता; निर्धनों को चाहे राजा-महाराजाओं का सा दु:ख न हो किन्तु पापी पेट सदा उनके होश उड़ाए रहता है। विद्वानों का विद्याविलास तथा मूर्खों की अविद्या की लोरियां तभी तक है कि जब तक पेट भरा हुआ और शरीर ढका हुआ। योगियों का योग और भोगियों का भोग तभी तक है कि जब तक समाज में अन्न सुलभ और आहार-विहार स्वच्छन्द है।
आर्थिक लोकतंत्र का अर्थ
''आर्थिक लोकतंत्र का अर्थ क्या है? जिस शासन-प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति व्यापक समष्टि-हित के लिए बाधक न बनने का पथ्य रखते हुए अपनी इच्छानुसार उत्पादन एवं उपभोग कर सकता हो, उसी शासन-प्रणाली में आर्थिक स्वतंत्रता है, ऐसा हम कह सकते हैं। साम्यवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं उपभोग-दोनो बातों में व्यक्ति को कोई स्वतंत्रता नहीं होती। आर्थिक स्वातन्त्र्य को प्रत्यक्ष व्यवहार में लाना हो तो प्रत्येक को काम करने का अधिकार देना होगा। काम कर सकने वाले हर व्यक्ति को काम उपलब्ध करा देना शासन का दायित्व होना चाहिए। साथ ही उपभोग की स्वतंत्रता भी प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक मर्यादा में रहकर मिलती रहे, यह भी आर्थिक लोकतंत्र का द्योतक है। कोई व्यक्ति उत्पादन न कर सकता हो, या शासन ऐसे व्यक्ति को काम उपलब्ध न करा सकता हो, तब भी उसकी न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए। आर्थिक लोकतंत्र में यह अधिकार सुरक्षित होना चाहिए।'' —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-4, पृ. 20)
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