|
गाय से रिश्तों की याद दिलाती कविताएं
हाल के समय में हिन्दी में आई कुछ अच्छी पुस्तकों में से एक है 'प्रणाम कपिला'। पूरी किताब कपिला यानी गाय को समर्पित है। हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार डॉ. देवेन्द्र दीपक द्वारा संकलित और संपादित इस पुस्तक में 134 कवियों की 145 कविताएं शामिल की गई हैं। सभी कविताएं गाय पर केन्द्रित हैं। इस तरह का शायद यह पहला प्रयास है। इसके बावजूद पुस्तक साज-सज्जा और सामग्री की दृष्टि से अच्छी है।
पुस्तक का नाम : प्रणाम कपिला
संकलन एवं संपादन : देवेन्द्र दीपक
पृष्ठ सं. : 280
मूल्य : 400 रुपए
प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल
24/ 4855-56, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002
पुस्तक की पूर्विका में लेखक ने इसके प्रकाशन और उद्देश्य को विस्तार से बताया है। साथ ही इसमें उन्होंने अनेक शास्त्रों और मजहबी विद्वानों के विचारों को शामिल किया है, जो गाय हत्या को पाप मानते हैं। उन्होंने अनेक मुस्लिम देशों में गाय की देखरेख के लिए हो रहे कार्यों का भी उल्लेख किया है। सऊदी अरब में गाय की सेवा किस तरह होती है, इस संबंध में लिखा है- ''सऊदी अरब की राजधानी रियाद से 100 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में एक फार्म है 'अल शफीअ।' साधारणत: इसका अर्थ होता है मेहरबान यानी कृपालु। गाय के गुण के अनुरूप ही उस फार्म का नाम रखा गया है। इस समय में फार्म 36,000 गायें रहती हैं। इनमें 5,000 गायें भारतीय नस्ल की हैं। वहां भारतीय गायों का दूध सेवन करने वाला एक विशेष वर्ग है। रियाद स्थित शाही परिवार में लगभग 400 लीटर भारतीय गायों का दूध जाता है। शेष मात्रा ऊंट के दूध की होती है। अल शफीअ फार्म की गायों का रंग या तो सफेद होता है या फिर काला। फार्म में जो भी अधिकारी काम करते हैं, उन्हें कोपेनहेगन अथवा न्यूजीलैंड की किसी डेयरी का पांच साल का अनुभव होना अनिवार्य है। … इस फार्म ने लोगों के मन में यह विश्वास पैदा कर दिया है कि डेयरी का उद्योग भी एक लाभकारी उद्योग है। इस समय अल शफीअ फार्म की गायों से प्रतिवर्ष 16 करोड़ 50 लाख लीटर दूध निकाला जाता है। यहां दूध निकालने के लिए कमरे बने हुए हैं। हर कमरे में 120 गायों का दूध मशीनों से निकाला जाता है। एक गाय का दूध निकालने में दस मिनट का समय लगता है। हर गाय औसतन 45 लीटर दूध देती है। जो गाय दूध देना बंद कर देती है, उसका अलग से विभाग है। उसे सलाटर हाउस में नहीं बेचा जाता है, बल्कि उसके मूत्र और गोबर का खाद के रूप में उपयोग होता है। मर जाने के बाद उसका चमड़ा निकाल लिया जाता है, लेकिन उसके मांस और अन्य अवयवों को फार्म मंे दफन कर दिया
जाता है।…''
साहित्यकारों ने भी गायों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेखक लिखते हैं, ''हिंदी के एक कवि हुए हैं नरहरि। एक दिन एक गाय कसाई से छूटकर नरहरि के घर में घुस आई। आगे-आगे गाय, पीछे-पीछे कसाई। नरहरि ने कसाई को भगा दिया और अगले दिन अकबर के दरबार में फरियादी की जगह गाय को खड़ा किया। और फरियादी की ओर से नरहरि ने यह छंद सुनाया-
अरिहु दंत तृन धरइ ताहि मारत न सकत कोइ।
हम संतत तृन चरहिं बचन उच्चरहिं दीन होइ।।
हिंदुहि मधुर न देहिं कटुक तुरकहिं न पियावहिं।
पय बिशुद्ध अति स्रवहिं बच्छ महि थंभन जावहिं।।
सुनु शाह अकब्बर! अरज यह करत
गऊ जोरे करन।
सो कौन चूक मोहि मारियतु मुयेहु
चाम सेवत चरन।।''
इसके बाद अकबर ने गोहत्या बंद करवा दी थी।
गोरक्षा के संदर्भ में मंुशी प्रेमचंद से जुड़ा एक प्रसंग बहुत ही रोचक है। प्रेमचंद उन दिनों गोरखपुर के एक विद्यालय में शिक्षक थे। उन्होंने गाय पाल रखी थी। एक दिन गाय चरते-चरते दूर निकल गई। प्रेमचंद गाय की तलाश में निकले। उन्होंने देखा कि अंग्रेज कलेक्टर उनकी गाय की ओर बंदूक ताने खड़ा कुछ बड़बड़ा रहा है। प्रेमचंद पहुंचे और कहा, ''यह मेरी गाय है। निरीह पशु होने के कारण यह आपके बगीचे तक पहुंच गई है। मैं इसे ले जा रहा हूं।'' अंग्रेज कलेक्टर आपे से बाहर हो गया। उसने चीखते हुए कहा, ''तुम इसे जिंदा नहीं ले जा सकते। मैं अभी इसे गोली मार देता हूं। इसकी यह हिम्मत कैसे हुई कि मेरे बंगले में आ घुसी।'' प्रेमचंद ने समझाते हुए कहा, ''यह भोला पशु है। इसे क्या पता था कि यह बंगला गोरे साहब बहादुर का है। मेहरबानी करके इसे मुझे ले जाने दें। '' अंग्रेज अधिकारी का पारा और चढ़ गया। वह बोला, ''तुम काले आदमी ईिडएट हो। आज इस गाय की लाश ही मिलेगी तुम्हें।'' ये शब्द सुनते ही प्रेमचंद जी का स्वाभिमान जाग उठा। वे गाय और अंग्रेज कलेक्टर के बीच आ खड़े हुए। चीखकर बोले, ''बेचारी बेजुबान गाय को मारता है? चला मुझ पर गोली।'' प्रेमचंद का रौद्र रूप देखकर कलेक्टर सकपका गया तथा बंदूक सहित बंगले में जा घुसा।
पूर्विका में ऐसे अनेक प्रसंग हैं। इन प्रसंगों ने किताब को पठनीय बना दिया है। किताब में संकलित कविताएं गाय को लेकर जनजागरण और जन आंदोलन चलाने में सहायक हो सकती हैं। कुछ कविताएं तो समस्या के भीतरी रेशों तक प्रवेश करती हैं। ये कविताएं बार-बार गाय से हमारे रिश्तों की याद दिलाती हैं। इन कविताओं में पूजा है, धिक्कार है, खिन्नता है, आक्रोश है, आह्वान है, प्रश्न है, चेतावनी है, वर्तमान है और भविष्य भी है। पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसके संपादन में लेखकीय धर्म का पालन किया गया है और बिना किसी भेदभाव के हर विचार के कवि की रचना को जगह दी गई है। इन कवियों में कुछ पुराने भी हैं, तो कुछ नए भी। गोरक्षा आंदोलन से जुड़े कुछ कवियों की रचनाएं भी किताब में हैं। पूरी पुस्तक दो खंडों में है और रचनाएं कवियों के नाम के आधार पर अकारादि क्रम से दी गई हैं। अरुण कुमार सिंह
भारतीय इतिहास के निर्माता : ईसुरी
ईसुरी रीतिकाल के अंतिम चरण के बंुदेली कवि हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को आज के पाठकों तक लाने का काम किया है लेखक, पत्रकार और लोककला विशेषज्ञ अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद' ने। साहित्य अकादमी से प्रकाशित उनकी पुस्तक 'भारतीय इतिहास के निर्माता : ईसुरी' में ईसुरी का बहुत ही सटीक मूल्यांकन किया गया है। ईसुरी ने प्रेम और भक्ति, नीति तथा लोकदृष्टि को समग्रता में आत्मसात करके बुंदेली बोली को साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित किया, विशाल शब्द भंडार दिया, आम बोलचाल के मुहावरों को साहित्यिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया। हेय समझी जाने वाली ग्रामीण फागों को उन्होंने साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाई। इनसे प्रभावित होकर ही मैथिलीशरण गुप्त ने सिद्धराज में फाग को स्थान दिया तो दूसरी ओर हरिवंश राय बच्चन ने स्वयं मधुशाला में 'ईसुरी की आत्मा की छाया' स्वीकार की। इससे विद्वानों ने उमर खैयाम, फिट्जरोल्ड और ईसुरी को एक ही दहलीज पर खड़ा पाया।
पुस्तक में कुल आठ अध्याय हैं। पहले अध्याय में ईसुरी का जीवन परिचय दिया गया है। दूसरे अध्याय में ईसुरी कालीन परिदृश्य का वर्णन है। तीसरे अध्याय में ईसुरी के शृंगार रस की चर्चा है। ईसुरी के काव्य में अध्यात्म और भक्ति की भी प्रचुरता है। इन सबका वर्णन चौथे अध्याय में है। पांचवें अध्याय में उनके काव्य में मौजूद नीति तत्व की चर्चा है। छठे अध्याय में उनकी लोक दृष्टि और सातवें अध्याय में उनके काव्य शिल्प का वर्णन है। आठवें अध्याय में उनका मूल्यांकन किया गया है।
पुस्तक का नाम :
भारतीय इतिहास के निर्माता : ईसुरी
लेखक : अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'
पृष्ठ सं. : 148
मूल्य : 50 रुपए
प्रकाशक : साहित्य अकादमी
रवीन्द्र भवन, 35, फिरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली – 110001
स्वच्छता का समाजशास्त्र
लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक करने के लिए लेखक अनिल वाघेला ने 'स्वच्छता का समाजशस्त्र' शीर्षक से एक किताब लिखी है। इसमें घर-समुदायों के कचरे का निष्कासन, स्वास्थ्य संबंधित प्रवृत्तियां, सफाईकर्मियों की भूमिका, परिवेश-पर्यावरण संबंधित चर्चा आदि पर जोर दिया गया है। पुरातन समय, मध्यकाल व वर्तमान समय में प्रवर्तित स्वच्छता और सफाईकर्मियों के स्थान-स्थिति और बदलाव से जुड़े कानून की भी जानकारी है।
पुस्तक का नाम : स्वच्छता का समाजशास्त्र
लेखक : अनिल वाघेला
पृष्ठ सं. : 322
मूल्य : 940 रुपए
प्रकाशक : कल्पाज पब्लिकेशन्स
सी-30, सत्यवती नगर
दिल्ली – 110052 भारतीय इतिहास के निर्माता : ईसुरी
पुस्तक में भारतवर्ष में स्वच्छता से संबंधित विभिन्न आंदोलन, आंदोलनों के सूत्रधार, स्वच्छता हेतु कार्यरत विविध संस्थानों की भूमिका, राज्य और केन्द्र सरकार के योगदान और विविध कार्यक्रमों की झलक भी प्रस्तुत की गई है।
स्वच्छता अभियान में केवल भारत ही नहीं, अपितु विश्व के कई देशों ने अपनी ओर से विविध नीतियां, गतिविधियां और परियोजनाओं को परिचालित किया है। देश के कई राज्यों में इस संबंध में उल्लेखनीय कार्य हुए हैं। पुस्तक से यह आभास होता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह अभियान अब वैश्विक रूप धारण कर चुका है।
झुला एक ओर गोशाला
दूसरी ओर बूचड़खाना
एक ओर रंभाना
दूसरी ओर चीख
एक ओर दूध
दूसरी ओर मांस
एक ओर मन
दूसरी ओर जीभ
एक ओर संस्कृति
दूसरी ओर राजनीति
एक ओर धर्म
दूसरी ओर अर्थ
भारत कभी इधर
भारत कभी उधर
गाय के सवाल पर
भारत बन गया झूला
इतिहास, परंपरा, जरूरत
सब भूला
दौड़
मेरा एक दोस्त जमीर
अंग्रेजी का प्रोफेसर
मेरा अनुवादक भी
कुछ-कुछ कबीर जैसा अक्खड़।
एक दिन उसने बताया—
'बचपन में दौड़ में वह
सदा आता था अव्वल'
'तुम्हारी कामयाबी का गुर?'
'घर में थी गाय
खूब पीता था दूध
बछड़े की पकड़कर पूंछ
रोज-रोज दौड़ा
मैं मुसलमान का मोड़ा।'
जमीर के गुर में सुर तो है।
-देवेन्द्र दीपक
टिप्पणियाँ