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जीतने के जज्बे के आगे कोई शारीरिक लाचारी आड़े नहीं आ सकती, रियो पैरालंपिक में पदक जीतकर भारत के दिव्यांग खिलाडि़यों ने यही बात
साबित की
प्रवीण सिन्हा
सले अगर बुलंद हों तो उस व्यक्ति को कोई भी तकलीफ या विपरीत परिस्थितियां या अत्यधिक गरीबी भी शिखर को लांघने से नहीं रोक सकती। मजूबत इरादे और अकल्पनीय सपने देखने की ताकत किसी भी मनुष्य को किस तरह से ऊंचाइयों पर पहुंचा देती है, इसका जीता-जागता उदाहरण पेश किया रियो पैरालंपिक खेलों में हमारे एथलीटों ने। मरियप्पन थंगावेलू, देवेंद्र झाझरिया, दीपा मलिक और वरुण सिंह भाटी ने रियो पैरालंपिक खेलों में भारतीय परचम लहराते हुए साबित कर दिया कि सफलता हासिल करने की अदम्य इच्छाशक्ति से बढ़कर कुछ नहीं है। भारत के इन महान सपूतों ने रियो में दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक जीत दिव्यांगता को अपनी दिव्य क्षमता के बल पर इस कदर बेअसर किया है कि इनकी प्रशंसा के लिए कोई भी शब्द कमतर साबित होगा। इन महान एथलीटों ने देश के लिए रियो पैरालंपिक खेलों में चार पदक जीतकर इतिहास रचा है।
इसमें कोई शक नहीं कि यह महान उपलब्धि है। रियो पैरालंपिक खेलों में पदक जीतने वाले चारों खिलाडि़यों की जीत की जिजीविषा, संघर्ष करते हुए निरंतर आगे बढ़ने की ललक और देश का नाम रोशन करने की इच्छाशक्ति बार-बार साबित करती है कि जीना इसी का नाम है। भगवान ने जब इस धरती पर भेजा है तो सभी लोग किसी न किसी तरह जी लेते हैं। लेकिन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच जी भरकर जीना और ऊंचाई लांघने का जज्बा दिखाना, हर किसी के वश की बात नहीं होती। लेकिन उपरोक्त चारों खिलाडि़यों ने न सिर्फ खेल जगत में सफलताएं हासिल करने के जांबाज उदाहरण पेश किए, बल्कि समाज को जीने की राह भी दिखाई है। खेल जगत के सबसे बड़े मंच पर मरियप्पन ने दिखाया कि पारिवारिक कलह और तमाम दुश्वारियों के बावजूद ऊंची कूद में कैसे स्वर्ण जीता जाता है, दीपा मलिक ने दिखाया कि शरीर के निचले हिस्से के लकवाग्रस्त होने के बावजूद कैसे गोला फेंक में रजत पदक हासिल किया जा सकता है, देवेंद्र झाझरिया ने दिखाया कि एक हाथ करीबन पूरा कटा होने के बावजूद कैसे भाला फेंक में अव्वल आया जाता है और पोलियोग्रस्त वरुण भाटी ने दिखाया कि इरादे अगर मजबूत हों तो कैसे ओलंपिक पदक विजेता मंच (पोडियम) की ऊंचाई लांघी जा सकती है। इन सभी खिलाडि़यों के अद्भुत प्रदर्शन ने बार-बार देश का नाम रोशन किया और भारतवासियों का सीना गर्व से चौड़ा किया है।
मैंने हिम्मत के साथ सपना देखा : दीपा
रियो डि जनेरियो में पैरालंपिक खेलों की महिला एफ-53 गोलाफेंक स्पर्धा में रजत पदक जीतकर सोनीपत, हरियाणा की दीपा मलिक ने न केवल इतिहास रचा, बल्कि साबित किया कि अगर सपना देखने की हिम्मत जुटाई जाए तो उसका सच होना तय है। 46 वर्षीया दीपा पिछले 17 वर्ष से कमर के निचले हिस्से के लकवाग्रस्त होने की वजह से व्हील चेयर पर हैं। लेकिन वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की पैरा तैराकी में पदक जीतने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी हैं, देश की पहली महिला दिव्यांग बाइकर हैं, हिमालय की दुर्गम घाटियों में बाइक रैली में भाग लेने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी हैं और अब पैरालंपिक खेलों का पहला पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनने का गौरव भी उन्हें हासिल हुआ है। इसके अलावा वे विश्व चैंपियनशिप में गोलाफेंक और चक्का फेंक स्पर्धाओं में भी रजत पदक जीत चुकी हैं।
दीपा ने अपने छह प्रयासों में 4.61 मीटर की दूरी तक गोला फेंकते हुए रियो में रजत पदक जीता। उन्होंने स्वीकार किया कि यह एक महान उपलब्धि है जिस पर उन्हें जीवनभर गर्व रहेगा। लेकिन दिव्यांगता के कारण सहानुभूति दर्शाने वाले लोग उन्हें जरा भी पसंद नहीं हैं। उन्होंने कहा, ''मैंने आज जो कुछ भी हासिल किया, उससे मैं काफी खुश हूं। यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। मुझे खेल के प्रति शुरू से लगाव रहा। खेल के दम पर आगे बढ़ने की दृढ़ इच्छाशक्ति ने मुझे सपने देखने को प्रेरित किया। फिर उन सपनों को पूरा करने के लिए जो एक लगन चाहिए, वह मैंने हर समय दिखाई। आमतौर पर लकवाग्रस्त होने के बाद महिलाओं की जिंदगी समाप्त मान ली जाती है। लेकिन मैंने तमाम परेशानियों से पार पाने के लिए खेल का रास्ता चुना जिससे जीवन का एकाकीपन तो दूर हुआ ही, साथ ही बीमारी से लड़ने के लिए जरूरी व्यायाम का दौर भी नियमित तौर पर चलता रहा। इसके पीछे मेरे पति मेरी ताकत बने और दोनों बेटियां प्रेरणास्त्रोत। हमेशा मुझे अपने परिवार का साथ मिला। मुझे गर्व है अपने परिवार पर जिसने मुझे हर क्षण आगे बढ़ने और परेशानियों से पार पाने के लिए प्रेरित किया।'' दीपा की शादी सेना के कर्नल बिक्रम सिंह से हुई थी जिन्होंने उन्हें खेल जगत में आगे बढ़ाने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी। दीपा के पति हर टूर्नामेंट के दौरान उनके साथ रहते हैं और उनकी प्रतिभा को निखारने की हरसंभव कोशिश करते हैं।
दीपा को 17 वर्ष पहले रीढ़ में ट्यूमर होने के कारण 31 बार ऑपरेशन कराना पड़ा। इस दौरान उनकी कमर से लेकर पैरों के बीच 183 टांके आए। लेकिन यह उनकी जांबाजी ही थी जिसने उन्हें निराश-हताश नहीं होने दिया। जोखिम भरे काम करना उनकी आदत में शुमार हो गया और वे आगे बढ़ती चली गईं। दीपा को शुरू में तैराकी रास आई और उन्हें काफी सफलताएं भी मिलीं। लेकिन उन्हें आसानी से कोई रेस जीतने में आनंद नहीं आता था इसलिए उन्होंने किसी और चुनौतीपूर्ण खेल को अपनाने का फैसला किया। बाइक चलाने का भी उन्हें बचपन से शौक रहा था जिसे उन्होंने फिर से अपनाने का फैसला किया। हिमालयन मोटर स्पोर्ट्स (एचएमए) और भारतीय मोटर स्पोर्ट्स महासंघ (एफएमएससीआई) की सदस्या दीपा ने रेड डि हिमालय रैली में भाग लिया जहां उन्होंने दुर्गम रास्ते पर 1700 किलोमीटर तक बाइक चलाने का साहस दिखाया। शून्य से भी नीचे तापमान में हिमालय की घाटियों, लेह, शिमला और जम्मू में उन्होंने हैरतअंगेज प्रदर्शन कर दिखा दिया कि डर के आगे जीत है। हाड़ कंपाने वाली ठंड के अलावा ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी से जूझते हुए दीपा ने रेस पूरी कर साबित कर दिया कि जहां चाह, वहां राह होती ही है।
पापा मैं अव्वल आ गई, अब आपकी बारी
पैरालंपिक खेलों की पुरुषों की एफ-46 भाला फेंक स्पर्धा में दो बार स्वर्ण पदक जीतने वाले एकमात्र भारतीय एथलीट देवेंद्र झाझरिया को रियो में पदक जीतने का पूरा भरोसा था, लेकिन स्वर्ण पदक जीतने के लिए उन्हें सबसे ज्यादा उनकी बेटी ने प्रेरित किया। 13 सितंबर को देर रात रियो में पुरुषों की भाला फेंक स्पर्धा चल रही थी जहां सबकी निगाहें भारत के देवेंद्र झाझरिया पर टिकी हुई थीं। दूसरी ओर, देवेंद्र के कानों में बार-बार उनकी बिटिया जिया की आवाज गूंज रही थी-''पापा मैंने स्कूल में टॉप किया है, अब आपकी बारी है।'' बिटिया की इच्छा पूरी करने के लिए देवेंद्र ने जान झोंक दी और 63.97 मीटर तक भाला फेंकते हुए नए विश्व रिकॉर्ड सहित स्वर्ण पदक अपने नाम कर लिया। 62. 15 मीटर का पिछला विश्व रिकॉर्ड भी देवेंद्र के नाम ही था जो उन्होंने 2004 एथेंस पैरालंपिक खेलों में बनाया था। हालांकि देवेंद्र ने अपनी पत्नी मंजू से रियो में स्वर्ण पदक जीतने का वादा किया था और उन्होंने इसे भी सच साबित कर दिखाया। लेकिन उन्होंने कहा कि आज मेरी बेटी सबसे ज्यादा खुश होगी जिसकी इच्छा थी कि मैं भी उसके साथ अव्वल खड़ा हो पाऊं।
36 वर्षीय देवेंद्र ने माना कि पैरालंपिक खेलों का स्वर्ण पदक जीतना बहुत बड़ी उपलब्धि है, जबकि अपने ही विश्व रिकॉर्ड को सुधारना एक बोनस की तरह है। देवेंद्र ने रियो में स्वर्ण पदक जीतने से पहले 'साई' की मदद से फिनलैंड में करीब चार महीने तक कड़ी मेहनत की और अपने प्रदर्शन में काफी सुधार किया। भाला फेंक एथलीट के लिए तेज दौड़ लगाते हुए भाला फेंकने के बाद शारीरिक संतुलन बनाए रखने में दूसरे हाथ की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। देवेंद्र ने हर दिन लगभग छह से आठ घंटे तक शारीरिक संतुलन बनाने के लिए कड़ी मेहनत की और दौड़ लगाने का अलग से प्रशिक्षण लिया। तेज दौड़ लगाकर भाला फेंकने के बाद अपना संतुलन बनाए रखने के लिए देवेंद्र ने नई तकनीक विकसित की और उसी के दम पर पैरालंपिक में दो बार स्वर्णिम सफलताएं हासिल कर इतिहास रच दिया। देवेंद्र जैसे एथलीट विरले ही होते हैं।
जिस देश में एथलीट ओलंपिक खेलों में पदक जीतने के लिए तरसते हैं, वहीं पैरालंपिक में दो बार स्वर्ण जीतना कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। वह तो देवेंद्र का भाग्य ने साथ नहीं दिया, नहीं तो वह देश के महानतम ओलंपियन के तौर पर याद किए जाते। 2004 एथेंस ओलंपिक में पुरुषों की एफ 46 भाला फेंक स्पर्धा में स्वर्ण जीतने के बाद देवेंद्र को अपना दूसरा पैरालंपिक स्वर्ण पदक जीतने के लिए 12 साल तक इंतजार करना पड़ा। दरअसल, 2008 बीजिंग और 2012 लंदन पैरालंपिक खेलों में इस स्पर्धा को शामिल नहीं किया गया जिसके कारण देवेंद्र एक तरह से तय दो स्वर्ण पदक जीतने से रह गए।
एफ 46 भाला फेंक स्पर्धा
राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट्स की एफ 46 भाला फेंक स्पर्धा में वही खिलाड़ी भाग ले सकता है जिसका 'थ्रोइंग आर्म' (भाला फेंकने वाला हाथ) करीब सामान्य हो, भले उसके दूसरे हाथ में कोई कमी हो। देवेंद्र ने इस शारीरिक कमी पर पार पाते हुए बार-बार भारतीय परचम लहराया जिसे खेलप्रेमी लंबे समय तक याद रखेंगे। दरअसल, देवेंद्र का बायां हाथ आठ साल की उम्र में एक पेड़ पर चढ़ते वक्त बिजली के तार से छू गया था जिसकी वजह से कोहनी से नीचे तक उनका हाथ काटना पड़ा। इस भयंकर संकट के बावजूद देवेंद्र ने हार नहीं मानी और खेल को अपना जीवन बना लिया। वर्ष 2002 में देवेंद्र ने दक्षिण कोरिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहला पदक जीता और उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। देवेंद्र ने 2004 एथेंस पैरालंपिक खेलों में 62.15 मीटर का विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए एफ 46 भाला फेंक स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीता जिसके लिए उन्हें 2004 में अर्जुन पुरस्कार दिया गया, जबकि वर्ष 2012 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। हालांकि देवेंद्र अगले दो ओलंपिक खेलों में इस स्पर्धा को शामिल न किए जाने की वजह से भाग नहीं ले पाए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वर्ष 2013 में आईपीसी विश्व चैंपियनशिप में एक बार फिर से स्वर्ण पदक जीतकर साबित किया कि उनमें जीतने की ललक कम नहीं हुई है।
अब एक बड़ा सा घर बनाऊंगा : मयप्पन
रियो पैरालंपिक खेलों में पुरुषों की टी 42 ऊंची कूद स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीतने के बाद तमिलनाडु के 21 वर्षीय एथलीट थंगावेलू मरियप्पन की आंखों से आंसू थम नहीं रहे थे। कुछ ही क्षणों बाद पदक विजेता मंच के पास भारतीय तिरंगा जैसे-जैसे ऊपर उठ रहा था, वहां माहौल और भी भावुक होता जा रहा था। उसके जायज कारण भी थे। तमाम विपरीत परिस्थितियों को पीछे छोड़ते हुए पैरालंपिक खेलों में इतिहास रचने वाले उस गौरवपूर्ण क्षण का गवाह बनना अविस्मरणीय था भारत के दो महान एथलीट थंगावेलू मरियप्पन और ग्रेटर नोएडा के वरुण भाटी के लिए।
मरियप्पन 1.89 मीटर ऊंची छलांग लगाते हुए टी 42 ऊंची कूद स्पर्धा का स्वर्ण जीतने वाले पहले भारतीय एथलीट बने, जबकि ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश के वरुण भाटी ने 1.86 मीटर की ऊंचाई लांघते हुए कांस्य पदक जीता। पैरालंपिक की एक ही स्पर्धा में भारत के दो पदक विजेताओं का एक साथ खड़े होने का यह पहला मौका था।
पैरालंपिक खेलों में पहली बार भाग लेते हुए मरियप्पन ने ऐतिहासिक सफलता हासिल करने के बाद कहा, ''मैं काफी खुश हूं। पैरालंपिक के पोडियम (विजेता मंच) पर खड़ा होना एक सुखद अनुभूति है। मेरी मां ने मुझे यहां तक पहुंचाने के लिए जो त्याग किए हैं, उन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता। अब मैं सबसे पहले अपने गांव लौटते ही एक बड़ा सा घर बनवाऊंगा।'' वाकई, मरियप्पन ने एक महान एथलीट होने के साथ साबित कर दिया कि वह देश का महान सपूत भी है। एक छोटे से कमरे में चार भाई-बहनों और मां के साथ भयंकर गरीबी में जीवनयापन करने के बावजूद बुलंदियों को छूने की लालसा मरियप्पन से ज्यादा शायद ही किसी में देखने को मिले।
चेन्नै से कोई 350 किलोमीटर दूर पेरियावदागमपट्टी गांव में पारिवारिक कलह के बीच मरियप्पन का बचपन गुजरा। पिता करीब एक दशक पहले चार बच्चों और अपनी पत्नी को उनके हाल पर छोड़ घर से अलग हो गए। बच्चों के लालन-पालन के लिए मरियप्पन की मां को अन्य घरों में काम करना पड़ा। वे आज भी साइकिल पर सब्जियां बेचती हैं और 200 से 250 रुपए रोज कमा कर घर लाती हैं जिससे उनके परिवार का गुजारा होता है।
मरियप्पन के लिए उनकी जिंदगी कभी आसान नहीं रही। महज पांच साल की उम्र में घर के बाहर खेलते वक्त मरियप्पन को एक बस ने टक्कर मार दी जिसके बाद उन्हें अपना दायां पैर गंवाना पड़ा। एक तो गरीबी और उसके बाद पिता का घर छोड़ जाना, इस दुरुह स्थिति में मरियप्पन के पैर का इलाज संभव नहीं था। लेकिन मां ने तीन लाख रुपए का कर्ज लिया जिसे वे आज तक चुका रही हैं। इतने कष्ट के बावजूद मरियप्पन रुके नहीं और स्कूली दिनों से ही खेल से जुड़ गए। पहले वॉलीबाल में हाथ आजमाया लेकिन कोच सत्यनारायण ने उन्हें ऊंची कूद में भाग लेने को प्रेरित किया। मां और कोच के आशीर्वाद व अथक परिश्रम के साथ मरियप्पन की खुद की दृढ़ इच्छाशक्ति ने आज उन्हें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है जहां पर हर कोई नहीं पहुंच सकता है।
सुविधाओं का अभाव आड़े नहीं आया : वरुण
मरियप्पन की ही स्पर्धा में कांस्य पदक जीतने वाले वरुण भाटी ने भी काफी संघर्ष के बाद पैरालंपिक खेलों में सफलता हासिल की। बचपन से ही पोलियोग्रस्त होने की वजह से वरुण के लिए खेलकूद की दुनिया में उतरना आसान नहीं था। लेकिन स्कूली दिनों से ही उन्हें खेलों से लगाव था। पर दिव्यांग श्रेणी के अन्य बच्चों के वहां न होने के कारण वे सामान्य वर्ग के बच्चों के साथ खेलने लगे। लेकिन सामान्य बच्चों के साथ वरुण ताल नहीं बिठा पाते थे और कोई दिव्यांग खिलाड़ी उनके साथ था नहीं। इस संकट के बीच उनके पिता ने स्कूल को ऊंची कूद के लिए एक गद्दा मुहैया कराया और वरुण उसी पर अभ्यास करने लगे।
वरुण ने कड़ी मेहनत करते हुए राष्ट्रीय स्तर की कई प्रतियोगिताएं जीतीं। इसके बाद 2013 में चीन में आयोजित पैरा एथलेटिक्स में 1.75 मीटर ऊंची छलांग लगाते हुए स्वर्ण पदक जीत पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आए। इसके बाद इसी साल दुबई में हुए आईपीसी खेलों में 1.82 मीटर के एशियाई रिकॉर्ड सहित स्वर्ण पदक जीत पैरालंपिक खेलों की तैयारी का नजारा पेश किया। फिर रियो में अपने प्रदर्शन में और सुधार करते हुए वरुण ने कांस्य पदक अपने नाम कर लिया।
खेल संस्कृति के विकास को ऊंची उड़ान
ग्रीष्मकालीन रियो ओलंपिक के दौरान पी. वी. सिंधु और साक्षी मलिक ने पदक जीतकर पहले ही एहसास करा दिया था कि देश में खेल संस्कृति का विकास हो रहा है। सिंधु, साक्षी, दीपा करमाकर और जीतू राय जैसे खिलाडि़यों ने देश को एक नई राह दिखाई तो पैरालंपिक खिलाडि़यों ने भी उन उम्मीदों को एक नया बल दिया है जिसके दम पर भारतीय खेल जगत एक महाशक्ति बनने की राह पर अग्रसर हो
सकता है।
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