|
विभाजन से पूर्व पं. दीनदयाल जी द्वारा अपने मामाजी का लिखा गया पत्र प्रस्तुत है पाञ्चजन्य अभिलेखागार से यह प्रेरक पत्र-
पं. श्री नारायण शुक्ल
श्री लखीमपुर खीरी तारीख 21-07-1942
श्रीमान् मामाजी,
सादर प्रणाम! आपका पत्र मिला। देवी की बीमारी का हाल जानकर दु:ख हुआ। आपने अपने पत्र में जो कुछ भी लिखा है सो ठीक ही लिखा है। उसका क्या उत्तर दूं यह मेरी समझ में नहीं आता। परसों आपका पत्र मिला तभी से विचारों का एवं कर्तव्यों का तुमुल युद्ध चल रहा है। एक ओर तो भावना और मोह खींचते हैं तो दूसरी ओर प्राचीन ऋषियों हुतात्माओं और प्रुम्रषाओं की अतृप्त आत्माएं पुकारती हैं। आपके लिखे अनुसार पहले तो मेरा भी यही विचार था कि मैं किसी स्कूल में नौकरी कर लूंगा तथा साथ ही वहां का संघ-कार्य भी करता रहूंगा। यही विचार लेकर मैं लखनऊ आया था। परंतु लखनऊ में आज कल की परिस्थिति तथा आगे कार्य का असीम क्षेत्र देखकर मुझे यही आज्ञा मिली कि बजाय एक नगर में कार्य करने के एक जिले में कार्य करना होगा। इस प्रकार सोते हुए हिन्दू समाज से मिलने वाले कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा करना होता है। सारे जिले में काम करने के कारण न तो एक स्थान पर दो-चार दिन से अधिक ठहरान संभव है और न किसी भी प्रकार की नौकरी। संघ के स्वयंसेवक के लिए पहला स्थान समाज और देशकार्य का ही रहता है और फिर अपने व्यक्तिगत कार्य का। अत: मुझे अपने समाजकार्य के लिए जो आज्ञा मिली थी उसका पालन करना पड़ा।
मैं यह मानता हूं कि मेरे इस कार्य से आपको कष्ट हुआ होगा। परंतु आप जैसे विचारवान एवं गंभीर पुरुषों को भी समाजकार्य में संलग्न रहते देखकर कष्ट हो तो फिर समाजकार्य करने के लिए कौन आगे आयेगा। शायद संघ के विषय में आपको अधिक मालूम न होने के कारण आप डर गए हैं। इसका काग्रेस से किसी प्रकार का संबंध नहीं है, और न अन्य किसी राजनीतिक संस्थाओं से। यह आजकल की किसी राजनीति में भाग भी नहीं लेता है, न यह सत्याग्रह करता है और न जेल जाने में ही विश्वास रखता है। न यह अहिंसावादी है और न हिंसावादी ही। इसका तो एकमात्र कार्य हिन्दुओं में संगठन करना है। इसी कार्य को यह लगातार 17 साल से करता आ रहा है। इसकी सारे भारतवर्ष में 1000 से ऊपर शाखाएं तिाा 2 लाख से अधिक स्वयंसेवक हैं। मैं अकेला ही नहीं परंतु इसी प्रकार 300 से ऊपर कार्यकर्ता हैं जो एकमात्र संघकार्य ही करते हैं। सब शिक्षित और अच्छे घर के हैं। बहुत से बीए, एमए और एलएलबी पास हैं। ऐसा तो कोई शायद ही होगा जो कम से कम हाई स्कूल न हो और वह भी इने-गिने लोग। इतने लोगों ने अपना जीवन केवल समाजकार्य के लिए क्यों दे दिया, इसका एकमात्र कारण यही है कि बिना समाज की उन्नति हुए व्यक्ति की उन्नति संभव नहीं है। व्यक्ति कितना भी क्यों न बढ़ जाए, जब तक उसका समाज उन्नत नहीं होता तब तक उसकी उन्नति का कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि हमारे यहां के बड़े-बड़े नेताओं का दूसरे देशों में जाकर अपमान होता है। हरिसिंह गौड़ जो कि हमारे यहां के इतने बड़े व्यक्ति हैं, वे जब इंगलैंड के एक होटल में गये तो वहां उन्हें ठहरने का स्थान नहीं दिया गया क्योंकि वे भारतीय थे। हिन्दुस्तान में ही आप हमारे बड़े से बड़े आदमी को ले लीजिए। क्या उसकी वास्तविक उन्नति है? मुसलमान गुंडे बड़े से बड़े आदमी की इज्जत को पल भर में खाक में मिला देते हैं क्योंकि वे स्वयं बड़े से बड़े हो सकते हैं पर जिस समाज के वे अंग हैं वह तो दुर्बल है, अध:पतित है, शक्तिहीन और स्वार्थी है। हमारे यहां हर एक व्यक्तिगत स्वार्थों में लीन है तभी अपनी ही अपनी सोचता है। नाव में छेद हो जाने पर अपने अंगोछे को आप कितना भी ऊंचा क्यों न उठाइये वह तो आपके साथ डूबेगा ही। आज हिन्दू समाज की यही हालत है। घर में आग लग रही है परंतु हरेक अपने-अपने घर की परवाह कर रहा है, उस आग को बुझाने का किसी को भी ख्याल नहीं है। क्या आप अपनी स्थिति को सुरक्षित समझते हैं? क्या आपको विश्वास है कि मौका पड़ने पर समाज आपका साथ देगा? नहीं, इसलिए नहीं कि हमारी समाज संगठित नहीं है। हम दुर्बल हैं इसलिए हमारी आरती और बाजों पर लड़ाइयां होती हैं। इसलिए हमारी मां-बहनों को मुसलमान भगाकर ले जाते हैं, अंग्रेज सिपाही उन पर निश्शंक होकर दिन दहाड़े अत्याचार करते हैं और हम अपनी बड़ी भारी इज्जत का दम भरने वाले समाज में ऊंची नाक रखने वाले अपनी फूटी आंखों से देखते रहते हैं। हम उसका प्रतिकार नहीं कर सकते हैं। अधिक हुआ तो इस सनसनीखेज मामले की खबर अखबारों में दे दी या महात्मा जी ने हरिजन में एक लेख लिख दिया। क्यों? क्या हिन्दुओं में ऐसे ताकतवर आदमियों की कमी है जो उन दुष्टों का मुकाबला कर सकें? नहीं, कमी तो इस बात की है कि किसी को विश्वास नहीं है और कि वह कुछ करे तो समाज उसका साथ देगा। सच तो यह है कि किसी के हृदय में इन सब कांडों को देखकर टीस ही नहीं उठती है। जब किसी मनुष्य के किसी अंग को लकवा मार जाता है तो वह चेतनाशून्य हो जाता है। इसी भांति हमारे समाज को लकवा मार गया है। उसको कोई कितना भी कष्ट क्यों न दे पर महसूस ही नहीं होता। हरेक तभी महसूस करता है जब चोट उसके सिर पर आकर पड़ती है। आज मुसलमानों के आक्रमण सिंध में है। हमको उनकी परवाह नहीं परंतु यदि वे ही हमारे घर में होने लग जाए तब तो खलबली मचेगी और होश तो तब आयेगा जब हमारी बहू-बेटियों में से किसी को वे उठाकर ले जाएं। फिर व्यक्तिगत रूप से यदि कोई बड़ा हो भी गया तो उसका क्या महत्व? वह तो हानिकर ही है। हमारा सारा शरीर का शरीर ही मोटा होता जाय तो ठीक है परंतु यदि खाली पैर ही सूजकर कुप्पा हो गया और वकी शरीर वैसा ही रहा तो वह तो पील-पांव रोग हो जाएगा। यही कारण है कि इतने कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत आकांक्षाओं को छोड़कर अपने आपको समाज की उन्नति में ही लगा दिया है। हमारे पतन का कारण हममें संगठन की कमी ही है। बाकी बुराइयां अशिक्षा आदि तो पतित अवस्था के लक्षण मात्र ही हैं। इसलिए संगठन करना ही संघ का ध्येय है। इसके अतिरिक्त और यह कुछ भी नहीं करना चाहता है। संघ का क्या व्यावहारिक रूप है, आप यदि कभी आगरा आएं तो देख सकते हैं। मेरा ख्याल है कि एक बार संघ के रूप को देखकर तथा उसकी उपयोगिता समझने के बाद आपको हर्ष ही होगा कि आप के एक पुत्र ने भी इसी कार्य को अपना जीव-कार्य बनाया है। परमात्मा ने हम लोगों को सब प्रकार समर्थ बनाया है क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते हैं? उस कार्य के लिए, जिसमें न मरने का सवाल है न जेल की यातनाएं सहन करने का, नखों मरना है और न नंगा रहना है। सवाल है केवल चंद रुपए के न कमाने का।
वे रुपए जिनमें निजी खर्च के बाद शायद ही कुछ बचता है। रही व्यक्तिगत नाम और यश की बात, सो तो आप जानते ही हैं कि गुलामों का कैसा नाम और क्या यश? फिर मास्टरों की तो इज्जत ही क्या है? आपने मुझे शिक्षा-दीक्षा देकर सब प्रकार से योग्य बनाया, क्या अब मुझे समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? जिस समाज के हम उतने ही ऋणी हैं। यह तो एक प्रकार से त्याग भी नहीं है, विनियोग है। समाज रूपी भूमि में खाद देना है। आज हम केवल फसल काटना जानते हैं पर खेत में खाद देना भूल गये हैं। अत: हमारा खेत जल्द ही अनुपजाऊ हो जायेगा। जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिए राम ने वनवास सहा, कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाये, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्वार्पण कर दिया, गुरुगोविंद सिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दीवारों में चुने गये, क्या उसके खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का, झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं? आज समाज हाथ पसारकर भीख मांगता है और यदि हम समाज की ओर से, ऐसे ही उदासीन रहे तो एक दिन वह आयेगा जब हमको वे चीजें जिन्हें हम प्यार करते हैं, जबर्दस्ती छोड़नी पड़ेंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आप संघ की कार्य प्रणाली से पहले से परिचित होते तो आपके हृदय में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं उठती। आप यकीन रखिए कि मैं कोई ऐसा कार्य नहीं करूंगा जिससे कोई भी आपकी ओर अंगुली उठाकर देख भी सके। उलटा आपको गर्व होगा कि आपने देश और समाज के लिए अपने एक पुत्र को दे दिया है। बिना किसी दबाव के केवल कर्तव्य के ख्याल से आपने मेरा लालन-पालन किया, अब क्या अंत में भावना कर्तव्य को घर दबायेगी। अब तक आपका कर्तव्य अपने परिवार तक सीमित था अब वही कर्तव्य सारे हिन्दू समाज के प्रति हो गया है। यह तो केवल समय की प्रगति के साथ-साथ आपके कर्तव्य का विकास मात्र ही है। भावना से कर्तव्य सदैव ऊंचा रहता है। लोगों ने अपने इकलौते बेटों को सहर्ष सौंप दिया है फिर आपके पास एक स्थान पर तीन-तीन पुत्र हैं। क्या उनमें आप एक को भी समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? मैं जानता हूं कि आप 'नहीं' नहीं कहेंगे।
आप शायद सोचते होंगे कि यह क्या उपदेश लिख दिया है। न मेरी इच्छा है, न मेरा उद्देश्य ही यह है। इतना सब इसलिए लिखना पड़ा कि आप संघ से ठीक-ठीक परिचित हो जाएं। किसी भी कार्य की भलाई-बुराई का निर्णय उसकी परिस्थितियां और उद्देश्य को देखकर ही तो किया जाता है। पं. श्यामनारायण मिश्र जिनके पास मैं यहां ठहरा हुआ हूं वे स्वयं यहां के प्रमुख एडवोकेट हैं तथा बहुत ही माननीय तथा जिम्मेदार व्यक्तियों में से हैं, उनकी संरक्षता में रहते हुए मैं कोई भी गैरजिम्मेदारी का कार्य कर सकूं, यह कैसे मुमकिन है।
शेष कुशल है। कृपापत्र दीजियेगा। मेरा तो ख्याल है कि देवी का एलोपैथिक इलाज बंद करवा के होमियोपैथिक इलाज करवाइये। यदि आप देवी का पूरा वृत्त और बीमारी तथा संपूर्ण लक्षण भेजें तो यहां पर बहुत ही मशहूर होमियोपैथ हैं, उनसे पूछकर दवा लिख भेजूंगा। होमियोपैथ इलाज की यदि दवा ठीक लग गई तो बिना खतरे के इस प्रकार ठीक हो सकता है। भाई साहब व भाभी जी को नमस्ते, देवी व महादेवी को स्नेह। पत्रोत्तर दीजिएगा। भाई साहब तो कभी पत्र लिखते ही नहीं।
आपका भांजा
दीना
टिप्पणियाँ