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पाञ्चजन्य
वर्ष: 13 अंक: 6
24 अगस्त ,1959
''क्या 15 अगस्त, 1959 'नेहरू युग' की समाप्ति का श्रीगणेश करने के लिए आया है? क्या सचमुच 15 अगस्त, 1947 से 15 अगस्त, 1959 तक के एक 'तप' (12 वर्ष) भारतीय इतिहास के पृष्ठों में 'नेहरू-युग' के नाम से ही स्मरण किया जाएगा? तब तो इसका अर्थ है कि गत वर्ष नागपुर अधिवेशन के पश्चात् जो यह वातावरण बनाया गया था और जिसका निर्माण करने में स्वयं पं. नेहरू ने भी अपना योगदान दिया था, कि1920 से नागपुर अधिवेशन से गांधी युग का श्रीगणेश हुआ और 1959 के नागपुर अधिवेशन में उसका अंत होकर 'नेहरू-युग' का श्रीगणेश हो गया, एक मिथ्या भ्रम सिद्ध होगा। तो 'नेहरू-युग' में भारत ने क्या पाया, क्या खोया?
गांधी भक्ति का पुनर्जागरण : प्रश्न सभी महत्वपूर्ण हैं, विचारणीय हैं, किन्तु इस छोटे से लेख में उन सबका विचार करना संभव नहीं। यह एक प्रकट सत्य है कि गत 12 वर्षों में राष्ट्र जीवन पर पं. नेहरू बुरी तरह छाये रहे हैं, भारत के प्रत्येक पग, प्रत्येक नीति, प्रत्येक निर्णय पर पं. नेहरू की छाप लगी रही है और प्रत्येक सफलता का श्रेय उन्हें दिया गया है किंतु यह भी उतना ही स्पष्ट है कि पुरानी पीढ़ी के नेताओं और विचारकों में गांधी जी के आदर्शों के प्रति श्रद्धा पहले से अधिक उमड़ पड़ी है और वे यह कहते सुने जा रहे हैं कि गत 12 वर्षों में राष्ट्र को गांधी के आदर्शों के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल चलाया गया है। विश्लेषण करने पर यह भी समझ में आ सकता है कि इस पुन: जाग्रत गांधी-भक्ति के मूल में नेहरू-विरोधी भाव अधिक विद्यमान है और जैसा कि श्री क.मा. मुंशी ने 9 अगस्त को दिल्ली में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि 'हेमलेट (नेहरू) को सही रास्ते पर लाने के लिए पिता (गांधी) का भूत दिखलाना अत्यंत आवश्यक है।'
खुला विरोध प्रारम्भ: नेहरू भक्ति समाप्त ही नहीं हो रही है उन पर खुले आक्रमण भी प्रारभ हो गए हैं। पहले जहां पं. जी का प्रत्येक शब्द ब्रह्म वाक्य माना जाता था, अब उनके मुख से निकलने वाले गलत उद्गारों को खुली चुनौती दी जाती है; और उन्हें विवश होकर क्षमा याचना करनी पड़ती है। उदाहरणार्थ, जस्टिस विवियन बोस के प्रति अपशब्दों का प्रयोग कर देने पर पं. जी का तीव्र विरोध हुआ और उन्हें सार्वजनिक लिखित क्षमा याचना करनी पड़ी, आर्य समाज को साम्प्रदायिक कह देने पर उन्हें पंजाब के एम.एल.सी. श्री वीरेन्द्र ने चुनौती दी और पं. जी को लिखित स्पष्टीकरण देना पड़ा। वे कम्युनिस्ट प्रचारवादी, जिन्होंने नीतिवश अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए पं. नेहरू की प्रशंसा को आकाश में बहुत ऊंचे उड़ा दिया था, उन्हें नीचे पटक देने को आतुर रहे हैं। लोकसभा में 7 अगस्त को कम्युनिस्टों के बहुत बुरी तरह हो-हुल्ला मचाने पर पं. जी ने बहुत विनम्र शब्दों में उनसे तीन बार शांत होने की बात को मानना तो दूर उन्हें उनके मुंह पर 'लोकतंत्र का हत्यारा' तक कह दिया। वे समाचार पत्र जो कुछ समय पूर्व नेहरूजी के सामने एक भी शब्द बोलना पाप समझते थे, अब उनके दोषों और नीतियों की मुंहतोड़ आलोचना करने लगे हैं। पुरानी पीढ़ी के अनेक नेता भी नेहरू जी की प्रत्येक भूल पर पर्दा डाल देने को ही राष्ट्र का कल्याण समझते थे अब कमर कसकर मैदान में उतर पड़े हैं। राष्ट्रपति ने तो विस्तृत लिखकर नेहरू युग की पोल और असफलताओं का पर्दाफाश कर ही दिया, … नेहरू जी स्वयं भी बहुत ही परेशान हो उठे हैं।
भारत में ईसाई स्थान स्थापित करने के षड्यंत्र
भारत में मुस्लिम समाज ही अकेला नहीं है जो मातृभूमि का खंडन कर स्वतंत्र इस्लामी राज्य की स्थापना के स्वप्न देखता है, बल्कि एक-दूसरा समाज भी है ईसाइयों का। इस समाज के अंदर भी कुछ तत्व ऐसे हैं जिनमें इस देश के कुछ हिस्से पर स्वतंत्र ईसाई स्थान की स्थापना की आकांक्षा तेजी से बढ़ रही है।
वास्तव में हम समाचार पत्रों को पढ़ते तो हैं, उनमें बहुत से समाचार रहते भी हैं, किन्तु वे इस ढंग से लिखे जाते हैं कि हम उनको ऊपर-ऊपर से पढ़कर यह नहीं जान पाते कि अमुक समाचार का भीतरी रहस्य क्या है? उदाहरणार्थ हम लोग समाचारपत्रों में बार-बार नागा समस्या के बारे में कुछ पढ़ते होंगे, किंतु उन्हें पढ़कर कल्पना बनती है कि नागा नाम का कोई पहाड़ी जिला है। वहां के निवासी पहाड़ी लोग हैं, वे नासमझ हैं, पिछड़े हुए हैं; उनके मन में कुछ न कुछ भ्रम पैदा हो गया है जिसके कारण वे सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर रहे हैं। किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। नागा-समस्या विशुद्ध ईसाई समस्या है।
नागा समस्या का असली रूप
यह आंदोलन और संघर्ष एक ही उद्देश्य से चल रहा है कि नागा पहाड़ के जिले का पूरा ईसाईकरण कैसे हो सके! यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि नागा पहाड़ नामक जिले के अंदर रहने वाले लोग मूलत: हिन्दू हैं। वे चोटियां लंबी-लंबी रखते हैं, शिव की पूजा करते हैं और बहुत अच्छे भले लोग हैं, परंतु उनके बीच कुछ ईसाई मिशनरी घुस गए। उन्होंने कुछ लोगों को ईसाई बनाया, कुछ लोगों को अच्छी प्रकार शिक्षित किया। कुछ पढ़ा-लिखाकर इनको इंग्लैंड ले गए, अमरीका ले गए। वहां उनको कुछ सिखाया-पढ़ाया। कुछ मंत्र दिया और ऐसे लोगों को तैयार करके उनके द्वारा इस आंदोलन का भी श्रीगणेश किया कि 'हम नागा लोग भारत से भिन्न हैं। हमारी संस्कृति अलग है।'
सबसे बड़ा वाद मानववाद
''हम पूंजीवाद और समाजवाद के चक्कर से मुक्त होकर मानववाद का विचार करेंे। मानव जाति के सभी अंगों का विचार करते हुए आर्थिक क्षेत्र में उत्पादन, वितरण एवं उपभोग के साधनों का संयोजन एवं प्रबंध करना चाहिए। इसके लिए विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था ही आवश्यक है। अर्थव्यवस्था के ऊपरी ढांचे में परिवर्तन करने से काम नहीं चलेगा यदि समाज के नागरिकों के विचारों में भी ठीक से परिवर्तन न लाया गया हो। कोई भी प्रणाली अच्छी या बुरी उसे चलाने वाले लोगों के चरित्र के कारण ही होती है। किसी भी व्यवस्था की त्रुटियों के कारण कोई आर्थिक संकट पैदा नहीं होता, वरन् उस व्यवस्था को चलाने वाले लोगों की त्रुटियों और दोषों के कारण ही मुख्यत: ऐसा संकट पैदा होता है और गहराता है।''—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-4, पृ. 48)
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