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जयपुर के पास हिंगोनिया पशु पुनर्वास केन्द्र में हजारों गायों के मरने के पीछे बड़ी वजह थी वहां के प्रशासन की लापरवाही। लेकिन संघ के स्वयंसेवक गो-सेवा में जुटे तथा स्थिति को और बिगड़ने नहीं दिया
जयपुर के निकट हिंगोनिया गोशाला (पशु पुनर्वास केन्द्र) में पिछले दिनों हजारों गायों की मौत का मामला मीडिया में छाया रहा। यहां उपजी अव्यवस्थाओं को विपक्ष ने सत्ता पक्ष के माथे मढ़ा। बात बढ़ी तो सत्ता पक्ष ने अपनी नाकामयाबी का ठीकरा प्रशासन के माथे जड़ दिया। वास्तव में घटना बड़ी थी। इन सबके बीच एक पहलू और भी था, जिसका कहीं जिक्र नहीं हुआ। वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की सेवा का, जो आपदा के बाद निष्काम भाव से गोशाला और गायों की देख-रेख में जुटे थे। घोर लापरवाही का पर्याय बन चुकी यह गोशाला स्वयंसेवकों के कठिन श्रम से चमक उठी। सेवा पाकर बीमार और निशक्त गायों में शक्ति आ गई। अब गायें न केवल ठीक ढंग से चारा-पानी ले रही हैं बल्कि आराम भी महसूस कर रही हैं। जयपुर से 20 किलोमीटर दूर स्थित है हिंगोनिया पशु पुनर्वास केन्द्र। सरकारी रिकॉर्ड में भले ही यह पशु पुनर्वास केन्द्र हो, लेकिन समाज में इसकी पहचान गोशाला के रूप में ही है, क्योंकि यहां दूसरे पशुओं की संख्या नगण्य है।
इस पुनर्वास केन्द्र में बाड़ों के रख-रखाव और सफाई का काम जयपुर नगर निगम ठेके पर कराता है। हुआ यूं कि समय पर भुगतान न मिलने से नाराज ठेका कर्मचारी जुलाई माह के अंत में 15 दिन की हड़ताल पर चले गए। इस दौरान गायों को न तो पर्याप्त चारा-पानी मिल पाया, न ही बाड़ों से गोबर उठ सका। बारिश होने से बाड़ों में पानी भर गया। गोबर और मिट्टी का अंबार दलदल में बदल गया और तीन-तीन फीट तक कीचड़ जमा हो गया। बीमारी, भूख और पानी के अभाव में निशक्त हो चुकी गायें दलदल में फंसकर दम तोड़ने लगीं। जब तक कोई स्थिति को समझ पाता, सैकड़ों गायें काल का ग्रास बन चुकी थीं।
केन्द्र में गायों के चारे-पानी और चिकित्सा सुविधाओं के लिए राज्य सरकार पारित करती है 24 करोड़ रु. सालाना। निगम यहां की साफ-सफाई ठेके पर कराता है
गायों की सेवा के लिए मौजूद 70 कर्मचारियोंमें 18 चिकित्सक और 40 नर्सिंगस्टाफ है
2002 में जयपुर के निकट खुले इस केन्द्र में इस वक्त रह रही हैं 8,000 गायें
गोशाला नहीं, पशु पुनर्वास केन्द्र है हिंगोनिया
जयपुर में आवारा पशुओं की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने हिंगोनिया में पशु पुनर्वास केन्द्र बनाया। वर्ष 2002 से जयपुर नगर निगम इसे संचालित करता है। वहीं पशुपालन विभाग की ओर से इसमें वेटरनरी अस्पताल चलाया जाता है। निगम की ओर से संचालित इस केन्द्र के लिए सालाना 24 करोड़ रु. का बजट पारित किया जाता है। पशुओं के चारे-पानी पर ही करीब 12 करोड़ रु. खर्च होते हैं। फिलहाल यहां 23 बाड़ों में करीब 8,000 गायों को रखा जा रहा है। निगम बाड़ों की सफाई और गायों को चारा-पानी देने का काम ठेकेदार से कराता है। गायों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए 18 पशु चिकित्सक, 40 नसिंर्ग स्टाफ समेत 70 लोग कार्यरत हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2012 में गायों की मृत्यु दर 7़ 09 प्रतिशत थी, जो 2016 में बढ़कर 11़ 31 प्रतिशत हो गई है।
पशु पुनर्वास केन्द्र होने के बावजूद इसका स्वरूप गोशाला जैसा ही है। अन्य पशुओं की तुलना में यहां गायें ही ज्यादा आती हैं। इसका बड़ा कारण यह है कि लोग दूसरे पशुओं के बेकार और बूढ़े होने पर उन्हें कसाइयों को बेच देते हैं। जबकि गायों के मामले में कानूनी अड़चन और धार्मिक आस्था के चलते ऐसा नहीं कर पाते। लिहाजा गायों को मरने के लिए उनके हाल पर ही लावारिस छोड़ दिया जाता है। राज्य सरकार के गोपालन मंत्री प्रभुलाल सैनी बताते हैं-''हमारे समाज की विडंबना है जब तक गाय दूध देती है, उसे रखते हैं। जैसे ही गाय ने दूध देना बंद किया, वह बूढ़ी या बांझ हुई, तो उसे खुला छोड़ देते हैं। ऐसे में गायें भूख के कारण प्लास्टिक खाना शुरू कर देती हैं। कई बार सड़क दुर्घटना में गायें अपाहिज तक हो जाती हैं। पुनर्वास केन्द्र पर लाई जाने वाली अधिकतर गायें बीमार, कमजोर और कुपोषित होती हैं। कई बार समुचित उपचार के बाद भी गायों को बचाना मुश्किल होता है।''
स्वयंसेवकों ने संभाला मोर्चा
गोशाला में ऐसी विकट परिस्थितियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने एक बार फिर सेवा की मिसाल पेश की। घटना की जानकारी मिलते ही जयपुर प्रांत संघचालक डॉ़ रमेश अग्रवाल के नेतृत्व में स्वयंसेवकों के एक दल ने गोशाला का दौरा कर तत्काल सेवाकार्य शुरू करने का निर्णय लिया। घुटने तक कीचड़ में फंसी बीमार गायों को बाहर निकाला, उन्हें उपचार मुहैया कराया। लेकिन इतनी बड़ी गोशाला में एक दिन के श्रमदान से काम नहीं चल सकता था। इसलिए स्वयंसेवकों ने लंबे समय तक श्रमदान करने की योजना बनाई। संगठित श्रम से गोशाला का कायाकल्प होने लगा। गंदगी व कीचड़ से भरे बाड़े साफ होने लगे। स्वयंसेवकों ने 20 दिन तक पांच घंटे रोजाना परिश्रम किया और गोशाला का स्वरूप निखर आया।
प्रांत संघचालक डॉ. रमेश अग्रवाल कहते हैं-''इस घटना ने पूरे देश के गोभक्तों को आहत किया है। प्रशासनिक चूक और घोर लापरवाही से ऐसी स्थितियां बनी थीं। भविष्य में ऐसे हालात पैदा न हों, इसके लिए शासन- प्रशासन को बेहतर इंतजाम करने चाहिए।''
सेवा कायोंर् को लेकर स्वयंसेवक कितने संजीदा रहते हैं, इस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्र प्रचार प्रमुख महेन्द्र सिंहल कहते हैं, ''आपदा के समय स्वयंसेवक स्वभाव से सेवा कार्य में जुटते रहे हैं। वे बयानबाजी के बजाय प्रत्यक्ष काम करने में विश्वास करते हैं। गोशाला में गायों को सेवा की दरकार थी। स्वयंसेवकों ने फैसला किया और सेवा में जुट गए।'' उन्होंने किसी राजनीतिक दल का नाम लिए बगैर कहा कि वास्तव में जो लोग बयानवीर थे, वे अपने कार्यकर्ताओं से गायों की सेवा करने की अपील करते तो गोशाला के हालात जल्द सामान्य होने में मदद मिलती व कुछ गायों की जान बच जाती।
गोशाला में सेवाकार्य करने वाले स्वयंसेवक सुभाष धमनिया अपने अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि गायों की मौत की खबर से पता चला कि अभी कई गायें कीचड़ में फंसी हैं। वहां सेवाकार्य में जाना है, शाखा पर योजना बनी और हम लोग गोशाला पहुंचकर सेवाकार्य में जुट गए।
गोशाला में संचालित पशु चिकित्सालय में आईसीयू भी है। घायल और बीमार पशु यहां बड़ी संख्या में लाए गए। संघ से जुड़े जितेन्द्र कश्यप बताते हैं कि उस दौरान स्वयंसेवकों ने आईसीयू में चिकित्सकों का भी सहयोग किया। पुनर्वास केन्द्र के प्रभारी डॉ. हरेन्द्र सिंह के मुताबिक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने बड़ी लगन से सेवा कार्य किया। करीब 20 दिन तक प्रतिदिन संघ के लोग आए और बाड़ों की सफाई, गायों को चारा-पानी देने और उनकी देखभाल करने को काम किया। इनके सेवा कार्य से केन्द्र को काफी मदद मिली है।
राजनीतिक दल जुटे कीचड़ उछालने में
गायों की मौत का मामला जब मीडिया में उछला तो समाज की ओर से मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आईं। राजनीतिक दलों में कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी पार्टियां भाजपा सरकार पर हमला बोलने में जुट गईं। नेता गोशाला का दौरा कर मरणासन्न गायों के साथ फोटो खिंचवाकर मीडिया में बयानबाजी करते रहे। राजनीतिक दलों ने इसे मुद्दा बनाकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के अलावा कुछ नहीं किया। एक प्रतिक्रिया उन संवेदनशील स्वयंसेवकों की थी, जो राजनीतिक बयानबाजी में नहीं उलझना चाहते थे।
उन्हें राजनीतिक बयानबाजी का हश्र पहले से ही पता था। उन्होंने विचार किया कि तत्काल क्या संभव है और क्या जरूरत है। इसी अनुसार अपनी योजना बनाकर वे कथनी और करनी को एकाकार करने में जुट गए। बीस दिन की मेहनत का सुखद परिणाम सामने आया। हकीकत में स्वयंसेवकों की भांति अगर अन्य लोग भी गोशाला पहुंचकर सुधार कार्य में जुट गए होते तो स्थिति जल्दी सुधर सकती थी।
डॉ. ईश्वर बैरागी
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