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करीब दो माह से जारी कर्फ्यू के बीच घाटी में सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का दौरा एक महत्वपूर्ण घटना है। ज्यादातर लोग मान रहे हैं कि इस दौरे का हासिल कुछ नहीं और तमाम कसरत का नतीजा शून्य रहा है। परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। भले ही हुर्रियत को पक्षकार बनाने वाले को खुद हुर्रियत द्वारा ही दुत्कारे जाने के बाद उनकी शर्मिंदगी छिपाए न छिप रही हो, लेकिन सच यह है कि बंद पड़े दरवाजों पर आहिस्ता से दी गई इस दस्तक ने व्यर्थ में खड़े किए जाने वाले एक बड़े हल्ले-गुल्ले को दबा दिया है। शांति की पैरोकारी में अशांति के अंशधारकों को शामिल करने का प्रयास चाहे जिस मंशा से था, इसकी निष्फलता ने जता दिया है कि अब सभी राजनीतिक दलों को नई दिशा में और नई तरह से सोचना होगा। घाटी की स्थितियां वास्तव में राजनीतिक पहल से ही बदली जा सकती हैं किंतु पीडीपी अध्यक्ष और राज्य की मुखिया महबूबा मुफ्ती द्वारा आमंत्रित किए जाने के बावजूद अपने खोल में घुसे रहने वाले हुर्रियत नेताओं की मुद्राओं ने इस राजनीतिक पहल के मायने बदल दिए हैं।
हुर्रियत द्वारा प्रतिनिधिमंडल का तिरस्कार सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि कश्मीर के संदर्भ में खास तौर पर रेखांकित की जाने वाली बात है। वे किसके साथ हैं और किससे दूर? ऊपरी तौर पर देखें तो यह पूरा प्रकरण हुर्रियत नेताओं द्वारा उन सेकुलर वामपंथी पक्षकारों की उपेक्षा का है जो सदा से उन्हें कश्मीर मामले में वार्ता का महत्वपूर्ण पक्ष बताते हुए दिन-रात एक करते रहे। अपने हिमायतियों की दिनदहाड़े जगहंसाई का यह मामला जितना चौंकाऊ है उससे ज्यादा यह विश्लेषण की मांग करता है।
यदि दरवाजे खुल जाते, अलगाववादी बाहर निकल भी आते, मुस्कराहटों का लेन-देन हो ही जाता, गलबहियां भी पड़ जातीं, तो क्या गारंटी कि अशांत घाटी में शांति लौट ही आती?
दरअसल, यह 'गारंटी' ही अलगाववादियों के गले की फांस है। घाटी की वर्तमान स्थिति और उथल-पुथल का हाल यह है कि कोई भी पक्ष यह 'गारंटी' लेने का दावा नहीं कर सकता। न सरकार, न अलगाववादी। पत्थरबाजों की टोलियां अब उन किशोरों की अगुआई में उत्पात मचा रही हैं जिनके लिए यह सब पाकिस्तानपरस्ती या आजादी की बहस नहीं, इसकी बजाय ताबड़तोड़ पथराव और सटीक निशानेबाजी से जुड़ा खेल है। कुछ लोगों को इस बात पर हैरानी या फिर आपत्ति भी हो सकती है, लेकिन यकीन मानिए, सच यही है। बुरहान वानी की मौत के बाद युवाओं को आगे रख अलगाववादियों ने जो खेल शुरू किया था वह अब उनके हाथों से खिसक चुका है। हुर्रियत नेता यह बात बखूबी जानते हैं, लेकिन चाहते हैं कि घाटी में उनके असर का भरम बना रहे। दरअसल, शांति की गारंटी के इसी भरम को वे दशकों से भुनाते आए हैं। इसलिए ऐसी वार्ता की कोई भी मेज उन्हें डराती है जहां उनके असर को कसौटी पर परखा जाएगा। दरवाजों पर इस एक दोस्ताना दस्तक ने हुर्रियत नेताओं को दहला दिया है। मानना चाहिए कि इसके साथ ही उन तर्कों के लिए भी दरवाजे बंद हो गए हैं जो भारतीय मामलों का हल पाकिस्तानी दृष्टिकोण से निकालने की पालेबंदी दिल्ली से श्रीनगर तक किया करते थे।
फिर सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का हासिल क्या… शून्य, खाली हाथ? फिर समस्या का हल क्या है?
दरअसल, यह शून्य नहीं, बल्कि गलतफहमियों के गड्ढे भरने का संकेत है। इस बात का संकेत कि समस्या के निदान के लिए नई दिशा में मुड़ना ही होगा। अलगाववादियों के बिना और संविधान के पहरुओं के साथ। यह नई दिशा विराट सहमति की है। उस सहमति की जहां कश्मीर मसले पर सिर्फ अलगाववादी ही सबसे बड़े चिंतक, भागीदार और पीडि़त नहीं हैं, बल्कि अशांति और उथल-पुथल के इस लंबे दौर में जिन परिवारों के जवानों और पुलिसकर्मियों ने इस आग को बुझाने के लिए अपनी प्राणाहुति दी, उनकी पीड़ाएं भी इस मुद्दे के हल में शामिल हैं। जम्मू और लद्दाख, गुज्जर और बक्करवाल, शिया और सूफी भारतीय राजनीति के अलग-अलग धड़े और विचारधाराएं, यह सबके लिए एकमन होकर सोचने की घड़ी है।
इस चिंतन और निर्णय की प्रक्रिया में उनकी कोई जगह नहीं हैं जिनके लिए भारतीय संविधान महत्व नहीं रखता। लेकिन हर उस पक्ष के लिए भरपूर जगह है जिन्होंने इस संविधान से जान पाई है। जो राजनीतिक दल भारतीय संविधान की पोषक-निर्देशक छांह में मजबूत हुए हैं, जिनके निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने इस संविधान के सम्मान की शपथ ली है। यह उन सबके बीच सहमति की घड़ी है। अपने लोकतंत्र के सातवें दशक में भारतीय राजनीतिक दल इस सहमति और परिपक्वता का प्रदर्शन कर भी रहे हैं। चाहे बात अलगाववादियों का दरवाजा खटखटाने की रही हो या जीएसटी पर एक मन बनाने की। जहां मनमुटाव छोड़ना जरूरी है, देश अब उन मुद्दों पर ठिठकता भले हो, थमता नहीं। अलग रहने के हामी बंद दरवाजों के पीछे अलग खड़े हैं। दरवाजे से लौटते कदमों को नई दिशा लेनी होगी क्योंकि इस दिशा में ही भारतीय राजनीति का नया सोपान है।
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