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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित सुभाष चंद्र बोस की साथी रहे कर्नल हबीबुर्रहमान का आलेख:-
कर्नल हबीबुर्रहमान
कुछ ही सेकेंड के अंदर हवाई जहाज जमीन से टकराया। हवाई जहाज के आगे का हिस्सा टुकड़े-टुकड़े हो गया और उसमें आग लग गई। नेताजी ने मेरी ओर घूम कर देखा। मैंने कहा कि आगे से निकलिए, पीछे से रास्ता नहीं है। हम अंदर घुसने के दरवाजे से बाहर नहीं निकल सकते थे, क्योंकि उसके आगे दुनिया भर का सामान पड़ा था। नेताजी आग के उस पार हो गए। वे किसी न किसी तरह तेजी से उसमें से निकल गए। मैंने भी इन्हीं झुलसती हुई लपटों में उनका अनुकरण किया। जैसे ही मैं बाहर निकला, मैंने उन्हें अपने से दस गज की दूरी पर खड़े देखा। वे उस समय पश्चिम की ओर देख रहे थे। उनके कपड़ों में आग लगी थी। मैं उनकी ओर दौड़ा और बड़ी कठिनाई से उनकी कमर की पेटी खोली। उनकी पतलून को आग नहीं लगी थी, उसे उतारना आवश्यक नहीं था। वे उस समय स्वेटर नहीं पहने थे। वे उस समय खाकी ड्रिल (वर्दी) पहने थे। मैंने उन्हें जमीन पर लिटा दिया। तब देखा कि उनके सिर में गहरी चोट है-शायद बाईं ओर उनका चेहरा आगे से झुलस गया था और उनके बालों में आग लग गयी थी। उनके सिर का घाव लंबा था, लगभग चार इंच होगा। मैंने रूमाल बांध कर रक्तस्राव को रोकने का प्रयास किया। जहां तक मेरी बात थी, मेरे दोनों हाथ बुरी तरह चल गए थे। जब मैं आग से बाहर आया, मेरे चेहरे का दायां हिस्सा जल चुका था और मुझे अपने सिर तथा घुटने में भी चोट लगी दिखाई दी। दोनों जगह से खून बह रहा था। सिर की चोट उस टक्कर का परिणाम थी, जो जहाज के टूटते समय मुझे लगी थी। मेरे कपड़ों को आग नहीं लगी थी। नेताजी के कपड़े उतारने के प्रयास में मेरे हाथ बुरी तरह जल गए थे। दस वर्ष के बाद भी मेरे दोनों हाथों पर जली हुई चमड़ी के निशान विद्यमान हैं। आगे चलकर मेरे नाखून भी जाते रहे। बाएं हाथ के अंगूठे का नाखून अभी भी ठीक-ठीक नहीं आया है।
'देश के मेरे भाइयों को बताना'
जब मैंने नेताजी को जमीन पर लिटाया, उस समय भी उनके पास ही खड़ा रहा। मुझे बड़ी वेदना हो रही थी और बदन में जान नहीं रही थी। मैंने देखा कि कोई बीस गज की दूरी पर एक जापानी मुसाफिर के बदन से खून बह रहा है और वह कराह रहा है। उसी समय नेताजी ने मुझसे पूछा—''आपको ज्यादा चोट तो नहीं लगी?''
''मुझे लगता है कि मैं ठीक हो जाऊंगा।''
अपने बारे में उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि वे नहीं बचेंगे। जब मैंने कहा, नहीं-नहीं, ऐसा न होना कहिए। आप ठीक हो जाएंगे। खुदा आपकी हिफाजत करेगा।
उन्होंने कहा—मुझे ऐसा नहीं लगता। वे आगे बोले—जब अपने देश वापस जाएं, तो देश के मेरे भाइयों को बताना कि मैं अंतिम सांस तक देश की आजादी के लिए लड़ता रहा हूं। वे स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखें। भारत जरूर आजाद होगा। उसको कोई गुलाम नहीं रख सकता।
अन्य वक्तव्य
डा. योशिमी, जिन्होंने नेताजी की परीक्षा एवं चिकित्सा की थी, ने बताया—
मैंने देखा कि उनका सारा शरीर बुरी तरह से जला था और उसका रंग राख के समान भूरा-भूरा सा हो गया था। उनके दिल पर भी जलने के निशान थे। मुंह सूजा हुआ था। मेरे हिसाब से उनकी जलन बहुत ही भयानक थी…भयानकतम! उनकी आंखें भी सूजी थीं। देख सकते थे, लेकिन आंखें खोलने में तकलीफ होती थी। जिस समय वे अस्पताल में भर्ती किए गए, उस समय वे होश में थे। उन्हें बुखार था। उनकी नब्ज की गति प्रति मिनट 120 थी। उनके दिल की स्थिति बड़ी नाजुक थी।
शाम को सात-साढ़े सात बजे के आस-पास नेताजी की हालत बिगड़ने लगी। मैंने दौड़कर नेताजी को इंजेक्शन दिये। उसके बावजूद उनके दिल की गति और नब्ज नहीं संभली। धीरे-धीरे उनकी जीवनगति मंद होती गई। आठ बजते-बजते नेताजी अंतिम सांस ले चुके थे। उनका देहावसान होते ही, जितने भी जापानी वहां उपस्थित थे, सभी उठ खड़े हुए और नेताजी को सलामी दी।
मेजर नागातोमो का बयान
मेजर नागातोमो लिखते हैं—दूसरे दिन प्रात:काल आठ बजे के लगभग मैं कर्नल हबीबुर्रहमान को लेने अस्पताल गया। मैं अस्पताल मोटर गाड़ी से गया और जहां तक मुझे याद है, उस समय अनुवादक भी मेरे साथ था। श्मशान स्थल पहुंच कर मैंने दाह-गृह की चाबी से उसे खोला। उसमें से लौह-पट को बाहर खींचा। अपने सैनिक प्रधान कार्यालय से चलते समय मैंने अपने साथ लकड़ी का एक बक्सा ले लिया था। जब हमने उस लौह-पटल को, जिस पर अर्थी रखी थी, बाहर खींचा तो हमने देखा कि यद्यपि सारा शरीर जल चुका था, तो भी उसका ढांचा ज्यों का त्यों बना था। बौद्ध प्रथा के अनुसार मैंने सर्वप्रथम हंसली की एक अस्थि उठाई और उसे बॉक्स में रख दिया। तब मैंने शरीर के हर हिस्से से एक-एक अस्थि ली और बक्से में रख दी। कर्नल हबीबुर्रहमान ने भी मेरा अनुकरण किया। इस प्रकार सारा बक्सा भर गया। बक्से के ढक्कन को बंद कर कीलें जड़ दी गई थीं। लेकिन अब मुझे याद नहीं कि कीलें उसी समय जड़ दी गई थीं या मंदिर में ले जाने के बाद जड़ी गई थीं। बंद बक्सा एक सफेद कपड़े में लपेट कर कर्नल हबीबुर्रहमान की गर्दन से बांध दिया गया था। हम मोटर गाड़ी से ही पश्चिमी होंगजी मंदिर गये। उस दिन मंदिर में विशेष पूजा की गईं।
श्री नाकामूरा (जो नेता जी के सहायतार्थ अनुवादक थे) लिखते हैं-इस सारे समय में शिकायत या कराहने का एक शब्द भी नेता जी के मुंह से नहीं निकला। इसी कमरे के दूसरे कोने में पड़े हुए दूसरे जापानी सैनिक दर्द के मारे कराह रहे थे और चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे कि इस कष्ट को सहने देने की अपेक्षा उन्हें मार दिया जाए। नेताजी की शांत मुद्रा हम सबको चकित किये हुए थी।
नाकामूरा का बयान
श्मशान स्थल पर पहुंच कर सैनिकों ने अर्थी को उठाया और दाह-गृह के पास ले गये। श्मशान स्थल एक बड़ा हाल था। उसके बीचोंबीच दाह-गृह था। हाल संभवत: 16 फुट लंबा तथा 16 फुट चौड़ा था। दरवाजे से दाह-गृह तक सैनिक अर्थी को अपने कंधों पर ले गये और अब हम सब जो अभी तक हाल के बाहर खड़े थे, भीतर गये। आगे-आगे कर्नल रहमान थे। पीछे-पीछे मैं था। हम लोगों के पीछे 5 लोग और थे। हम दाह-गृह के सामने खड़े हुए। वहां खड़े होकर हम सबने सलामी दी। अभिवादन कर चुकने पर हम दाह-गृह के पीछे की ओर गये, जहां बौद्ध पुजारी धूपबत्ती लिए खड़े थे। वे कर्नल रहमान के हाथ में एक धूप बत्ती देना चाहते थे। लेकिन क्योंकि कर्नल रहमान पकड़ नहीं सकते थे, इसलिए मैंने एक बत्ती लेकर उनके हाथों में रख दी। दूसरी धूपबत्ती मैंने ली और बाद में सभी ने ऐसा ही किया। जब हम श्मशान स्थल से बाहर आये, तो श्मशान स्थल के अधिकारी ने कहा कि आप कल दोपहर को अस्थि चयन के लिए आयें।
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