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इतिहास के पन्नों से
पाञ्चजन्य, वर्ष: 14 अंक: 3
3 अगस्त ,1959
केरल का आंखों देखा हाल-2
श्री क.मा. मुंशी
(गतांक से आगे)
गृहमंत्री श्री अच्युत मेनन के साले श्री राघवन त्रिचूर में एक प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट श्री कोराथू के पास पहुंचे और उनसे एक कम्युनिस्ट के विरुद्ध चल रहे मामले को समाप्त करने की मांग की। मजिस्ट्रेट ने इस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया और कहा कि उन्हें न्यायालय के बीच हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। तब श्री राघवन ने उसी स्थल पर उत्तर दिया कि यदि आपने सरकार की इच्छाओं का पालन नहीं किया तो आपका स्थानांतरण करा दिया जाएगा। अगले ही प्रात: तार द्वारा श्री कोराथूू मजिस्ट्रेट के अधिकारों से वंचित कर दिए गए और रेवेन्यू अधिकारी बनाकर दूसरे स्थान पर भेज दिए गए।
पुलिस की गोली-वर्षा का उद्देश्य अपराध को रोकना नहीं तो गैर कम्युनिस्टों को आतंकित करना होता है। पार्टी के एजेण्ट पुलिस की गाडि़यों में पुलिस के साथ बैठकर गैर कम्युनिस्ट ग्रामों पर आक्रमण करने के लिए जाते हैं। विशेषतया उन ग्रामों में जहां बहुसंख्या ईसाइयों की है।
इस मुद्दे को और स्पष्ट करने की दृष्टि से निम्न उदाहरण को लीजिए। 3 जुलाई की प्रात: चेरियाथुरा ग्राम, जो त्रिवेन्द्रम से तीन मील दूर स्थित है, से कुछ महिलाएं त्रिवेन्द्रम के कलक्टरी कार्यालय पर धरना देने के लिए गईं। दोपहर के लगभग एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के नेतृत्व में पुलिस उस ग्राम में आ धमकी और उसने अपना पागलपन प्रारम्भ कर दिया। उसने चारों ओर अंधाधुंध गोलियां चलाना प्रारंभ कर दिया ताकि एक फर्लांग के क्षेत्रफल में जो भी सामने आ जाए, वही गोली का शिकार बन सके। यहां तक कि गोलियां चर्च की दीवारों से भी टकराईं। प्रत्येक दिशा में बौखलाकर भागती हुई पुलिस ने एक गर्भवती स्त्री, जो कुएं से पानी भर रही थी, को गोली से मार डाला। एक व्यक्ति जो अपनी झोपड़ी में सो रहा था और जिसकी हाल ही में शादी हुई थी,उसे खिड़की के द्वारा गोली चलाकर मार दिया गया। …
हाल में आतंकवाद की उस विधि में कुछ परिवर्तन कर दिया गया। पुलिस की सहायता लेने के बदले क्योंकि उसे भारत की जनता में विपरीत प्रतिक्रियाएं उत्पन्न होती हैं, कम्युनिस्ट पार्टी के किराए के गुण्डे ग्रामों में आतंक मचाए हुए हैं। जिन चार दिनों मैं केरल में रहा, मेरी यात्रा के दौरान सड़क के किनारे के ग्रामों से उस प्रकार की अनेक घटनाओं का हाल मुझे सुनाया गया। क्विलोन के निकटवर्ती ग्राम कल्लड़ में कई दिन तक मार-पीट चली। क्लेक्टर ने पुलिस की छत्रछाया में उक्त ग्राम का दौरा किया और वे जनता को शांत रहने का संक्षिप्त उपदेश देकर क्षणभर में गायब हो गए। वहां अनेक आदमियों को छुरा घोंपा गया। इनमें एक व्यक्ति तो घटनास्थल पर ही मर गया। तीसरे ग्राम में संघर्ष अभी भी चल रहा है। स्थिति कम्युनिस्टों एवं शेष जनता के बीच गृहयुद्ध तक पहुंच गई है।
राष्ट्रीय घटना चक्र
मुहर्रम के अवसर पर स्थान-स्थान पर मुसलमानों द्वारा दंगे।
मुस्लिम लीग का गड़ा मुर्दा पुन: जिंदा न होने दें-
होली के अवसर पर उ.प्र. के विभिन्न स्थानों में, रामनमवी के अवसर पर सीतामढ़ी और अख्ता में तथा रंगपंचमी के अवसर पर भोपाल में पाकिस्तानी तत्वों द्वारा रचे गए भीषण उत्पातों की कहानी अभी पुरानी नहीं हुई है कि पुन: मुहर्रम के अवसर पर देश के विभिन्न भागों में ऐसी घटनाएं घटित होने के समाचार प्राप्त हुए हैं, जो गंभीर चिंता को जन्म देते हैं।
भारत-विभाजन से पूर्व हिन्दुस्थान का मुसलमान समझता था कि भारत की हर सड़क पर उसकी बपौती है और वह जैसे भी और जिस प्रकार भी चाहे, ताजिए निकाल सकता है। अगर कोई भी वृक्ष, कोई भी मकान, कोई भी बिजली का तार उसके ताजियों को झुकाने का संकेत करता है, तो उसे नेस्तानाबूद करने का उसे खुदा की ओर से पूरा-पूरा अधिकार है। किन्तु जबसे स्वाधीनता मिली और मुसलमानों की जन्नत उठकर भारत के पार पाकिस्तान में चली गई, तब से उन्होंने ताजिए निकालने ही बंद कर दिए। मगर धीरे-धीरे फिर हवा बदल रही है, मुहर्रम का मातम फिर से छा रहा है, ताजियों का जोर फिर से हो रहा है। मुहर्रम का मातम मने, ताजिए निकलें-इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। मगर जब ताजियों के साथ 1947 के पहले की राष्ट्रघाती मुस्लिम वृत्ति लौटती दिखती है, पेड़ों को काटने की, बिजली या टेलीफोन के तारों को काटने की मांग उठती है तो लगता है मानो एक नया नक्शा तैयार किया जा रहा है। उ. प्र. विधानमण्डल के एक मुसलमान सदस्य (कांग्रेस) ने कुछ समय पूर्व कहा था कि अब तक मुसलमानों ने शान्त रहकर बहुत कुछ सहा है, अब वे क्रांति करेंगे। शायद क्रांति के ही कुछ नक्शे तैयार हो रहे हैं।
दिशाबोध – पश्चिमी अर्थशास्त्र कर्तव्य-प्रेरणा का विचार नहीं करता
''आजकल यह नारा दिया जा रहा है कि 'कमाने वाला खाएगा।' सामान्यत: यह नारा कम्युनिस्ट दिया करते हैं। किंतु पूंजीवादी भी इस नारे में निहित मूल सिद्धांत से असमहत नहीं हंै। दोनों में झगड़ा इस बात का है कि इस कमाई में बड़ा भाग किसका होगा। पूंज्ीवादी पूंजी तथा औद्योगिक साहस को अधिक महत्व देते हैं, अत: उनका मानना है कि कमाई में उनका भाग बड़ा होना चाहिए। इसके विपरीत कम्युनिस्ट मानते हैं कि कामगार ही सम्पत्ति का निर्माता है और इसीलिए सम्पत्ति पर सच्चा अधिकार उसी का है। किंतु ये दोनों विचार उचित नहीं हैं। वास्तव में नारा तो यह होना चाहिए कि 'कमाने वाला खिलाएगा' और 'जो जन्मा है वह खायेगा'। कारण, खाने का अधिकार जन्मत: ही प्राप्त होता है। कमाने की योग्यता शिक्षण से आती है। समाज में उन लोगों को भी खिलाना होता है जो कमाते नहीं। बच्चे, बूढ़े, बीमार, अपाहिज-सबकी चिंता समाज को करनी पड़ती है। प्रत्येक समाज यह कर्तव्य करता रहता है। इस कर्तव्य को निभाने की क्षमता उत्पन्न करना ही अर्थव्यवस्था का काम है। पश्चिमी अर्थशास्त्र इस कर्तव्य की प्रेरणा का विचार नहीं करता।''
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-4, पृ. 29)
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