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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित क्रांतिकारी रहे बटुक नाथ अग्रवाल का आलेख:-
-बटुक नाथ अंग्रवाल-
सन् 1931 का फरवरी का महीना था, चारों ओर ऋतुराज वसंत का साम्राज्य वीर क्रांतिकारियों को 'मेरा रंग दे बसंती चोला' की प्रेरणा प्रदान कर रहा था। क्रांतिकारी दल के सदस्य काफी संख्या में गिरफ्तार थे, या पुलिस से युद्ध करते समय बलिदान हो चुके थे। यह गिरफ्तारियां व मुठभेड़ अधिकतर पंजाब, बंगाल तथा उत्तर प्रदेश में हुई थीं, बचे हुए क्रांतिकारियों के पीछे ब्रिटिश नौकरशाही हाथ धोकर पड़ी थी और उन्हें भी जल्द से जल्द खत्म कर देना चाहती थी। ऐसी दशा में कुछ बचे हुए क्रांतिकारियों ने प्रयाग को ही अपना केन्द्र बनाया हुआ था।
हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना के प्रधान सेनापति चन्द्रशेखर आजाद इन दिनों यहीं थे और यहीं से वे अपने क्रांतिकारियों के कार्यों का संचालन भी कर रहे थे। इसका आभास अंग्रेजी हुकूमत को भी था। विभिन्न राज्यों की सरकारों की ओर से आजाद को जिंदा या मुरदा पकड़वाने वाले को 15,000 रु. के पुरस्कार की भी व्यवस्था थी। आजाद को पहचानने वाले व्यक्ति को इलाहाबाद में कटरा मोहल्ले में टिकाया गया था ताकि वह सड़क पर आजाद को आते-जाते देख कर पुलिस को खबर कर दे। स्वर्गीय चंद्रशेखर आजाद, भाई सुखदेव राज, श्रीमती दुर्गा देवी, श्रीमती सुशीला देवी आदि दल के प्रमुख लोग उन दिनों भिन्न-भिन्न स्थानों पर इलाहाबाद में ही रह रहे थे। भाई सुखदेव राज, श्री जगदीश, श्रीमती दुर्गा देवी तथा श्रीमती सुशीला दीदी से मेरा परिचय था। मैं उन दिनों इलाहाबाद में बीएससी द्वितीय वर्ष का छात्र था और हिंदू बोर्डिंग हाउस में रहता था, जहां पर श्री सुखदेव राज, श्री जगदीश का आना अक्सर होता था। क्रांतिकारियों की डाक मेरे पते से आती थी, उसे भाई सुखदेव राज या श्री जगदीश ले जाया करते थे। 25 फरवरी सन् 1931 को भी मैं तथा श्री सुखदेव राज अल्फ्रेड पार्क में घंटों
रहे थे।
27 फरवरी सन् 31, दिन शुक्रवार, जो कि मुझे आज तक याद है- करीब साढ़े नौ बजे म्योर कॉलेज जाने के लिए जैसे ही हिन्दू बोर्डिंग हाउस के फाटक पर पहुंचा, गोलियों की आवाज सुनाई दी। मुझे तुरंत संदेह हो गया कि यह मुठभेड़ क्रांतिकारियों और पुलिस के बीच है, इतनी ही देर में क्या देखता हूं कि पुलिस से भरी हुई लारी अल्फ्रेड पार्क की ओर जा रही है, व एक व्यक्ति जिसके जबड़ों से खून बह रहा था, बाद में पता चला कि वह व्यक्ति ठा. विशेसरसिंह, सी.आई.डी. डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस था, म्योर कालेज की ओर जाता हुआ दिखाई पड़ा। मैंने उससे बढ़ कर पूछा कि क्या बात है, उसने कराहते हुए जवाब दिया कि एक पागल अंग्रेज दो स्वयंसेवकों पर गोली चला रहा है।
इतने में ही कई गालियां एक साथ चलने की आवाज सुनाई दीं, मालूम होता था जैसे कोई चांदमारी हो रही हो। इतने में वहां अन्य विद्यार्थियों की और जनता की काफी भीड़ इकट्ठा होने लगी और बढ़ते-बढ़ते हमलोग अल्फ्रेड पार्क में पुलिस के घेराव तक पहुंच गए। मैं शहीद क्रांतिकारी को जानने के लिए आकुल था, जनता की भीड़ को तितर-बितर होने के लिए कप्तान मेजर ने आदेश दिया लेकिन जनता टस से मस नहीं हुई। कप्तान ने कलक्टर श्री बमफोर्ड से जनता को तितर-बितर करने के लिए आज्ञा चाही किंतु कलक्टर ने इसकी स्वीकृति नहीं दी, उसी समय पता लगा कि आजाद अमर शहीद हो गए।
'आजाद पार्क'
थोड़ी देर में लाश ले जाने के लिए एक ट्रक आया। मैं उस महापुरुष के अंतिम दर्शनों के लिए उत्सुक था। मैं लाश ले जाने वाले ट्रक के पीछे हो लिया और उसके रुकने पर उसके बगल के पहियों के बीच से आजाद के अंतिम दर्शन किए। बड़ी कठिनाई से कई पुलिस वाले मिलकर लाश को गाड़ी पर घसीट कर लाद सके थे। साथ ही मैं जामुन का एक पत्ता, जिस पर उस हुतात्मा का खून पड़ा था, अपने साथ ले आया था, वह पत्ता मेरे पास काफी अरसे तक रहा। यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों ने आजाद के बलिदान के बाद अल्फ्रेड पार्क को 'आजाद पार्क' कहना प्रारंभ कर दिया और जो नाम देश की स्वतंत्रता के बाद भी वर्षों चलता रहा। अब उसका सरकारी नामकरण 'मोतीलाल पार्क' किया गया है।
जिस पेड़ के नीचे आजाद वीरगति को प्राप्त हुए थे, उस स्थान पर प्रतिदिन श्रद्धालु स्त्री-पुरुषों की भीड़ लगने लगी, लोग वहां फूल-मालायें चढ़ाने लगे तथा दीपक जलाने लगे। यह बात ब्रिटिश शासकों के लिए असह्य थी। उन्होंने एक दिन रातों-रात उस पेड़ को जड़ से काटकर उसका नामोनिशान मिटा दिया और रातों-रात मिलिट्री गाड़ी द्वारा उठवा दिया। आजाद का निशाना अचूक था, पुलिस से घिर जाने पर तथा घायल हो जाने पर भी उन्होंने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया। जिस मौलश्री के पेड़ के पीछे नटबाबर ने शरण ली थी, उस पर आजाद के सच्चे निशान के चिन्ह माौजूद हैं और उस पेड़ पर आजाद की गोलियों के निशान 6 फीट की ऊंचाई तक मिले थे, जबकि उस जामुन के पेड़ पर, जिसके नीचे आजाद घायल होकर गिर गए थे, 10-12 फीट की ऊंचाई पर पुलिस द्वारा चलाई गई गोली के निशान थे। इससे प्रतीत होता था कि आजाद का मानसिक संतुलन अंतिम समय तक कितना ठीक था, जबकि पुलिस वाले अपने को खो बैठे थे और अंधाधुंध गोलियां चला रहे थे। मृतदेह चोरी से रसूलाबाद में पोस्टमार्टम के बाद जलाई गई। जनता ने हड़ताल रखी और जुलूस निकाल कर पुरुषोत्तम दास पार्क में सभा की।
खबर पाकर नटबाबर जिस वक्त अल्फ्रेड पार्क में पहुंचा और अपनी कार रोकी, आजाद तथा सुखदेव राज जो कि बैठे हुए थे, उनसे नाम पूछना चाहा, आजाद की गोली मोटर के टायर में जा लगी और नटबाबर की गोली आजाद की जांघ में, जिससे आजाद का मैदान से निकल जाना असंभव हो गया। आजाद ने दूसरी गोली चलाई जिससे नटबाबर का दाहिना हाथ घायल हुआ और हाथ से पिस्तौल गिर गयी, नटबाबर ने भाग कर मौलश्री पेड़ के पीछे शरण ली।
चूंकि उनकी जांघ में गोली लग गयी थी, उन्होंने अपने साथी भाई सुखदेव राज को निकल जाने का आदेश दिया। विशेसर सिंह ने जिसने नटबाबर को खबर भेजी थी और नटबाबर के आने पर मौजूद नहीं था, उन क्षणों में समर हाउस की ओर से आजाद पर गोली चलाई, जिसके जवाब में आजाद की गोली ने उसका जबड़ा चकनाचुर कर दिया। आजाद के मर जाने पर भी उनकी देह के पास फटकने का किसी भी अफसर या सिपाही में साहस न था। वह दूर से गोलियों की बाढ़ पर बाढ़ दागते रहे। जमीन पर पड़े जामुन के पत्ते उनके खून से तर हो गए थे। अंत में अपनी गोली से ही उन्होंने अपनी जीवनलीला समाप्त की।
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