उन्मादी उबाल
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घाटी में आतंकियों के जनाजों को अलगाववादियों ने शक्ति-प्रदर्शन का जरिया बना लिया है। इससे वे दिल्ली को डराना चाहते हैं और पाकिस्तान को यह एहसास कराना चाहते हैं कि उनकी ताकत अभी भी बरकरार है। देश के भीतर आतंकियों के पक्ष में भीड़ जुटाने और बहस उठाने वालों से निपटना बड़ी चुनौती
-आशुतोष भटनागर-
हिज्बुल मुजाहिदीन से जुड़ा कुख्यात आतंकी बुरहान वानी दक्षिण कश्मीर के बमडूरा-कोकरनाग में अपने दो साथियों सरताज और मासूम शाह के साथ सुरक्षा बलों के हाथों एक मुठभेड़ में मारा गया। त्राल का रहने वाला यह आतंकी 2010 से आतंक की दुनिया में सक्रिय था। हिज्बुल का 'पोस्टर बॉय' बना यह आतंकी सोशल मीडिया पर सक्रिय था और आतंकियों की नई पीढ़ी को जोड़ने में इसकी मुख्य भूमिका थी।
बुरहान की मौत की खबर फैलते ही दक्षिण कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में लोग विरोध प्रदर्शन करते हुए सड़कों पर उतर आए। सुरक्षा बलों पर हमले होने लगे। जवाबी कार्रवाई में पुलिस को अनेक स्थानों पर बल प्रयोग करना पड़ा। अगले दिन उसके गांव में उसके जनाजे में हजारों की भीड़ जमा हो गई। इसमें कई आतंकी भी मौजूद थे और बताया जाता है कि उन्होंने उसे गोलियों से 'सलामी' दी। प्रतिबंधित झण्डे भी फहराए गए।
इसके अतिरिक्त 40 से ज्यादा जगहों पर बिना उसके शव के 'नमाज-ए-जनाजा' का आयोजन किया गया। मातम के बाद सभी जगहों पर मौजूद भीड़ ने हिंसक रुख अपनाया। 'वेस्सु-कुलगाम' में हिंदुओं और सिखों के घरों पर हमला हुआ। कुलगाम में भाजपा नेता गुलाम हसन जरगर और कोकरनाग में विधायक केे घर जला दिये गये। सुरक्षाबलों के बंकर, पुलिस थाने, सरकारी संस्थान, वाहन आदि जलाए गए। पुलिसकर्मियों को बंधक बनाकर हथियार लूट लिए गए। कुछ पुलिसकर्मी अभी भी गायब हैं। उपद्रवियों ने एम्बुलेंस को भी नहीं छोड़ा। पिछले पांच दिन में 70 एम्बुलेंस क्षतिग्रस्त हुई हैं।
वहीं ऊधमपुर में, जो प्राय: शांत क्षेत्र है, मजहबी उन्मादियों की उग्र भीड़ ने अमरनाथ यात्रियों को घेर लिया। उनके वाहनों पर पथराव किया, कुछ से मार-पीट की और कई यात्रियों को बंधक बना 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगवाने के बाद छोड़ा। जम्मू में भी कुछ स्थानों पर उपद्रव की कोशिश की गई, लेकिन प्रशासन ने उसे समय रहते हालात संभाल लिए। अमरनाथ यात्रा को रोकना पड़ा जो तीन दिन बाद फिर से शुरू हो सकी।
पूरा घटनाक्रम जिस तरह से सामने आया है, उससे इसे स्वत:स्फूर्त या बुरहान की मौत से गुस्साए लोगों की प्रतिक्रिया के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह पूरी तरह नियोजित और संगठित हिंसा है। कहा जा सकता है कि इसकी योजना पहले से तैयार थी। केवल मौके का इंतजार था जो उन्हें बुरहान की मौत ने दे दिया। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है।
सूत्रों के अनुसार 2016 में अब तक लगभग 80 आतंकवादी मारे गए हैं। सभी के जनाजों में भारी भीड़ जुटी है। किन्तु यदि इसका विश्लेषण किया जाए तो जनाजों में जुटने वाली भीड़ तमाशबीन ज्यादा है। उनमें से मुट्ठी भर ही हैं जो पत्थरबाजी में शामिल होते हैं। लेकिन अलगाववादियों ने इन जनाजों को शक्ति-प्रदर्शन का जरिया मान लिया है जिसे दिखाकर वे दिल्ली को डराना चाहते हैं और पाकिस्तान को यह एहसास कराना चाहते हैं कि उनकी ताकत अभी भी बनी हुई है।
तात्कालिक घटना में जो उन्मादी उफान आया वह पाकिस्तान और अलगाववादियों के गठजोड़ में स्थानीय राजनीतिक दलों के आ मिलने से हुआ। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर कब्र में दफन बुरहान को जिंदा बुरहान से ज्यादा खतरनाक बताया। यह तथ्य बताता है कि राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए उन्होंने अलगाववादियों के पक्ष का परोक्ष समर्थन करने से भी गुरेज नहीं किया।
यहां यह उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार शुरुआती झटके से तेजी से उबर गई और तीन दिन के अंदर स्थिति नियंत्रण की ओर बढ़ गई। इसकी तुलना अगर उमर के नेतृत्व में 2010 के आंदोलन से निपटने की स्थिति से करें तो वर्तमान सरकार ने ज्यादा चुस्ती दिखाई है। उस समय घाटी में लगभग चार महीने तक अराजकता की स्थिति बनी रही थी और लगभग 120 नौजवानों को जान से हाथ धोना पड़ा था।
इस स्थिति का विश्लेषण करते हुए वरिष्ठ पत्रकार जवाहरलाल कौल कहते हैं, ''2010 के इस अनुभव के बाद भी भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बन सकी। इसके पीछे चार बड़ी समस्याएं हैं। पहली, नीतियों में दूरदृष्टि का अभाव है। तात्कालिक समस्या का तात्कालिक समाधान खोजने का प्रशासनिक स्वभाव आज तक कोई दीर्घकालिक नीति बना ही नहीं सका। दूसरा, सेकुलर चेहरा बनाए रखने के लिए मौलिक प्रश्नों से नजरें चुराना महंगा साबित होता रहा है। तीसरा, विकास तभी प्रभावी हो सकता है, बशर्ते वह आम आदमी तक सीधे पहुंचे। राज्य के लिए पैकेजों की घोषणा होने और उसके लाभ नीचे तक न पहुंचने से जनसामान्य में वंचित होने का भाव बढ़ता ही है, कम नहीं होता। चौथा, राजनीतिक-प्रशासनिक वर्ग द्वारा जनता से सीधा संवाद करने के स्थान पर बिचौलियों के माध्यम से बातचीत, जो जनता को भ्रमित करती है और बिचौलियों के लिए 'ब्लैकमेलिंग' का रास्ता खोलती है। बुरहान की मौत के अगले ही दिन हुर्रियत नेता गिलानी से शांति स्थापना में सहायता की अपील बताती है कि पिछली घटनाओं से सबक नहीं सीखा गया है।''
वहीं विश्व हिन्दू परिषद के प्रवक्ता विजय शंकर तिवारी कहते हैं, ''नीति निर्माताओं को यह स्वीकार करना होगा कि वहाबी इस्लाम की अंतरराष्ट्रीय आंधी के इस दौर में जब कहीं मुस्लिम समुदाय जमा होता है तो जिहादी मानसिकता वाले तत्व पूरे समूह पर हावी होने लगते हैं। विकास और अन्य मुद्दे इस उन्माद के आगे गौण हो जाते हैं। इसके विपरीत सरकारें विकास के नारे को आगे रख समस्या के समाधान की कोशिश करती हैं, किन्तु अलगाववादियों की एक भावुक अपील महीनों के परिश्रम को झटके में ढेर कर देती है।''
2016 में जम्मू-कश्मीर की परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए हमें समस्या की जड़ तक तो जाना ही होगा, लेकिन वर्तमान और भविष्य के परिप्रेक्ष्य में इसके समाधान ढ़ूंढने होंगे। दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक डॉ. शिव पाठक कहते हैं, ''आज का भारत 1947, 65, 71 या 90 का भारत नहीं है। आज वह एक उभरती हुई महाशक्ति और बड़ी आर्थिक ताकत है। समानान्तर रूप से पाकिस्तान में बिखराव बढ़ा है और आर्थिक ताकत कम हुई है। विश्व का शक्ति संतुलन बदला है, जिसमें भारत एक महत्वपूर्ण पक्ष है। आतंकवाद अब वैश्विक समस्या है और पाकिस्तान उसका केन्द्र-बिन्दु, यह दुनिया स्वीकार करने लगी है।''
उक्त स्थिति में जम्मू-कश्मीर के प्रश्न का विश्लेषण भी नए संदर्भ में ही किया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर मामलों की विशेषज्ञ और स्वतंत्र पत्रकार आभा खन्ना कहती हैं, ''दुर्भाग्य से जम्मू-कश्मीर पर भारतीय नीति सदैव पाकिस्तान को ध्यान में रख कर बनाई गई तथा इसका मूल चरित्र आत्मरक्षात्मक तथा तात्कालिक रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में अपने भूभाग को लेकर ऐसी नीति, जिसमें समग्रता, निरंतरता और स्थायित्व हो, वह बन नहीं सकी। इसके अंतर्गत पाकिस्तान प्रेरित अलगाववादियों से निरंतर संवाद कायम रखने की कोशिश की गई, वहीं राज्य में मौजूद राष्ट्रवादी शक्तियों का निरंतर अनदेखा किया गया।'' राज्य को लेकर आन्तरिक नीति की बात करें तो यह अतीत में कश्मीर केन्द्रित रही है। जम्मू हाइट्स के संपादक संत कुमार के अनुसार ''भौगोलिक रूप से बड़े अन्य दो भाग जम्मू व लद्दाख निरंतर उपेक्षित रहे। राज्य की पांथिक और जातीय विविधता को नजरअंदाज किया गया। इसके कारण जम्मू व लद्दाख की कश्मीर के साथ दूरी बढ़ती चली गई।''
रक्षा विशेषज्ञ आलोक बंसल पिछले कुछ वषार्ें में जमीनी स्थिति में आए परिवर्तन की चर्चा करते हुए कहते हैं, ''आतंकवाद के प्रति अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है और अब कथित उग्रवादी संगठनों के लिए पहले जैसी सहानुभूति कहीं नहीं बची है। भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरा है और दुनिया के ज्यादातर देश इसके साथ अच्छे संबंध रखना चाहते हैं। दूसरी ओर कश्मीरी युवाओं का पाकिस्तान से बहुत हद तक मोह भंग हुआ है। वे समझ चुके हैं कि पाकिस्तान असफल राष्ट्रों की श्रेणी में जा खड़ा हुआ है।''
बंसल का यह भी कहना है कि भारत को अब 90 के दशक की रक्षात्मक मानसिकता से बाहर आना होगा तथा भीतरी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रहे पाकिस्तानी दुष्प्रचार पर प्रतिक्रिया देने की आदत बदलनी होगी। आने वाले दशक के लिए भारत को चाहिए कि विमर्श की दिशा बदले और पाकिस्तानी कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर और चीन अधिकृत जम्मू-कश्मीर पर ध्यान केन्द्रित किया जाए। साथ ही उन भागों को भारतीय नियंत्रण में लाने के लिए स्पष्ट नीति पर विचार प्रारंभ हो।
दिल्ली के सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट अनिल गोयल आर्थिक संबंध में मजबूती को भी एकात्मता के सूत्र के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार, ''राज्य में राष्ट्रवादी शक्तियों को सबल करना तथा संबंधित पक्षों के बीच ठोस नेटवर्क स्थापित कर अलगाववादियों तथा आतंकवादियों के समर्थन को सीमित और निष्प्रभावी बनाया जाए। राज्य के सभी भागों की शेष देश के साथ सामाजिक-आर्थिक एकात्मता स्थापित हो, इसके लिए राज्य और शेष देश के बीच परस्पर संवाद को बढ़ाया जाए।''
मेरठ विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. राजनारायण शुक्ला कहते हैं, ''घाटी के लोगों को यह विश्वास दिलाना होगा कि संवाद बढ़ाने की यह प्रक्रिया उनके हित में है और इसके पीछे कोई राजनीतिक विचार नहीं, बल्कि सदियों की दूरी को पाटना ही है। इसे लागू करने में अलगाववादियों की ओर से विरोध स्वाभाविक है किन्तु जनता से सीधा संवाद अपेक्षित परिणाम दे सकता है।''
अब समय आ गया है कि देश जम्मू-कश्मीर को लेकर एक ठोस नीति बनाए और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ उसे लागू करे। राज्य और केन्द्र को यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी क्षेत्रों में जनोन्मुखी शासन-व्यवस्था लागू हो तथा राज्य के प्रत्येक नागरिक को वे सभी अधिकार और सुविधाएं उपलब्ध हों जिनका उपभोग देश का प्रत्येक नागरिक सहज ही कर रहा है।
यूं फंसा बुरहान
22 साल का एक नौजवान जिसे वह सब अच्छा लगता है जो उसकी उम्र के किसी भी युवा को आकर्षित करता है। न मां की चिन्ता, न बाप का डर। कैरियर की चिन्ता नहीं, कमाने की फिक्र नहीं, तमाम लड़कियों से दोस्ती। ऐसे नौजवान के हाथों में अगर खतरनाक हथियार और लग जाएं तो वह सच में हमउम्र युवाओं का 'आदर्श' बन जाता है। यही था बुरहान मुजफ्फर वानी, कश्मीरी आतंकियों की नई फसल का नेता। अब जो खबरें आ रही हैं उसके अनुसार सुरक्षा बलों ने उसे घेरने का जो जाल बिछाया था उसमें वह फंस ही गया। साथ दिया उसकी एक प्रेमिका, जो इस बात से नाराज थी कि उसके कई अन्य लड़कियों से संबंध है, ने बुरहान की मौजूदगी की सूचना सुरक्षा बलों को दी। जिस समय घेरा डाला गया उस समय वह इतनी अधिक शराब पिये हुए था कि ठीक से चल भी नहीं पा रहा था।
बुरहान के परिवार के अन्य छह लोग भी जिहाद के रास्ते पर जा चुके हैं। बुरहान का बचपन बन्दूकों के साये में ही बीता। इसलिए 15 वर्ष की उम्र में उसने भी बन्दूक थाम ली। माना जाता है कि पिछले कुछ वषार्ें में उसने लगभग 100 युवाओं को आतंकी बनाया था। सरकार ने उस पर दस लाख रुपए का इनाम रखा था।
कई महीने पहले ही उसके पिता ने कहा था, '' एक आतंकवादी की उम्र ज्यादा से ज्यादा सात साल होती है और बुरहान छह वर्ष पूरे कर चुका है। मैं उसके शव की प्रतीक्षा कर रहा हूं।'' शव की प्रतीक्षा करने को विवश पिता उसे मौत के रास्ते पर जाने से नहीं रोक सका।
'आतंकवाद से नहीं होगा कोई समझौता'
-डॉ. निर्मल सिंह, उप मुख्यमंत्री
बुरहान वानी की मौत के बाद खड़ा हुआ आंदोलन पाकिस्तान और अलगाववादियों के साथ कुछ स्थानीय राजनीतिक दलों के गठजोड़ का नतीजा है। राजनीतिक दलों की भूमिका इस आंदोलन को हवा देने की रही। मरने के बाद बुरहान के ज्यादा ताकतवर होने जैसी टिप्पणियों ने अलगाववादियों को परोक्ष समर्थन के संकेत दिए।
जिस समय यह घटना हुई, कश्मीर में एक लाख से ज्यादा तीर्थयात्री थे। यह सरकार की सफलता है कि बिना उन्हें कोई नुकसान पहुंचे यात्रा को पुन: तीसरे दिन बहाल कर दिया गया। इसमें राज्य सरकार द्वारा त्वरित निर्णय के साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा समय पर अपेक्षित सहायता उपलब्ध कराए जाने की भूमिका है।
डॉ. निर्मल सिंह का मानना है कि राज्य सरकार अच्छे और बुरे आतंकवाद के फेर में नहीं है। आतंकवाद के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा, यह भाजपा और पीडीपी का सामूहिक संकल्प है, जिसमें केन्द्र सरकार का पूरा समर्थन हासिल है।
उन्होंने पर्यटकों तथा तीर्थयात्रियों को पूरी सुरक्षा देने का विश्वास दिलाते हुए बेखौफ घाटी में आने के लिए आमंत्रित किया है।
क्या है राजनीतिक प्रक्रिया
जब से यह घटना हुई है मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने यह कहना शुरू कर दिया है कि घाटी के हालात सुधारने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू किया जाना जरूरी है। हालांकि कोई भी इस बात को स्पष्ट नहीं कर रहा है कि यह राजनीतिक प्रक्रिया क्या होगी।
लोकतंत्र के दायरे में किसी भी राजनीतिक प्रक्रिया का आधार चुनाव है। राज्य में चुनाव हुए हैं, निष्पक्ष हुए हैं और जनता ने स्वतंत्र रूप से अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। जिन्हें जनता ने चुना है उन्होंने सत्ता संभाली है। अब इससे इतर क्या राजनीतिक व्यवस्था संभव है? क्या राजनीतिक प्रक्रिया वह है जो अलगाववादी चाहते हैं अथवा पाकिस्तान चाहता है? क्या जनता की इच्छा का भी इस प्रक्रिया में कोई मोल है? इस सबके बीच जिस घटना की चर्चा नहीं हुई वह है पुलवामा जिले में स्थित 'हाल' में अथवा अनंतनाग के 'वेस्सू' में कश्मीरी पंडितों की बस्ती पर रातभर हुई पत्थरबाजी, जिसके बाद उन्हें अपने घर छोड़कर भागना पड़ा। क्या उन पंडितों का भी इस राजनीतिक प्रक्रिया में कोई स्थान है?
जम्मू-कश्मीर एक राज्य इकाई है जिसका कश्मीर एक भाग है। क्या जम्मू और लद्दाख के चुने हुए प्रतिनिधि, लेह और कारगिल हिल काउंसिल, स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों के चुने हुए सदस्य भी इस राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं होंगे? बिना इनको साथ लिए कैसे कोई राजनीतिक समाधान संभव होगा।
सबसे बड़ी बात, क्या यह राजनीतिक प्रक्रिया बुरहान जैसे आतंकियों के साथ शुरू होगी जिन्हें किसी व्यवस्था पर भरोसा ही नहीं है? सज्जाद गनी लोन और कूका पारे जैसे लोग भी पहले उसी रास्ते पर थे, लेकिन जब उन्होंने राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होने का निर्णय किया तो उसका सबने स्वागत ही किया। लेकिन हिंसा और राजनीतिक प्रक्रिया साथ-साथ नहीं चल सकते, इसे तो स्वीकार करना ही होगा।
गढ़ी गई है बुरहान की 'पोस्टर बॉय' छवि
जवाहरलाल कौल
इसमें तो संदेह का कोई कारण ही नहीं है कि इस सबके पीछे पाकिस्तान का दिमाग और उसके ही संसाधन हैं। बुरहान को 'पोस्टर बॉय' बनाने में भी उसकी ही भूमिका है। वास्तव में यह उसके द्वारा रणनीति में की जाने वाली बदल का नमूना है। इसके तहत वह स्थानीय आतंकवादी तैयार कर उन्हें आगे रख अपने मंसूबे पूरे करना चाहता है। इसके लिए उसने हिज्बुल मुजाहिदीन को माध्यम बनाया है।
आतंक के बीज बोते समय पाकिस्तान ने जिन भाड़े के आतंकियों को भारत में घुसपैठ करायी उन्हें अपेक्षित स्थानीय सहयोग नहीं मिल सका। पाकिस्तान को लगता था कि उसके कुछ लोग बंदूक लेकर आएंगे और पूरा कश्मीर उनके पीछे चल पड़ेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारतीय सुरक्षा बलों की मुस्तैदी ने उनके काम को और कठिन बनाया और अंतत: पाकिस्तान का वह प्रयोग एक प्रकार से असफल हो गया। इसने उसे अपनी रणनीति में बदल के लिए विवश किया है। बुरहान का काम संघर्ष करना नहीं था। शायद ही उसने कभी अपनी रायफलों से काम लिया हो, किन्तु वर्चुअल दुनिया में उसका कद इतना बड़ा हो गया जिसके चलते नौजवानों का एक वर्ग उसे अपना 'आदर्श' मानने लगा। सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में आतंक का रास्ता भी 'ग्लैमर' भरा हो गया है।
बुरहान की मंडली के नए आतंकवादियों ने भले ही सुरक्षा बलों के साथ आमने-सामने की लड़ाई कभी न लड़ी हो, लेकिन रायफल के साथ फोटो खिंचाना और उसे सोशल मीडिया पर शेयर करना संभवत: उन्हें मानसिक संतुष्टि देता होगा। इन लोगों ने पिछली पीढ़ी के आतंकवादियों से अलग न तो अपने चेहरे छिपाए और न ही नाम-पते। उनका पूरा प्रोफाइल फेसबुक पर मौजूद है। यहां इस व्यावहारिक तथ्य को भी समझना होगा कि कश्मीर में शिक्षा अधिक है और रोजगार बहुत कम। परिणामस्वरूप जब उनके बौद्धिक सपने पूरे नहीं होते तो वे भावनात्मक मुद्दों की ओर आकर्षित होते हैं। बुरहान का काम ऐसे ही लोगों को जोड़ना था।
यहां एक बात और उल्लेखनीय है। सोशल मीडिया पर उसकी उपस्थिति को जिस तरह से मुख्यधारा की मीडिया ने प्रस्तुत किया है वह भी बेढब है। स्पष्ट है कि यह उसे नायक के रूप में स्थापित करने की कोशिश है। जैसा बताया जा रहा है कि फेसबुक पर उसके 350 'फालोअर' थे। यह ऐसी संख्या नहीं है जिसके आधार पर उसे सोशल मीडिया का धुरंधर बताया जाए। हां, यह हो सकता है कि वह इस मामले में अपने साथियों से आगे हो। लेकिन यह भी सच है कि उसकी छवि गढ़ने के लिए उसे अनुपात से अधिक बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाया गया जो सहज नहीं है।
(लेखक जाने-माने स्तंभकार तथा जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र के अध्यक्ष हैं)
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