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वेदान्त के ग्रंथों में शिरोमणि 'योगवासिष्ठ' अध्यात्म के दार्शनिक सिद्धांतों का संस्कृत भाषा में वृहत गं्रथ है। इसे कवयित्री इंदिरा मोहन ने वर्तमान संदर्भ में साधकों की जिज्ञासा के अनुरूप सहज-सरल-सरस हिन्दी भाषा में 'योगवासिष्ठ अनुशीलन' के नाम से प्रस्तुत किया है।
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम एवं गुरु महर्षि वसिष्ठ के संवाद के रूप में यह पुस्तक साधना के क्षेत्र में जप, तप, ध्यान आदि को पुष्ट कर बुद्धि को आश्वासन देने वाला आनंद का स्रोत है। इसके सहारे हम आज ही स्वयं की खोज प्रारंभ कर सकते हैं। इस ग्रंथ की विभिन्न रोचक कथाएं एवं दृष्टान्त हमारे भीतर छिपे अज्ञान-अंधकार को प्रकाश में बदल कर 'परम ज्योति' की ओर हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं, जहां शिव ही शिव है, सत्य ही सत्य है। पृष्ठ 107 का एक प्रसंग मनन करने योग्य है, ''जो संकल्प है वही मन है, जो मन है वही संकल्प है। जैसे शून्य तथा जड़ आकाश का, नाम मात्र के अतिरिक्त और कोई स्वरूप नहीं है, वैसे ही शून्य जड़ इस संकल्पात्मक मन का भी नाम के सिवाय और कोई रूप नहीं है। मन पहले आई हुई वस्तुओं की केवल भावना है।'' संतों एवं विद्वानों का एक मत से मानना है कि योगवासिष्ठ आत्मज्ञान का सर्वश्रेष्ठ उपाय है, जिसका सदियों से भारत के कोने-कोने में पठन-पाठन हो रहा है। राजा से लेकर रंक तक और स्त्री-पुरुष इस ग्रंथ के अध्ययन से अपने जीवन में आनंद और शांति का अनुभव करते रहे हैं। विशाल कलेवर वाले इस ग्रंथ को लेखिका ने सहज और सरल भाषा में प्रस्तुत कर जिज्ञासु साधक को अपने कल्याण की ओर बढ़ने, सत्य को समझने और अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का अवसर दिया है। इस ग्रंथ में दर्शन है, चिन्तन है, कथानक है, उपदेश है। पृष्ठ 95 की इन पंक्तियों के सहारे लेखिका ने काल के सच से सामना कराया है,''यह जीवन पत्ते के सिर पर लटके जल-बिन्दु के समान ही अस्थिर है। शरत्काल के बादल, तेल रहित दीपक और तरंग के समान आयु, चंचल नष्ट प्राय है। जिस प्रकार प्रतिदिन कोई चूहा बिल को छेदता रहता है उसी प्रकार काल भी आयु को निर्दयता से शनै:-शनै: प्रतिदिन काटता रहता है।''
लेखिका की काव्यात्मक शैली ने सूक्ष्म विषयों को भी माधुर्यता प्रदान की है। पृष्ठ 105 की ये पंक्तियां भी हमें कुछ मर्म समझाती हैं, ''इस संसार का अनुराग एवं आसक्ति पीड़ादायक है। वशिष्ट जी संसार की आसक्ति का मार्मिक वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह मोहग्रस्त विषयों से घिरे मनुष्य को सांप की तरह डस लेता है, तलवार की तरह काट डालता है, भाले की भांति छेद डालता है, अग्नि के समान जलाकर विचार शक्ति के द्वारा मर्यादा का विनाश कर डालता है और तृष्णा अंधकूप में पटक डालता है।'' पृष्ठ 96 पर लेखिका लिखती हैं, ''संसार के सब दोषों में तृष्णा ही सबसे अधिक दु:ख देने वाली है। यह अंत:पुर में सुरक्षित पुरुष को भी संकट में डाल देती है। इस संसार में सभी तृष्णा नाम की सरिता में डूब-उतरा रहे हैं। यह नदी संतोष रूपी छाया, फलदार वृक्षों को बहा ले जाती है। तृष्णा का मारा मनुष्य दीन-हीन, ओज रहित मोहित होता है, रोता और गिर जाता है।''
यह ग्रंथ केवल मानसिक कौतूहल को ही नहीं हटाता, वरन् ऐसी जीवनशैली सिखाता है, जो राग-द्वेष से मुक्त होने के कारण शान्त और आदरणीय है। श्रीराम के अनुसार जीवन दु:खी, अशांतिमय और क्षणभंगुर है अतएव विवेकी पुरुष को उनसे विरक्ति होनी चाहिए। वशिष्ठ-राम संवाद द्वारा निवृत्ति के अनेक मौलिक उपाय उभर कर सामने आते हैं। पाठक की स्पष्टता के लिए प्रकरण से पूर्व विभिन्न विषयों-कथाओं को शीर्षकों में पिरोया गया है। इस कारण चिन्तन की गंभीरता में एकरूपता और सहजता दिखती है। आज सनातन धर्म को लेकर अनेक प्रश्न उभर रहे हैं। भारतीय चिन्तन, जीवनशैली और धर्म के संबंध में सामान्य जनता ही नहीं, शिक्षित लोग भी भ्रमित हैं। यह ग्रंथ इन सभी प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करता है।
गुरु मुख से संसार की सत्यता को जानने के बाद श्रीराम के व्यक्तित्व में आरंभ से लेकर अंत तक एक तरह से सतर्कता और चौकसी दिखाई देती है। राम का शत्रु विजय अभियान सैन्यबल का नहीं, चरित्र बल का अभियान है। रावण अपने ही चरित्र दोष से नष्ट हो गया, उसी के साथ सोने की लंका भी भस्म हो गई। श्रीराम और रावण दोनों ही विद्वान, बलवान, कुलीन थे, लेकिन एक का ज्ञान दीनों की रक्षार्थ था, तो दूसरे का ज्ञान जन-पीड़न के लिए। एक सदाचारी था, तो दूसरा दुराचारी। गुरु वशिष्ठ के उपदेश से ही श्री रामचन्द्र जी असंग होकर राज्याभिषेक की घोषणा के अनन्तर वनवास गमन की आज्ञा का सहर्ष पालन करते हुए मर्यादापुरुषोत्तम बन सके। इन प्रसंगों की सरल प्रस्तुति पुस्तक को पठनीय बनाती है। -अरुण कुमार सिंह
पुस्तक का नाम : योगवासिष्ठ अनुशीलन
लेखिका : इंदिरा मोहन
पृष्ठ : 298
मूल्य : 250 रु़
प्रकाशक : चौखम्भा ओरियन्टालिया
पोस्ट बॉक्स नं. 2206, बंग्लो रोड
9 यू.बी. जवाहर नगर
दिल्ली- 110007
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