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जिन बच्चों को जिस तरह पोसा जाता है, आगे चलकर मां-बाप की पहचान उन्हीं बच्चों से, और वैसी ही होती है।
इस शांत, ममतामयी, दार्शनिक कसौटी को क्यों न पाकिस्तान के संदर्भ में आजमाया जाए! आखिर देश भी तो अपने नागरिकों का अभिभावक और विचारधाराओं का पालना ही है?
1947 के बाद से एक देश के रूप में पाकिस्तान ने अपने 'बच्चों' को कैसे पाला? सभ्यता और प्रगति से जुड़े किन संस्कारों को गहरा किया और आज पाकिस्तान की पहचान क्या है?
रिपब्लिकन पार्टी से अमेरिकी सांसद टेड पो ने 'यूएस न्यूज' में प्रकाशित अपने ताजा लेख में कहा है कि पाकिस्तान आतंकी समूहों को समर्थन दे रहा है और अमेरिका को पाकिस्तान के विरुद्ध पूरी तरह अलग-थलग करने की नीति अपनानी चाहिए।
दरअसल, सतर्कता और सूचना के क्रांतिकारी दौर में यह बात दुनिया से छिपी नहीं है कि पाकिस्तान में इस्लामी आतंकी, इनके पैरोकार, आतंकी गुट और इन गुटों के नेटवर्क सब कडि़यां प्रशासन की नजर में हैं और इन्हें बढ़ावा दिया जाता है। लेकिन सिर्फ आतंकियों की ही बात क्यों करें? आतंकी आसमान से तो नहीं टपकते? इसलिए पाकिस्तान में शिक्षा संस्थानों को आतंकवाद के ढलाईघरों की तरह प्रयुक्त किया जाता है। मासूम बच्चों को 'आसमानी सपने' दिखाने के लिए नफरत में पगे शब्द और व्याख्याओं पर पाला जाता है।
वर्तमान और आने वाली पीढि़यों के मन में जहर की खेती करते-करते पाकिस्तान अब इस धरती का ऐसा बोझ बन गया है जिसे संभालना खुद उसके लिए भी आसान नहीं है। महज भारत और हिन्दू विरोध से उपजा दो राष्ट्र का सिद्धांत पाकिस्तान खुद ही अपने कण-कण पर लागू करता जा रहा है। शिक्षा नीति, अफगानिस्तान नीति, चीन नीति, परमाणु नीति, मिसाइल नीति पूरी की पूरी रक्षा नीति और तो और तेल और गैस तक की पाकिस्तानी नीतियां सिर्फ भारत विरोध पर टिकी हैं। स्थिति यह है कि विमर्शकार अब इसे देश की बजाय खास, नकारात्मक मनोदशा के तौर पर चिन्हित करने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान को इस दशा में देखने और मानने वाले सारे लोग बाहरी और पाकिस्तान के आलोचक ही हैं। देश की दुर्दशा से त्रस्त और पीड़ा जताते स्वर खुद पाकिस्तान के भीतर से उठ रहे हैं। हिना रब्बानी खार ने कहा, हुसैन हक्कानी ने कहा, परवेज हूदभोय कब से कहते आ रहे हैं।
इस्लामाबाद की कायदे आजम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर परवेज हूदभोय की मानें तो पांचवीं कक्षा में आते-आते बच्चों को जिहाद और शहादत का मतलब समझाया जाता है। काफिरों को दुनिया से खत्म करने के लिए पूरी की पूरी पीढ़ी को तैयार करने की इस कवायद में बच्चों से जिहाद और शहादत जैसे विषयों पर भाषण तैयार कराए और दिलाए जाते हैं।
आप पाकिस्तान के भविष्य की कल्पना कर सकते हैं।
भारत के सामने संकट यह है कि उन्माद से भरा, नफरत में बौराया यह देश हमारा पड़ोसी है। उससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि इस उन्माद को वहां 'आसमानी' लिहाज से निहायत जरूरी फर्ज और नेमत समझा जाता है। लेकिन सच यही है कि ऐसी हर समझ तर्कहीन और विषैले दुष्चक्र का हिस्सा है और पाकिस्तान के हर दुष्चक्र की धुरी फिर वही भारत और हिन्दू विरोध है।
1947 में पकड़ी इस राह पर आते-आते आज पाकिस्तान दुनियाभर में आतंकवाद की प्रयोगशाला, पौधशाला और कारखाना बन चुका है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब यही बात पाकिस्तान का नाम लिए बिना अमेरिकी संसद के समक्ष रखी तो अमेरिका के पास अपने अतीत की गलतियों पर सिर झुकाने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
लेकिन कुछ देश अब भी पाकिस्तान पर चढ़ते इस फितूर का तमाशा देखने और उस पर दांव लगाने की नादान महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं। ईश्वर उन्हें शीघ्र सद्बुद्धि दे।
ईश्वर से पाकिस्तान के लिए भी सद्बुद्धि की कामना की जानी चाहिए। लेकिन, 'दैव-दैव आलसी पुकारा…
न भारत आलसी है और न पूरी दुनिया। उन्माद का अगला चरण विक्षिप्तता ही है और विक्षिप्तों की हरकतें सिर्फ उन पर तरस खाने की सीमा तक सहन की जाती हैं। पाकिस्तान की यह गति विश्व के लिए एक समस्या भी है और सबक भी।
अलिफ से अल्लाह, बे से बंदूक और जीम से जिहाद पढ़ते छात्र, तालिबान और हक्कानी नेटवर्क सरीखे आतंकी बगलबच्चे…आज पाकिस्तान की पहचान यही है। पाकिस्तान के लिए समय तेजी से बीतता जा रहा है। उसे अपने भीतर से उठ रहे समझदारी के इक्का-दुक्का सुरों को ध्यान से सुनना और गंभीरता से लेना होगा। इसी में उसका हित है, अस्तित्व है। उसका भविष्य है।
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