न्यायपालिका :तारीखों में दफन न्याय
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भारत की न्याय व्यवस्था, मुकदमों, अदालतों, वकीलों और न्यायाधीशों के एक ऐसे पाश में जकड़ी है जिससे बंटती तारीखों के जाल में उलझा आम नागरिक न्याय पाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाने पर विवश
नीरज महाजन
हाल ही में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के जज न्यायमूर्ति वी़ वी़ राव ने यह कहकर हलचल पैदा कर दी थी कि देशभर में लंबित 3़128 करोड़ मामलों को निपटाने में भारतीय न्यायपालिका को 320 साल लग जाएंगे।
पिछलें दिनों मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की मौजूदगी वाले एक सम्मेलन में भारत के मुख्य न्यायाधीश टी़ एस़ ठाकुर का, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने यह कहते हुए गला भर आया कि अदालतों में मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है और उन्हें सुनने के लिए पर्याप्त न्यायाधीश नहीं हैं।
न्यायाधीशों की संख्या को 21,000 से बढ़ाकर 40,000 करने के मामले में कार्यपालिका की 'निष्क्रियता' की उन्होंने आलोचना भी की। उनके अनुसार, यही वजह है कि न्यायपालिका मुकदमों की बाढ़ का सामना करने में असमर्थ है। गौरतलब है कि विधि आयोग ने 1987 में ही सिफारिश की थी कि प्रति 10 लाख लोगों पर 10 न्यायाधीशों के तत्कालीन स्तर को बढ़ाकर 50 करना होगा। न्यायमूर्ति ठाकुर ने इसका जिक्र करते हुए कहा, ''लेकिन ऐसा नहीं हुआ।''
विधि आयोग की सिफारिश के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी वर्ष 2002 में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने का समर्थन किया था। यहां तक कि प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संसदीय स्थायी समिति ने प्रति दस लाख लोगों पर न्यायाधीशों का अनुपात 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश भी की थी।
जिला अदालतों में दो करोड़ से भी अधिक मामले लंबित हैं जिनमें दो-तिहाई मामले आपराधिक हैं। इस दर से सभी लंबित मामलों को निपटाने में कम से कम दस साल लगेंगे। इन मामलों में से दस प्रतिशत तो दस साल से भी अधिक समय से लंबित हैं। गुजरात में लगभग 25 प्रतिशत मामले दस साल या अधिक समय से लंबित हैं, जबकि सिक्किम और पंजाब में 1 फीसदी मामले दस साल या इससे भी अधिक समय से लंबित हैं। पूरे देश की बात करें तो 18 प्रतिशत मामले 5-10 साल से लंबित हैं और 30 फीसदी मामले 2-5 साल से। दो साल से कम समय से लंबित मामलों की संख्या 42 प्रतिशत है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश की 1,387 जेलों में बंद लगभग 68 फीसदी कैदी विचाराधीन मामलों से जुड़े हैं। इन विचाराधीन कैदियों में 40 प्रतिशत से अधिक बिना जमानत छह माह से भी अधिक समय से जेल में बंद हैं। तीन माह से अधिक समय से जेल में बंद विचाराधीन कैदियों का अनुपात भी 62 फीसदी से बढ़कर 65 फीसदी हो गया है।
एनसीआरबी के मुताबिक विचाराधीन कैदियों के मामले में गोवा, जम्मू-कश्मीर, गुजरात और पंजाब सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं। यहां तीन महीने से अधिक समय से जेल में सड़ रहे विचाराधीन कैदियों का अनुपात 75 प्रतिशत से अधिक है। केरल और त्रिपुरा में ऐसे मामले सबसे कम हैं-33-35 प्रतिशत। इन मामलों के लंबित रहने और बढ़ते जाने की जानकारी के लिए कुछ मामलों पर गौर करना दिलचस्प होगा।
31 जजों की स्वीकृत संख्या के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय में पांच न्यायाधीशों की कमी है। तीन साल के कार्यकाल के बाद न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन के 30 दिसंबर को सेवानिवृत्त हो जाने के बाद स्थिति और बुरी हो गई है। वैसे ही, देश के उच्च न्यायालय महज 601 न्यायाधीशों के साथ काम कर रहे हैं जबकि स्वीकृत संख्या 1,044 है। विधि मंत्रालय ने जो आंकड़े इकट्ठे किए हैं, उनके अनुसार 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 443 पद खाली पड़े हैं। हालत यह है कि आंध्र प्रदेश-तेलंगाना, कर्नाटक, बंुबई, गुवाहाटी, गुजरात, पटना, पंजाब एवं हरियाणा और राजस्थान उच्च न्यायालयों में नियमित मुख्य न्यायाधीशों के बिना ही काम हो रहा है। जिन उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के सबसे ज्यादा पद खाली हैं, वे हैं-पंजाब एवं हरियाणा, कलकत्ता, आंध्र प्रदेश और बंबई।
न्याय विभाग के अनुसार निचली अदालतों में कुल 2,68,51,766 मामले लंबित हैं तो 24 उच्च न्यायालयों में 45 लाख लंबित मामलों का ढेर है। निचली अदालतों, उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में कुल मिलाकर लंबित मामलों की संख्या 3़ 25 करोड़ है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय में वकालत करने वाले वरिष्ठ वकील और बार काउंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य वाई़ आऱ सदाशिव रेड्डी कहते हैं, ''फैसलों में देरी और लंबित पड़े मामले भारत की न्यायिक व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं।'' उनके अनुसार कर्नाटक उच्च न्यायालय में 50 न्यायाधीशों की कमी है।
इसी तरह, जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय को भी न्यायाधीशों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। 17 न्यायाधीशों की कुल स्वीकृत संख्या के मुकाबले यहां केवल आठ हैं। इसी वजह से मामलों के निपटारे और इनकी दैनिक सुनवाई पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में काम कर रहे न्यायाधीशों पर मामलों का जबरदस्त बोझ है। एक पीठ के सामने हर दिन100 से भी अधिक मामले सूचीबद्ध हो रहे हैं। किसी भी जज के लिए सभी सूचीबद्ध मामलों की सुनवाई लगभग असंभव है।
न्यायाधीशों की सबसे ज्यादा कमी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में है। यहां महज 86 जज हैं जो स्वीकृत क्षमता के 50 प्रतिशत से भी कम हैं। नतीजा यह है कि अकेले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दस लाख से अधिक मामले लंबित हैं।
ज्यादातर विचाराधीन कैदी जमानत का इंतजाम न कर पाने की वजह से जेल में बंद हैं। इनमें बड़ी संख्या में गरीब, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं। उनमें से ज्यादातर संपत्ति आधारित जमानत प्रणाली और लचर कानूनी सहायता तंत्र की वजह से बतौर विचाराधीन कैदी जेलों में बंद हैं।
भारत में तीन करोड़ से अधिक लंबित मामलों का अंबार है। यह संख्या ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड्स और क्यूबा की संयुक्त आबादी से भी अधिक है।
वरिष्ठ अधिवक्ता जे़ एस़ अत्री कहते हैं, ''मुकदमों के इस अंबार को निपटाने के लिए कड़े उपायों के अलावा सरकार को सबसे पहले न्यायाधीशों की संख्या बढ़ानी होगी।'' एक अन्य वरिष्ठ वकील जगदीप धनखड़ कहते हैं, ''जजों की संख्या बढ़ाना मामलों के निपटारे के लिए तो ठीक है पर इतना काफी नहीं है। पिछले 20 साल में इसके लिए जरूरी ढांचागत सुविधाएं तैयार नहीं की गईं। फास्ट ट्रेक अदालतें बनाईं पर उनसे समस्याएं भी खड़ी हो गईं। जजों की गुणवत्ता पर असर पड़ा।''
फैसलों में देरी का कारण अदालतों में न्यायाधीशों की पर्याप्त संख्या का न होना बताया जाता है। न्यायाधीशों की कमी दो आयामी रणनीति से दूर की जा सकती है- एक, मौजूदा रिक्त पदों को भरा जाए और दो, न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या बढ़ाई जाए। संवैधानिक ढांचे के मुताबिक निचली अदालतों के लिए न्यायाधीशों का चयन और उनकी नियुक्ति राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों की जिम्मेदारी है।
यह सरकारों की जानी-बूझी लापरवाही है जिसने न्यायपालिका को इस कदर अभावों में धकेल दिया है। न्यापालिका को बजट आवंटनों का महज 0.5 फीसद ही मिलता है।
-राम जेठमलानी, वरिष्ठ अधिवक्ता
इस नौकरी के तमाम आकर्षण हैं-सरकारी आवास, यात्रा भत्ता, चिकित्सा लाभ और ऐसी तमाम सुविधाएं। इसके अलावा, दिल्ली की किसी अदालत का सत्र न्यायाधीश दिल्ली उच्च न्यायालय में भी जज बन सकता है और तब उसका वेतन-भत्ता कहीं बेहतर हो जाएगा। दो दिन चलने वाली इस परीक्षा के जरिये सामान्य ज्ञान के अलावा आवेदकों के सिविल और आपराधिक कानून संबंधी ज्ञान का स्तर पता किया जाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायिक सेवा परीक्षा ली थी। इसमें 7 साल के वकालती अनुभव के 35-45 वर्ष आयु सीमा के अभ्यर्थी बैठे थे।
मामलों के अंबार के पीछे कई अन्य कारण भी हैं। अदालतों में बुनियादी ढांचे का अभाव है। कई अदालतें किराए के भवनों में काम कर रही हैं। अदालतों के लिए इमारतों को बनाने से संबंधित करीब 7,000 प्रस्ताव राज्य सरकारों की मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं।
न्यायाधीशों की कमी से भी मामलों का निपटारा होने में विलंब होता है। न्यायाधीशों पर काम का बहुत ज्यादा बोझ है। एक वरिष्ठ वकील के अनुसार, ''मामलों के निपटारे में हो रही देरी की एक अहम वजह है न्यायाधीशों की अनुपलब्धता।'' उन्होंने कहा कि मामलों को जल्दी निपटाने और लोगों को जल्दी न्याय दिलाने के लिए बड़ी संख्या में न्यायाधीशों की जरूरत है।
अमेरिका में प्रति लाख आबादी पर 151 न्यायाधीश हैं तो 1़ 3 अरब आबादी वाले चीन में भी प्रति दस लाख लोगों पर 170 न्यायाधीश हैं, जो अन्य देशों के मुकाबले कहीं बेहतर अनुपात है।
3 करोड़ मामले लंबित हैं, देशभर की अदालतों मेंं
70 मामलों की हर रोज औसतन सुनवाई करते हैं जज
6 वर्ष तक कम से कम निचली अदालतों में लंबित रहता है कोई भी मामला
13 वर्ष तक का समय लग जाता है, सर्वोच्च न्यायालय में मामला आने और उस पर फैसले में
(स्रोत: भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर का 24 अप्रैल, 2016 को दिया भाषण)
2.5 अेे'सतन
मिनट समय मिल पाता है व्यस्ततम अदालत के जज को एक मुकदमे की सुनवाई के लिए
5 औसतन
44 फीसदी उच्च न्यायालय में, 25 फीसदी निचली अदालतों में व सर्वोच्च न्यायालय में 19 फीसदी जजों की कमी
88 पद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में खाली हैं
40 पद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में खाली हैं
40पद मद्रास उच्च न्यायालय में खाली हैं
37पद पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में खाली हैं
730 पद बिहार की निचली अदालतों में खाली हैं
717 पद गुजरात में निचली अदालतों में खाली हैं
470 पद महाराष्ट्र उच्च न्यायालय में खाली हैं
(स्रोत: 3 मार्च 2016 को एक अतारंकित प्रश्न के उत्तर में लोकसभा में दिया गया सरकार का जवाब, आंकड़े 29 फरवरी 2016 तक के)
5 पैसे और 40 साल की कानूनी लड़ाई
डीटीसी में कंडक्टर रहे रणवीर सिंह यादव पर 40 साल पहले 1973 में एक महिला यात्री से टिकट एवज में 10 पैसे की बजाए 15 पैसे वसूलने का आरोप लगा। मामले में आतंरिक जांच बैठी और कंडक्टर को बर्खास्त करने की सिफारिश की गई। 1976 में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। अब वे 73 वर्ष के हैं। 1990 में वे 'लेबर कोर्ट' से अपनी बर्खास्तगी को गलत ठहराने का मामला जीत गए, लेकिन विभाग की तरफ से इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। संबंधित मामला अभी कड़कड़डूमा अदालत में लंबित है जिसकी सुनवाई 26 मई को होनी है। रणवीर सिंह इस मामले पर अभी तक हजारों रुपए खर्च कर चुके हैं,लेकिन मामले का निबटारा नहीं हो पा रहा ।
देशभर में लंबित 3़128 करोड़ मामलों को निपटाने में भारतीय न्यायपालिका को 320 साल लग जाएंगे। अदालतों में मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है और उन्हें सुनने के लिए पर्याप्त न्यायधीश नहीं हैं।
-न्यायमूर्ति टी. एस. ठाकुर, मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय
छोटा -सी दुर्घटना, 16 साल खराब
दिल्ली के मंडावली इलाके में सन् 2000 में मामचंद के टैंपो से एक व्यक्ति को मामूली चोट लगी। पुलिस ने इस संबंध में 279/338 यानी दुर्घटना में मामूली चोट लगने का मामला दर्ज कर लिया। मामले को चलते हुए 16 साल हो गए हैं आज तक गवाही नहीं हो पाई है। कभी अदालत बदल जाती है,तो कभी न्यायाधीश। मामचंद पिछले 15 साल से हर तारीख पर न्यायालय जाते हैं और वहां से अगली तारीख लेकर वापस आ जाते हैं। जिस व्यक्ति को चोट लगी थी वह बिहार वापस चला गया। ऐसे में अदालत में गवाही नहीं हो पा रही है, नतीजतन मामले में 16 साल से सिर्फ तारीखें पड़ रही हैं। विलंबित न्याय का दुर्लभ उदाहरण।
चेक नहीं भुना,13 साल की सुनवाई
चेक न भुनने के मामले में उच्च न्यायालय के निर्देश हैं कि मामले को छह माह से एक साल के अंदर निबटाया जाए, लेकिन ऐसे कई मामले हैं जो बरसों से लटके पड़े हैं। ऐसे मामलों को 'समरी ट्रायल केस' कहा जाता है जिनका फैसला जल्द से जल्द होना चाहिए। कड़कड़डूमा अदालत में हरबीर सिंह और पंकज मिश्र के बीच 2003 से 50 हजार रुपए का 'चेक बाउंस' का मामला चल रहा है। आरोपी पंकज मिश्रा को तारीख भुगतने के लिए लखनऊ से दिल्ली आना होता है। मामले में कई पेचीदगियां हैं। अभी तक इस मामले की सुनवाई करने वाले कितने ही मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट बदल चुके हैं, लेकिन मामले का निबटारा नहीं हो पा रहा है।
आरोप के साथ ही दुनिया से जाना पड़ा
1994 में दिल्ली के गोकलपुरी इलाके में सुनील कुमार की गाड़ी से एक व्यक्ति टकरा गया, जिसे मामूली चोट आई। पुलिस ने धारा 279/337 के तहत मामला दर्ज कर कार्रवाई की। बरसों तक अदालत में कार्रवाही चलती रही लेकिन मामले का निबटारा नहीं हो पाया। कभी जांच अधिकारी के न आने के कारण तो कभी पीडि़त गैरहाजिरी के कारण। पिछले पांच वर्ष से पीडि़त ने भी अदालत आना बंद कर दिया। अदालत में तारीख पर तारीख लगती रही। पिछले साल सुनील कुमार की मौत हो गई। पर अभी भी मामले का निबटारा नहीं हो पाया है। इस मामले में अभी अदालत में यह लिखकर देना बाकी है कि आरोपी की मौत हो चुकी है। 22 साल तक इस मामले पर अदालत में कार्रवाई चलती रही, पर किसी न किसी वजह से मामला लंबा खिंचता रहा।
'आईओ' पर दबाव
अदालत में गवाही
क्षेत्र में सुरक्षा का जिम्मा
दिल्ली पुलिस के अंतर्गत एक थाने में प्रभारी, अतिरिक्त प्रभारी और इंस्पेक्टर (जांच) होते हैं। इंस्पेक्टर स्तर का अधिकारी हत्या के मामलों की जांच करता है। इसके अलावा चोरी, छिनैती जैसे मामलों की जांच हवलदार या फिर सहायक सब इंस्पेक्टर करते हैं। दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी ने बताया कि एक जांच अधिकारी (आई.ओ.) के पास 15 से 20 मामले होते हैं। क्षेत्र में कानून-व्यवस्था की देखरेख के अलावा आपराधिक मामलों की जांच कर आरोपपत्र बनाने का काम भी इसी अधिकारी को करना होता है। कई मामले वर्षों चलते हैं। आईओ को न्यायालय में गवाही के दौरान भी प्रस्तुत होना होता है। उस पर आरोपपत्र दाखिल करने की भी जिम्मेदारी होती है।
गवाही नहीं तो मामला लंबित
2006 में दिल्ली के भजनपुरा इलाके में संजय कुमार नामकव्यक्ति की कार से टकराकर एक लड़की के आगे के दो दांत टूट गए। इस संबंध में भजनपुरा थाने में मामला दर्ज हुआ। जांच हुई और पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया। जिस लड़की को चोट आई थी वह शादी के बाद ससुराल चली गई। अब इस मामले में आरोपी संजय कुमार पिछले दस वर्ष से अदालत में हर तारीख पर हाजिर हो रहा है लेकिन गवाही न हो पाने के कारण मामला अधर में लटका हुआ है। दस वर्ष की अवधि दौरान आठ से दस न्यायाधीश बदल चुके हैं। इस मामले में भी कभी जांच अधिकारी अदालत नहीं आ पाता तो कभी कोई और वजह होती है, नतीजतन मामला खिंचता जा रहा है।
मकान खाली कराने में छूटा पसीना
मकान या दुकान खाली कराने के एक मामले में एक वरिष्ठ नागरिक को तीन साल लगे। जबकि दिल्ली 'रेंट कंट्रोल एक्ट' के तहत यदि कोई अपने किराएदार से मकान खाली कराना चाहता है तो 41ई एक्ट के तहत वह अपनी जरूरत के लिए जगह की आवश्यकता बताकर उसे खाली करा सकता है। ऐसे मामलों के निबटारे के लिए छह महीने का समय निश्चित है। दूसरे, जिस दिन किराएदार को इस संबंध में समन मिलता है, उसे 10 दिन के अंदर 'लीव टू डिफेंड' दाखिल करनी पड़ती है। जिस पर अदालत को कार्रवाही कर छह महीने के अंदर कब्जा हटाने का निर्देश देना होता है। इस मामले में वादी 'सीनियर सीटीजन' राजकुमार थे। उन्होंने अपनी दुकान खाली कराने के लिए याचिका दायर की थी। दुकान डॉ. शशि चलाती थीं। किराएदार को समन होने के बाद भी अदालत की तरफ से आदेश देने में तीन साल का वक्त लगा। आदित्य भारद्वाज
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