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युवा आकांक्षाओं का ईंधन फूंककर आंदोलनों की मशाल लहराती वामपंथी राजनीति जब उन्माद में झूम रही थी, दिल्ली की टीना डाबी उस वक्त अपनी किताबों में डूबी थीं। 22 वर्ष की टीना ने इस वर्ष संघ लोक सेवा परीक्षा (यूपीएससी) में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है।
जिस दौरान कश्मीर में आईएस के काले झंडे लहराने और 'भारत माता की जय' पर रार मचाने वाले सड़कों पर थे, उस समय अनंतनाग के अपने घर के किसी कोने में अतहर-आमिर-उल-शफी खान इसी मातृभूमि की सेवा के सपने संजो रहे थे। लोक सेवा परीक्षा में अतहर अखिल भारतीय स्तर पर दूसरे स्थान पर रहे हैं।
भारतीय राजस्व सेवा में कार्यरत जसमीत सिंह संधू ने अपने वर्तमान पद से और ऊंची छलांग लगाई और यूपीएससी नतीजों की घोषणा के बाद अब वे भी शीर्ष भारतीय प्रशासनिक सेवा का हिस्सा हैं। देशभर के प्रतिभागियों में उन्होंने तीसरा स्थान प्राप्त किया है।
क्या ये सिर्फ नाम हैं? जी नहीं। घटनाओं को राजनीतिक तौर पर भुनाने का कोई मौका होता और नाम कुछ ऐसे ही होते तो मीडिया और राजनीति के हथकंडेबाजों ने शायद अनुसूचित जाति, महिला, मुस्लिम और अल्पसंख्यकों के खांचों में बांटकर देखना शुरू कर दिया होता… लेकिन किसी अखिल भारतीय परीक्षा में भारतीय युवा शक्ति के विभिन्न वगार्ें के जोरदार प्रदर्शन को कैसे देखा जाएगा?
यदि वर्गीकरण किया तो? मुस्लिम, महिला, अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति अगर सब आगे बढ़ रहे हैं तो देश किस दिशा में जा रहा है!! दिशा और संकेत सही हैं तो इसकी चर्चा क्यों न हो? मगर ऐसी चर्चाएं होती कहां हैं? सूखे से लड़ने वाले देहाती जलयोद्धा, समाज को शिक्षित बनाने की अलख जगाए कोई ग्रामीण महिला, नए-नए अविष्कारों में जुटा कोई अनपढ़ होनहार, या प्रतियोगी परीक्षाओं में कमाल दिखाने वाले हमारे बच्चे…अच्छी प्रेरक कहानियों की कमी नहीं है। किन्तु मीडिया में ऐसी खबरें कहां-कितनी दिखती हैं? अच्छी-सच्ची, देश को एक नजर से देखने वाली, सबके मन में भरोसा जगाने वाली खबरों का मानो अकाल-सा पड़ गया है!
त्रासदियों के मलबे से भी राजनीतिक नफे-नुक्सान के लिए नकारात्मक खबरें ढूंढ लाने वालों को क्या अच्छी, प्रेरक खबरों में अपने लोकतंत्र की वह शक्ति और सार्थकता नहीं देखनी चाहिए जहां सबके बढ़नेे के संकेत दिख रहे हैं, नई आशाओं के अंखुए फूट रहे हैं?
भारतीय राज-समाज में परिवर्तन के इस दौर में सिर्फ कुनबा राजनीति की हनक नहीं टूटी, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के सामने भी नई तरह की चुनौतियां आई हैं। वंशवादी राजनीति के साथ-साथ बढ़ा 'मीडिया घरानों' का व्याप सोशल मीडिया के ' त्वरित सत्य' के सामने छोटा पड़ने लगा है।
नकारात्मकता और पक्षधरता से परे मीडिया और दलीय राजनीति क्या बदलाव की इस आहट को सुन पा रहे हैं? उठापटक और मौके के मुताबिक झट से बदलना राजनीति का स्वभाव है, उसकी पहचान है लेकिन पत्रकारिता, या कहें मीडिया, इसकी अपनी साख है। यह राह सच की हमराह है, सत्ता की राजनीति के साथ मीडिया चले जरूरी नहीं।
खास किस्म की पक्षधरता, अच्छी, सच्ची खबरों को पचा जाने और समाज विभाजक या अरुचि पैदा करने वाली खबरों को उछालने के चलन ने राजनीति को कोई खुराक दी हो न दी हो मीडिया के प्रति दर्शकों, श्रोताओं, पाठकों की अरुचि को बढ़ाया है। यह बात मीडिया के कर्णधारों को समझनी पड़ेगी।
राजनीति समाज से बड़ी नहीं है। इसलिए समाज की रुचि और सरोकारों को छोड़ना और राजनीति का पिछलग्गू होना मीडिया के लिए घातक है। कुख्यात राडिया टेप की उजागर कहानियां और अगस्ता सौदे में पत्रकारों के दबे नाम राजनीति से ज्यादा सटकर चलने वाले पत्रकारों के कारण मीडिया को लगे कलंक ही तो हैं!
22 मई को नारद जयंती है। सदा चलते रहने वाले, सबके सुख-दुख की खबर रखने और खरी बात कहने वाले ब्रह्मांड के प्रथम पत्रकार देवर्षि नारद के सूत्र नए दौर में मीडिया के लिए ज्यादा प्रासंगिक हो गए लगते हैं।
सच पढ़ने के लिए बेचैन पाठक पन्ना पलटे या हर चैनल पर तमाशे और पैरोकारी से परेशान दर्शक रिमोट का बटन दबाकर न्यूज चैनल से सदा के लिए दूर हो जाए, इससे पहले यह वक्त जागने का है।
खुद जागने के बाद भी अच्छी खबरों के साथ लोगों को जगाने में ही तो पत्रकारिता का असली आनंद है। मीडिया को अंतत: जागना ही है।
आइए, अच्छी खबरों का इंतजार करें।
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