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हिन्दुओं का पुराना स्वभाव है कि जब तक पानी गले तक ना आ जाये, तब तक वे तैरना नहीं सीखते। हमारी सामाजिक स्थिति के दायरे पर जरा एक नजर दौड़ाएं। प्राय: 20 प्रतिशत अनुसूचित जातियां, आठ प्रतिशत अनुसूचित जनजातियां। देश का 98वें प्रतिशत विघटनवादी, मतांतरणवादी, आतंकवादी तथा अलगाववादी घटनाक्रम केवल इन क्षेत्रों में घट रहा है। यदि 8 प्रतिशत से अधिक जनजातियों को ही लिया जाए तो कुपोषण, महिला उत्पीड़न, एडस, बाल मृत्यु दर एवं अशिक्षा के साथ-साथ विद्रोही संगठनों की सर्वाधिक संख्या उन्हीं के बीच मिलती है। हम यह भूल जाते हैं कि दुनिया की शक्तिशाली मजहबी ताकतें अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बीच शेष समाज के प्रति नफरत और विघटन फैलाने के लिए विभिन्न माध्यमों से सक्रिय हैं जिनमें एनजीओ, मतांतरण की चर्च केन्द्रित एजेंसियां तथा सरकारी अनुदानों पर बरसों से काम कर रहे वामपंथी अतिवादी मानसिकता वाले शिक्षा और संस्कृति क्षेत्रस्थ संगठन हैं। यदि कुछ लोगों को अभी भी हिन्दू धर्म के प्रखर ध्वजवाहक कंधमाल के स्वामी लक्ष्मणानंद जी का स्मरण हो तो उन्हें ध्यान होगा कि उनकी निर्मम हत्या में माओवादियों के स्थानीय अतिवादी ईसाई संगठनों के साथ गठजोड़ का निर्णायक हाथ रहा। आश्चर्य तो इस बात का है कि कभी किसी ने इन प्रश्नों को नहीं पूछा कि आज तक माओवादी जिहादी हिंसा का निशाना गैर हिन्दू क्यों नहीं बने या क्यों गैर हिन्दुओं के संदर्भ में उनकी सुधारवादी तड़प प्रकट नहीं होती? दुनियाभर के सुधारवादी प्रयोग एवं आतंकवादी निशाने केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों पर ही क्यों केन्द्रित होते हैं?
दु:ख इस बात का है कि हिन्दू समाज में अपने ही विघटन और शरण के संबंध में वाणी विलास का वर्चस्व है। अनुसूचित जातियों के लोगों पर दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे अत्याचार हम सबको कितना व्यथित करते हैं? तमिलनाडु में शंकर और कौशल्या का विवाह हुआ। कौशल्या तथाकथित बड़ी जाति से थी। शादी के कुछ महीने बाद शंकर की निर्मम हत्या कर दी गई। कितने लोगों ने इस इस पर शोर मचाया? कितने लोगांे ने अपनी बात सामने रखी?
पिछले दिनों जो घटनाएं हुईं, उनसे एक बात स्पष्ट है कि इस देश में हिन्दू धर्म को तोड़ने के लिए जिहादी-वामपंथी और जाति का जहरीला दुश्चक्र बहुत सोचे, समझे तरीके से फैलाया जा रहा है और हम सोमनाथ विध्वंस के समय की मानसिकता से उबरने के लिए तैयार नहीं हैं।
इस परिदृश्य में स्वतंत्रता के बाद यदि सबसे बड़ा असाधारण और अभूतपूर्व समरसता का अभियान चला है तो वह डॉ. हेडगेवार के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय अनुयायियों द्वारा ही संपोषित है। पिछले दिनों मैं तमिलनाडु की यात्रा पर गया था तो वहां के अनुसूचित जाति समाज के नेताओं में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के इस वक्तव्य की बहुत तीव्र चर्चा थी जिसमें उन्होंने कहा था कि हिन्दू समाज में एक मंदिर और एक श्मशान घाट सब जातियों के लिए हो। जाति के आधार पर दो मंदिर और दो श्मशान घाट हिन्दू धर्म की मूल भावना के विरुद्ध हैं। उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु में अनेक किसान जातियों में दो गिलास और दो श्मशान घाट की व्यवस्था चलती है। अनेक स्थानों पर तथाकथित उच्च जाति के लोग उन जातियों, जिन्हें वे अपने अहंकारवश छोटा मानते हैं, के मृतकों की अंतिम यात्रा के लिए भी स्थान नहीं देते। अंतिम संस्कार के लिए उन्हें अपनी जाति के श्मशान घाट पर जाना पड़ता है। भावगत जी के बयान के बाद अत्याचार, उत्पीड़न एवं भेदभाव की शिकार इन तमाम जातियों में आशा की लहर दौड़ी। तृतीय सरसंघचालक श्री बाला साहेब देवरस ने कहा था कि यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो कुछ भी पाप नहीं है। आज भारत वर्ष में सर्वाधिक दहेज रहित आजातीय विवाह यदि कहीं होते हैं तो वे स्वयंसेवक परिवारों में होते हैं। इसके बावजूद समस्या की विकरालता इतनी ज्यादा है कि उसके लिये विराट स्तर पर सामूहिक मन परिवर्तन का अभियान आवश्यक होगा।
और इस अभियान के लिए सामने आए हैं भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी। रा.स्व.संघ के संस्कारों में रचे-पगे श्री नरेन्द्र भाई मोदी ने डॉ. भीमराव आंबेडकर के मार्ग को इतनी अच्छी तरह से समझा और हृदयंगम किया कि वे स्वतंत्र भारत के ऐसे प्रथम प्रधानमंत्री हुए हैं जिन्होंने डॉ. आंबेडकर की कीर्ति और कार्य को लंदन से महू तक सशक्त भक्तिभाव से प्रसारित करने का सफल बीड़ा उठाया है। नरेंद्र भाई मोदी द्वारा डॉ. आंबेडकर की स्मृति से जुड़े पांचों महत्वपूर्ण स्थानों को पंचतीर्थ घोषित किया जाना, 26 दिसंबर को डॉ. आंबेडकर की स्मृति में संविधान दिवस को संविधान दिवस घोषित करना, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों पर अत्याचार निरोधक कानून को ऐतिहासिक दृष्टि से प्रभावी और धारदार बनाना, इनके प्रति अत्याचार करने वालों को कड़ी सजा देने के लिए विशेष अदालतों, विशेष वकीलों का प्रावधान ही नहीं किया जाना बल्कि पीडि़तों की सुरक्षा, और उन्हें अदालती कार्रवाई के लिए रुकने, रहने आदि की सुविधा तक देना- ये प्रावधान केवल भारत में नहीं विश्व के इतिहास में भेदभावग्रस्त समाज के लिए पहली बार किये गए हैं। इन क्रांतिकारी कदमों का भारतीय समाज की समरसता और एकता के लिए निश्चय ही महत्वपूर्ण योगदान होगा, इसमें संदेह नहीं। लेकिन इस क्षेत्र में सफलता के लिए हम सबको अपना मानस पहले बदलना होगा। तरुण विजय(लेखक राज्यसभा सांसद हैं)
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