|
'कम्युनिस्ट पार्टी गांव', यह सुनने में अजीब लगता है कि नहीं? लेकिन कन्नूर में यह वास्तविकता है। माना जाता है कि आसपास के 40 गांवों में माकपा का ऐसा वर्चस्व है कि वहां कोई दूसरा राजनैतिक दल काम नहीं कर सकता। पट्टायम, मोकरी, किलाक्के कथिरूर, कय्यूर, चिकोली, पंथाक्कल, मद्दपदीका, पोक्कोम, पराद, मन्नतरी आदि ऐसे ही कुछ गांव हैं। कुछ इलाकों में आपका स्वागत साइन बोर्ड से होता है जिस पर लिखा होता है-''कम्युनिस्ट पार्टी गांव में आपका स्वागत है।'' यहां वास्तविक फासीवाद है लेकिन यह किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता की परेशानी की वजह नहीं बनता। यहां कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा किसी राजनैतिक दल को अपना झंडा, पोस्टर खुलेआम लगाने की अनुमति नहीं है। यह और कुछ नहीं केवल हमारे संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन ही है। यहां पता चलता है कि केरल में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किए जाने वाले विकास के दावे कितने खोखले हैं। केरल के गठन काल से ही इन गांवों में कम्युनिस्टों का राज रहा है। कम्युनिस्ट नेता सामंती जमींदारों सा व्यवहार करते हैं। राज्य के दूसरे हिस्सों की तुलना में यहां की सड़कों, स्कूलों व अस्पतालों की स्थिति दयनीय है। गांवों के जगह जगह पार्टी कार्यालय देख जा सकते हैं। यह मार्क्सवादी रणनीति है कि इलाकों को अविकसित रखा जाए ताकि लोगों की बेरोजगारी व पिछड़ेपन का लाभ उठाया जा सके। यदि इन गांवों में कम्युनिस्ट पार्टी की अनुमति के बिना कोई प्रवेश करता है तो उसे एक घुसपैठिए की तरह देखा जाता है और उस पर माकपा द्वारा तैनात किए गए उनके कार्यकर्ता कड़ी निगरानी रखते हैं। यहां सभी बस स्टैंड लाल रंग से पुते हैं। यहां की सभी दीवारें माकपा के पोस्टरों और चित्रकारियों के लिए आरक्षित हैं। गांवों में माकपा के चुनाव चिन्ह हंसिया हथौड़े बड़े-बड़े आकार में लगे दिखते हैं। यहां तक कि सड़कों का नाम भी दिवंगत कम्युनिस्ट नेताओं के नाम पर रखा हुआ है। यहां की गलियों में घूमते हुए आपको यदि मास्को जैसी अनुभति हो तो हैरान होने की जरूरत नहीं है। आखिर ये कन्नूर क्षेत्र में 'पाटी गांव' जो हैं। सोवियत तर्ज पर वे अपने बच्चों, जगहों और वाहनों के नाम रख रहे हैं। सड़कों पर आपको बहुत से कॉपरेटिव बैंक, कोपरेटिव सर्विस सोसाइटी, और लाइब्रेरी दिखाई देंगी जो पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं के आय के बड़े साधन हैं। ये संस्थाएं माकपा द्वारा संचालित होती हैं और इनमें पार्टी कार्यकर्ताओं, गुंडों और खास रिश्तेदारों को विभिन्न पदों पर तैनात किया जाता है। इन गांवों में काननू और नियमों का सीधे तौर पर हनन होता है। यहां पर पुलिस की भूमिका न के बराबर है, पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ता ही पूरे प्रशासन को अपने हिसाब से चलाते हैं। लाइब्रेरी और अध्ययन कक्ष को मिलने वाले अनुदान पार्टी खाते में जोड़ा जाता है। सामाजिक बहिष्कार ऐसी एक दिक्कत है जो संघ तथा भाजपा जैसी अन्य राजनैतिक विचारधाराओं के कार्यकर्ताओं अथवा समर्थकों को झेलनी पड़ती है। उन पर सामाजिक कार्यों, शादी, दावत, यहां तक अंतिम संस्कार के लिए भी प्रतिबंध लगा दिया जाता है। इन गांवों में बड़ी संख्या में संघ, भाजपा कार्यकर्ताओं व गैर कम्युनिस्टों की हत्या हो चुकी है। इसी वजह से कन्नूर में कई दशकों से शांति को भी खतरा पहुंचा है।
लोग इनके भय के कारण घरों से बाहर नहीं निकल सकते थे। हालांकि अब ग्रामीण आगे बढ़ रहे हैं। लगता है माकपा के वर्चस्व वाले इन गांवों की तादाद भविष्य में कम होगी। अतीत की तरफ नजर दौड़ाएं तो रा.स्व.संघ, जनसंघ और भाजपा का वर्चस्व बढ़ने के साथ इन गांवों की संख्या भी कम हो रही है। स्वयंसेवकों के अथक प्रयत्नों और कार्यों का ही परिणाम है कि माकपा के ऐसे गढ़ धीरे-धीरे उदारवाद की ओर बढ़ रहें हैं। सभी राजनीतिक दलों के लिए इनके दरवाजे खुलने लगे हैं। लेकिन इस क्षेत्र में संवैधानिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए लगभग 80 स्वयंसेवकों को अपने जीवन की कीमत चुकानी पड़ी है।
टिप्पणियाँ