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यहां सभी धर्मों, विश्वासों व पूजा के तरीकों के लिए जगह है. ऐसा इसलिए क्योंकि अभिव्यक्ति और आस्था की स्वतंत्रता भारतीय सभ्यता और परंपरा के सबसे बड़े वाहक हैं
शाहिद सिद्दीकी
सभी अपने लिए अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं लेकिन दूसरों को देना नहीं चाहते। जेएनयू मामले पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हाल का विवाद और सहिष्णुता को लेेकर हुई बहस में यही बात सामने आई। कोई भी देश, समाज, लोेकतंत्र अथवा राष्ट्र अभिव्यक्ति की निर्बाध, अनियंत्रित और पूर्ण स्वतंत्रता बर्दाश्त नहीं कर सकता। अराजकतावादी पूर्ण अधिकार की बात तो करते हैं लेकिन वास्तविकता में वे भी इसे स्वीकार नहीं कर सकते। भारतीय समाज मूल रूप से सहिष्णु समाज है। सिद्घांत और व्यवहार दोनों में ही वैदिक धर्म एक सहिष्णु दर्शन है। इसने मान्यताओं और रीति रिवाजों में मतभेदों को न केवल स्वीकार किया है बल्कि उनका बचाव किया, उन्हें प्रोत्साहित किया है। लचीला और उदार चरित्र वैदिक धर्म की सबसे बड़ी ताकत रही है।
यहां सभी धमोंर्, विश्वास, पूजा के तरीकों के लिए स्थान है। ये केवल इसीलिए संभव हो पाया क्योंकि अभिव्यक्ति और आस्था की स्वतंत्रता 'भारतीय सभ्यता' और 'परंपरा' के सबसे बड़े स्तंभ हैं। हिंदू धर्म ने उन्हें भी स्वीकार किया है जो नास्तिक हैं और इसके मूल विचार पर सवाल उठाते हैं। यहां इस्लाम और ईसाइयत को न खारिज किया गया ना ही उन्हें रोकने की कोशिश की गई बल्कि उन्हें भी सर्वशक्तिमान निर्माता या बह्म तक पहुंचने के अनेक मागोंर् में से एक मार्ग मान लिया गया।
भारत के संविधान ने ये अधिकार भले ही अनुच्छेद 19, 20, 21 और 22 के तहत दिए हैं लेकिन देश के लोगों को ये अधिकार हमारी संस्कृति और धार्मिक परंपराओं से मिला है। भारतीय शासक और राजा हमेशा ही सहिष्णु अथवा आस्था एवं विचारों की आजादी के पक्षधर नहीं रहे, और अत्याधिक निरंकुश राजा भी लंबे समय तक असहिष्णु राजनैतिक व्यवस्था लागू नहीं रख सके। मुसलमान शासक, पहले शासक कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर तक, सभी ने सहनशील इस्लाम का पालन किया। विभिन्न मुसलमान राजवंशों के शासन के दौरान भी सूफी संतों ने शासकों के इस्लाम के राजनीतिक संस्करण को चुनौती दी। मुसलमान शासकों ने ईसाइयत, पारसियों और यहुदियों जैसे विभिन्न धर्म और धर्मावलंबियों को न केवल बर्दाश्त किया बल्कि उन्हें भारत में फलने-फूलने और बसने दिया।
भारतीय संविधान ने न केवल इन तमाम 'आजादियों' को संहिताबद्घ किया है बल्कि इनकी सीमा भी तय कर दी है। अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति के अधिकार को उचित ढांचे में रखा गया, अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता पर शालीनता और नैतिकता, सार्वजनिक व्यवस्था, अपराध की हद तक ले जाने वाली उत्तेजना, राज्य की सुरक्षा, भारत की संप्रभुता और समग्रता को ध्यान में रखते हुए उसकी हदें तय की गईं, बाद में आइपीसी की विवादास्पद धारा 124 (ए), के माध्यम से राजद्रोह कानून को भारतीय कानून का हिस्सा बनाकर इसे सीमित कर दिया गया।
जेएनयू में कुछ लोगों ने ऐसे नारे लगाए, जिससे उनपर राजद्रोह का कानून लगाया गया लेकिन राजद्रोह कानून लगाए बिना भी उनसे निबटा जा सकता था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित तो किया जा सकता है लेकिन भारतीय कानून के तहत इसकी सीमाओं की व्याख्या करते समय हमें सतर्क रहना होगा। सरकार, राज्य अथवा संविधान के प्रति असंतोष, असहमति और कटु आलोचनाओं को लेकर विश्विविद्यालयों को थोड़ी छूट देनी होगी। सही हो या गलत लेकिन यदि कोई कहता है कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है तो उसे राष्ट्रद्रोही कहने और पाकिस्तान भेजने की धमकी देकर उसका डर सही साबित करने के बजाए उसका डर दूर करना होगा।
जो दाईं ओर हैं, वे निंदा करने के अधिकार का समर्थन करते हैं और किसी खास आस्था का मजाक बनाते हैं उन्हें ऐसे किसी अधिकार की नैतिक सीमाओं को समझना होगा। और जो बाईं ओर हैं जो भारत देश और उसके संविधान की निंदा कर अपनी आजादी की बात करते हैं, उन्हें समझना होगा कि ऐसी आजादी केवल अराजकता और उथल-पुथल की ओर ले जाएगी। मीडिया को भी इस बात का एहसास होना चाहिए कि ऐसे नाजुक मामलों को सनसनीखेज बनाकर पेश करना लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया के अस्तित्व के लिए ही खतरा है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी सरकार से कोई खतरा नहीं है क्योंकि भारतीय समाज, संस्कृति और धार्मिक लोकाचार हमें इसे प्रति आश्वस्त करते हैं। सहनशीलता और असहमत होने की आजादी भारत के डीएनए में हैं या यदि मैं स्पष्ट कहूं तो यह वैदिक धर्म और दर्शन की बुनियाद में निहित है। इसे भारत के लोगों से कोई भी सरकार नहीं छीन सकती ।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य और दिल्ली से प्रकाशित उर्द्ू पाक्षिक 'नई दुनिया' के मुख्य संपादक हैं)
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