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भारतीय संविधान के जनक बाबा साहेब समाज में प्रत्येक व्यक्ति के सम्मान और स्वाभिमान के पक्षधर थे। वे न पूंजीवाद का समर्थन करते हैं न अंध मार्क्सवाद का। जिस बौद्ध पंथ को बाबा साहेब ने जीवन के अंतिम समय में अंगीकार किया उसमें भी वे मानवता की श्रेष्ठ समता के गुण को प्रमुख मानते हैं। जहां जीव और प्राणी में कोई भेदभाव नहीं है
वमसी तिलक
श्रद्घेय डॉ़ बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की जीवन यात्रा त्याग, जिम्मेदारी के भाव के साथ-साथ नैतिक आत्मसंयम से भरपूर है। उनकी नेतृत्व एवं संगठनात्मक क्षमता असाधारण थी, लेकिन दुर्भाग्यवश उनके बारे में भ्रांतियों की कमी नहीं। उनके व्यक्तित्व पर बेहिसाब बहसें देखने-सुनने को मिलती हैं और यहां तक कि बौद्घिक वर्ग भी उनके योगदान को पहचानने से इनकार करता है। बाबासाहेब का व्यक्तित्व उच्च बौद्घिकता एवं करुणा का अद्भुत
संगम था।
उस समय सामाजिक-आर्थिक असंतुलन को बढ़ावा देने वाली ताकतें चरम पर थीं और केवल अपने व्यक्तित्व के बल पर बाबासाहेब ने उनका सामना किया। ऐसी परिस्थितियों में कोई भी अन्य साधारण व्यक्ति घुटने टेक देता। बाबासाहेब द्वारा उन ताकतों के विरुद्घ उठाई गई आवाज के दम पर ही दमित वर्ग को समाज में स्थान प्राप्त हुआ और कुछ हद तक इज्जत एवं प्रतिष्ठा के साथ जीने का अधिकार प्राप्त हुआ।
यहां बता देना जरूरी है कि जाति, वर्ण एवं वर्ग के आधार पर विभेद केवल हिंदू धर्म तक ही सीमित नहीं है। अन्य धमार्ें में भी सामाजिक असमानताएं मिलती हैं। अस्पृश्यता का जिक्र रोमन इतिहास में भी मिलता है। क्या आप जानते हैं कि रोमन समाज में जनता को वगार्ें में विभक्त किया गया था। (1) पैट्रीशियन्स, (2) पाइबियन्स, (3) क्लाइन्ट्स, (4) स्लेव्ज, (5) फ्रीमेन। जमींदार वर्ग ही नागरिक अधिकार प्राप्त थे एवं धनिक रोमन उसे माना जाता था जिसके पास अधिकाधिक गुलाम होते थे। तो क्या ईसाइयत अपने इस काले अध्याय को भूल कर दूसरों पर आक्षेप लगाने को मुक्त हो सकती है? इतिहासकारों द्वारा न्यू टेस्टामेंट (ईसा मसीह की मृत्यु के 10-20 वषार्ें के भीतर लिखी गई) के सबसे पुरातन कायार्ें में से माने जाने वाले दस्तावेज में लिखा गया है, 'यह यहूदी थे जिन्होंने प्रभु ईसा को मारा' (अत: मैथ्यू, मार्क, ल्यूक एवं जॉन के गॉस्पल्स में ईसा की मौत की जिम्मेदारी यहूदियों पर थोपी गई है)। यह तथ्य ईसा के अभियान के दिनों से ईसाइयत के बुनियादी साहित्य तक मिलते हैं जिनके आधार पर लाखों यहूदियों को मृत्यु के घाट उतारा गया था। मानवीय करुणा का दम भरने वाली ईसाइयत का एक रूप यह भी है।
मैं आश्वस्त कर देना चाहता हूं कि आंबेडकर का बुद्घ धर्म ईसाइयत एवं इस्लाम की अपेक्षा हिंदू मान्यता के निकट है। भगवान बुद्घ की धर्म की अवधारणा काफी अलग थी। वह व्यक्ति की सोच में परिवर्तन के पक्षधर थे और उम्मीद करते थे कि व्यक्ति जो भी कृत्य करे वह किसी भी बाहरी शक्ति या मजबूरी के बिना उस पर अमल करे। वहीं आंबेडकर का विश्वास था कि मानवता को न केवल आर्थिक मूल्यों की जरूरत है बल्कि उसे अपने आध्यात्मिक मूल्यों को भी सहेज कर रखना चाहिए। आंबेडकर के भाषणों को गौर से पढ़ते हुए (14 अक्तूबर 1956, नागपुर) एवं स्वामी विवेकानंद का अध्ययन करते हुए स्पष्ट होता है कि दोनों चाहते थे कि व्यक्ति भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों संपत्तियों से परिपूर्ण होकर विकसित हो। आंबेडकर ने कार्ल मार्क्स को नकारा है जो सभी पिछड़े देशों में रूसी तानाशाही का सपना देखते थे। आंबेडकर लिखते हैं, 'हम रूसी क्रांति का स्वागत करते हैं क्योंकि यह समता की पक्षधर है, लेकिन हम इस बात पर भी जोर देना चाहते हैं केवल समता की बात करना और बंधुत्व एवं स्वतंत्रता को भूल जाना उतना ही खतरनाक होगा। समता, बंधुत्व एवं स्वतंत्रता बुद्घ के मार्ग को अपनाकर ही बनी रह सकती हैं, परंतु वामपंथ इनमें से एक को ही फलीभूत करता है, तीनों को नहीं।'
हालांकि इन तथ्यों के समकक्ष भी कुछ अन्य तथ्य हैं। प्राचीन रोमन कैथोलिक अमीर और गरीब के बीच में कुछ इस हद तक पक्षपात करते थे कि दमित वर्ग ने विरोध स्वरूप अपने बच्चों एवं संबंधियों को प्रोटेस्टेंट ईसाइयों के तौर पर शपथ दिलानी शुरू कर दी थी। बाबासाहेब ने सभी दमितों को शिक्षा प्राप्ति, संगठित होने एवं संघर्ष करने का नारा दिया था। उन्होंने कहा था कि जब तक तुम अशिक्षित हो, तुम संंगठित नहीं हो सकते और जब तक तुम असंगठित हो तब तक समानता के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते।
बाबासाहेब पक्के देशभक्त भी थे और संविधान के प्रति उनकी संपूर्ण निष्ठा थी। संविधान के मूल अधिकारों का लक्ष्य समाज के सभी तबकों की स्वतंत्रता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना है। डॉ़ आंबेडकर का कहना था कि विधायिका की जिम्मेदारी मूल अधिकार प्रदान करना ही नहीं, बल्कि उससे भी अधिक जरूरी, उनकी रक्षा करना है। इसलिए यह समझना भी जरूरी होगा कि जाति आधारित आरक्षण असमानता नहीं बल्कि समानता की दिशा में काम करता है।
आंकड़ों की जुबानी भी यह साबित हो चुका है कि जाति व्यवस्था के कारण समाज में गहरी असमानता देखी गई है। इसलिए दमित वर्ग को समाज का प्रतिनिधित्व करने का उचित अवसर दिया जाए ताकि वह देश की आर्थिक गतिविधियों में सहयोग कर सके।
इसके साथ ही, मैं यह भी कहना चाहूंगा कि छद्म दलित अभियान ही हिंदू धर्म की कमियां तलाशते हैं जिनके कारण दलित वर्ग उग्र होकर विरोध करता है। मैं कम्युनिस्टों एवं ईसाइयत अपना चुके उन छद्म दलितों से कहना चाहूंगा कि वह एकबारगी सोचें कि क्या सचमुच अन्य धर्म लिंग विभेद एवं महिलाओं के प्रति सम्मान के बारे में इस्लाम की तरह पुरातनपंथी हैं। ईसाइयत की ओर मुड़ चुके दलित जाति व्यवस्था के चंगुल से मुक्त नहीं हो सके, जो कि केवल हिंदू धर्म तक सीमित न होकर, खुद भारतीय समाज में गहरे से घर कर चुकी है। ईसाइयत की विभिन्न शाखाएं भी, अपनी प्रथाओं एवं कसौटियों में, ऐसी ही जाति व्यवस्थाओं के घेरे में रहती हैं। जरा सोचिए, उत्तरी भारत के एक चर्च में दलित धर्मशास्त्र की हिमायत करने वाला एक दलित ईसाई जो ईसाई धर्मशास्त्र पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व की आलोचना करता है। उसका मानना है कि भारत में पक्षपातहीन धर्मशास्त्र अध्ययन में उन दलितों के संघर्ष का जिक्र भी होना चाहिए जो देश की 70 प्रतिशत ईसाई आबादी हैं। वह दलित अभियान के उन मार्क्सवादी पक्षों की भी आलोचना करता है जो केरल जैसे राज्य में राजनीतिक तौर पर सफल रह चुके हैं।
सच यह है कि आंबेडकर ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ थे। मीडिया में सुनाई पड़ने वाला शोर ऐतिहासिक तथ्यों का सीधा-सीधा हनन है जिसके आधार पर बड़े झूठ परोसे जाते हैं और जो देश को जाति एवं अन्याय की ओर धकेलते हैं। इन समस्याओं के उपचार स्वरूप आध्यात्मिक मूल्यों को स्थानीय भाषाओं में प्रसारित किया जाना चाहिए ताकि उसे सभी पढ़ें और समझ सकें। हमारे गं्रथों की व्याख्याएं कुछ इतने भ्रष्ट तरीके से विस्तारित की गई हैं जिससे उनका ज्ञान संस्कृतिविहीन तरीके से फैला और वह समाज में सतह पर ही रहा है। कुंठित जीवों को दरकिनार करने वाली विचारधाराओं को सशक्त करना चाहिए एवं सामाजिक समरस्ता को पूरी तरह से अपनाकर उसे मूर्तरूप देना जरूरी है। बाबासाहेब ने संविधान विमर्श के दौरान कहा था कि हमारी सभी जातियों एवं संप्रदायों को देखते हुए मुझे जरा सा भी शक नहीं है कि लोग एकता के महत्व को समझेंगे। भारत के दुर्भाग्यपूर्ण बंटवारे को लेकर उन्होंने कहा था कि वह दिन भी आएगा जब मुस्लिम समाज समझेगा कि एकजुट व सशक्त भारत उनके लिए कहीं बेहतर है।
(एऩ नागराज राव से बातचीत के आधार पर)
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