|
स्वदेशी की अवधारणा और राष्ट्र की चिति के अनुरूप विकास का मार्ग ही एकमेव प्रगति का मार्ग है। पूंजीवाद से इतर, यह वर्ग-संघर्ष नहीं बल्कि वर्ग सद्भाव का भाव जगाता है
डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी
1991 में टूटकर सोवियत संघ जब 16 स्वतंत्र राष्ट्रों में बंट गया और 1995 में जब यूगोस्लाविया चार टुकड़ों में विभाजित हो गया तो एक बात की पुष्टि हो गई कि मात्र विचारधारा के आधार पर सामाजिक एकता व राष्ट्रीयता को अक्षुण्ण रखना संभव नहीं है। इसके पहले 1971 में हुए पाकिस्तान विभाजन व हाल में हुई इण्डोनेशिया की घटनाओं ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि मात्र धर्म के आधार पर भी समाज को एक नहीं रखा जा सकता। श्रीलंका व नाइजीरिया के गृहयुद्ध जैसी स्थिति के उदाहरणों से यह भी देखने में आया है कि नस्ल भी कोई ऐसा गोंद नहीं है जिसके सहारे एक देश-राष्ट्र को बांधे रखा जा सके। अत:इस बात पर विचार आवश्यक है कि वे कौन-से कारक हैं जिनके चलते भारत पिछले 7,000 वर्ष से एक सूत्र में बंधा रहा और आने वाले समय में हम एक राष्ट्र के रूप में संगठित रह सकते हैं? यह विरोधाभास ही है कि एक तरफ विंस्टन चर्चिल से लेकर रिचर्ड निक्सन व चीनी ब्लॉग लेखकों तक, सभी कहते आ रहे हैं कि भारत एक कृत्रिम देश है जो बहुत शीघ्र बिखर जाने वाला है। दूसरी तरफ भारत इतने लंबे काल तक अपनी एकता को सिद्ध करता आ रहा है। यदि दोनों प्रकार के देशों, जो सदैव संगठित रहे व जो बिखर गये, का एक तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि किसी भी राष्ट्र-समाज को भौगोलिक व राजनैतिक रूप से एक रखने के लिये जो सबसे महत्वपूर्ण एकीकरण की शक्ति है वह है-अपनी स्पष्ट पहचान। यह जानना कि हम क्या हैं। इस विचार का निरंतर पोषण, नवीकरण, व पल्लवित किया जाना आवश्यक है ताकि यह सामयिक बना रहे। यूगोस्लाविया व सोवियत संघ का इतिहास बताता है कि इस विचार को जबरदस्ती लोगों के गले नहीं उतारा जा सकता। न ही इसे जर्मनी के हिटलरी अहंकार के तरीके से प्रयोग किया जा सकता है कि राष्ट्र-समाज ही पटरी से उतर जाए। यह भी संभव नहीं कि इस विचार को सदैव के लिए अपरिभाषित/अधूरा मानकर चला जाए।
अभी हाल में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के दिवगंत प्रोफेसर डॉ. सैम्युअल हंटिगटन द्वारा लिखित पुस्तक ('हू आर वी' यानी हम कौन हैं) प्रकाशित हुई है जो अमेरिकी राष्ट्र की परिकल्पना और जीवनक्षमता के बारे में है। उन्होंने कहा है कि अमेरिकी राष्ट्र की जड़ें 'अमेरिकी पहचान' में निहित हैं, जिसके दो आयाम हैं—प्रमुखता व सारगर्भिता। प्रमुखता का अर्थ है अमेरिकी 'राष्ट्रीय पहचान' को अन्य किसी कमतर पहचान (भाषा, क्षेत्र, पेशा आदि) से ऊपर दर्जा देना। वहीं 'सारगर्भिता का अर्थ प्रत्येक नागरिक के लिये यह समझना है कि एक समूह के रूप में अमेरिकी अन्य लोगों से भिन्न हैं। लेखक का मानना है कि जिस समाज में ये दो गुण प्रचुरता में होंगे, वही एक राष्ट्र के रूप में कायम रह सकता है, शेष नहीं।
मेरी राय में भारत को शताब्दियों से एक सूत्र मे बांधे रखने का प्रमुख कारक है 'स्वदेशी' (राष्ट्र को मां समान मानकर तथा 'अपनी' वस्तुओं से लगाव) तथा सारगर्भिता के रूप मे विकेन्द्रीकरण की अवधारणा। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इन दोनों अवधारणाओं को एक साथ पिरोकर एकात्म मानव दर्शन का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसमें उन्होने चिति व समन्वय पर जोर दिया, जिसका सन्देश है 'भौतिक प्रगति व आध्यात्मिक प्रगति में संयोजन।'
1969 में भारतीय जनसंघ के पटना सत्र में मेरे द्वारा प्रस्तुत स्वदेशी योजना ने वामपंथियों को उत्तेजित किया। यह एक बेहद संवेदनशील राष्ट्रीय घटना थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी, जिनके पास वित्त मंत्रालय था, ने 4 मार्च, 1970 को लोकसभा में 1970-71 के बजट अधिवेशन की बहस के दौरान स्वदेशी योजना की निंदा कर मुझे 'खतरनाक' की संज्ञा से नवाजा। श्रीमती इंदिरा गांधी मेरे उस सिद्धांत से नाराज थीं जिसके अनुसार अगर भारत ने प्रतिस्पर्धा बाजार आर्थिक प्रणाली के लिये समाजवाद को छोड़ा, तो भारत में प्रतिवर्ष 10 प्रतिशत की वृद्धि दर से बढ़ने, आत्मनिर्भरता हासिल करने और परमाणु हथियारों के उत्पादन की क्षमता है।
मेरी स्वेदशी योजना पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव दर्शन से प्रभावित थी। श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी ने इस पर विशेष टिप्पणियां की थीं। वास्तव में श्री गुरुजी (सरसंघचालक,1940-1973) ने काफी पहले ही मानव समाज पर भौतिकवादी दृष्टिकोण के प्रभाव को देख लिया था। वैश्वीकरण के उस उपभोक्तावाद का एहसास कर लिया था, जिसे हम वर्तमान में महसूस कर रहे हैं। उन्होंने भौतिक जीवन के लिये आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के समन्वय पर जोर दिया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आर्थिक नीतियां हमारे प्राचीन राष्ट्र के आध्यात्मिक मूल्यों के साथ संगत होनी चाहिये। यही विचार दीनदयाल जी ने एकात्म मानव दर्शन के अपने शोध के रूप में विकसित किया।
दरअसल, पूंजीवादी और साम्यवादी, दोनों प्रणालियां आम आदमी के पूर्ण व्यक्तित्व और उसकी आकांक्षाओं को पूर्ण करने में विफल रही हैं। दोनों प्रणालियों में मानवता के साथ खिलवाड़ किया गया है। दीनदयाल जी ने लोकतांत्रिक या 'गांधीवादी' समाजवाद को भी खारिज किया है जो मानव के महत्व को प्रस्तुत करने में असमर्थ रहा है। उन्होंने कहा है, व्यक्ति की आवश्यकताओं और मान्यताओं का समाजवादी प्रणाली में उतना ही महत्व है जितना 'जेल मैनुअल' में होता है। गुरुजी ने कहा कि समाजवादी अवधारणा सर्वहारा वर्ग की तानाशाही नहीं बल्कि एक तानाशाह पार्टी के तानाशाह की तानाशाही है।
1977 में डॉ. महेश मेहता के आमंत्रण पर मैंने न्यूयॉर्क में 'एकात्म मानववाद में आर्थिक परिपेक्ष्य' प्रस्तुत किया जो बाद में डॉ. मेहता द्वारा संपादित एक लेख में प्रकाशित हुआ। मैंने इस शोध और कार्यकलापों पर ही आधारित यह अध्याय लिखा।
आर्थिक नीति की संरचना: पांच आायामी ढांचे में आर्थिक नीति की संरचना इस प्रकार है: (1) उद्देश्य (2) प्राथमिकताएं (3) रणनीति (4) संसाधन जुटाने के उपाय, और (5) संस्थागत वास्तुकला।
आर्थिक नीति के उद्देश्यों के पहले आयाम-पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद और एकात्म मानववाद की समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि सिद्धांत रूप में साम्यवाद लक्ष्य के रूप में राज्य के लिए अधिकतम उत्पादन लेता है जबकि पूंजीवादी विचारधारा में अदृश्य शक्तियां जंगल के कानून की तरह निर्माता के लिए अधिकतम उत्पादन लाभप्राप्ति, योग्य से योग्यतम का बचे रहना और कार्यकर्ता द्वारा भौतिक वस्तुओं की ज्यादा खपत नियंत्रित करती हैं। समाजवादी व्यवस्था में नागरिक के कल्याण के लिए राज्य सरकार बीमारी, मृत्यु, बेरोजगारी के जोखिम पर सुरक्षा की गांरटी देती है। यही समाजवाद के तहत कल्याण की अवधारणा है। दीनदयाल जी ने बताया कि ये सभी लक्ष्य पूरी तरह भौतिकवादी हैं और मानव के विकास के रास्ते में रुकावट हैं। उन्होंने कहा कि मानव विकास को अभिन्न और पवित्रता से देखा जाना चाहिए। इसीलिए दीनदयाल जी ने आर्थिक नीति के प्राथमिक लक्ष्य के रूप में भौतिकवादी लक्ष्यों के आध्यात्मिक अनिवार्यताओं के साथ सम्मिश्रण की वकालत की है।
दीनदयाल जी ने इस तथ्य को उजागर किया कि इस तथ्य को उजागर किया कि भारतीय उद्देश्य की आर्थिक नीतियां किस प्रकार विदेशी विचारधाराओं पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद से अलग हैं।
एक राष्ट्र की चिति की अवधारणा दीनदयाल जी का बहुमूल्य योगदान है। उन्होंने कहा कि चिति राष्ट्र की आत्मा है। प्रत्येक राष्ट्र को आर्थिक नीतियों के सही निर्माण के फैसले करने के लिए राष्ट्र की चिति की जानकारी होनी चाहिए। इस प्रकार एकात्म मानववाद के आर्थिक परिप्रेक्ष्य से पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद अलग हैं। स्वयं दीनदयाल जी के अनुसार-पूंजीवाद और साम्यवाद, ये दोनों प्रणालियां मानव के स्वरूप को, उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को और आकांक्षाओं को जानने में विफल रही हैं। पूंजीवाद स्वार्थी और पैसे के पीछे भागने वाली ऐसी व्यवस्था है जो केवल जंगल का भयंकर प्रतिस्पर्धा का कानून जानती है, जबकि साम्यवाद मनुष्य को एक कमजोर व तुच्छ भोग की वस्तु मानता है।
समाजवाद का उद्भव पूंजीवाद की प्रतिक्रिया के कारण हुआ। लेकिन समाजवाद भी इंसान के महत्व को स्थापित करने में विफल रहा है।
स्वदेशी और विकेन्द्रीकरण, ये दो शब्द वर्तमान परिस्थितियों में आर्थिक नीतियों के लिए उपयुक्त हैं। एकीकृत संदर्भ में विचार करने की जरूरत पर दीनदयाल जी के जो विचार हैं, उन्हें आज के चलन के हिसाब से व्यवस्था विश्लेषण या पश्चिम में समग्र दृष्टिकोण कहा जाता है। उन्होंने जीवन में समानताओं को पहचानने से आदमी को आजाद कराने की जरूरत पर बल दिया है।
आदमी स्वयंभू या अकेला ही नहीं है। दीनदयाल जी ने वर्ग-संघर्ष को अस्वीकृत करते हुए संघर्ष के संकल्प और 'वर्ग-सद्भाव' की जरूरत पर बल दिया है। इसकी आवश्यकता पश्चिमी देशों में प्रचलित हुए-पंूजीवाद प्रणाली से मोहभंग के रूप में दिखती है।
एकात्म मानववाद के तत्व: अभिधारणा/संकल्पना
मैं अन्य विचारधाराओं के दोष पर कोई ध्यान केन्द्रित नहीं करना चाहता लेकिन ठोस सकारात्मक दृष्टि से, आर्थिक परिप्रेक्ष्य में दीनदयाल जी का एकात्म मानववाद क्या प्रदान करता है, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। मैं बुनियादी आर्थिक मामले में अपने विचारों और आधुनिक सैद्धान्तिक शब्दावली का उपयोग कर तत्वों को रेखांकित कर रहा हूं।
अभिधारणा 1:-अर्थव्यवस्था समाज की उपप्रणाली है और सामाजिक विकास के लिये भी आर्थिक प्रमेय को अपनाने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जो भी आर्थिक कानून बनाये जाएं या संहिताबद्ध किए जायें, मानव के अभिन्न विकास के लिए आप उनमें कुछ जोड़ तो सकते हैं लेकिन किसी भी दशा में कम नहीं कर सकते। मानव की दैवी शक्ति और उत्थान का केन्द्र बिन्दु चार खंभों पर टिका है-चार पुरुषार्थ यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
अभिधारणा 2: -जीवन में विविधता और बहुलता है। आदमी कई आंतरिक विरोधाभासों के अधीन है। इनका समाधान इस विविधता और बहुलता और आंतरिक विरोधाभासों के सद्भाव के समन्वय से किया जाना चाहिये। इस सद्भाव पर आधारित संबंधित कानूनों की खोज और उन्हें संहिताबद्ध करने की आवश्यकता है, यही सच्चा धर्म है। धर्म पर आधारित अर्थव्यवस्था इस प्रकार चलाई जानी चाहिये कि मानव के व्यक्तित्व और स्वतंत्रता पर अधिक से अधिक ध्यान दिया जा सके, जिससे वह सामाजिक हित में आलोकित हो।
अभिधारणा 3 :-राज्य आक्रामक शक्ति और धर्म के बीच एक नकारात्मक संबंध है। धर्म के अुनसार व्यक्ति के लिए कानून, नियमों की स्वीकृति स्वैच्छिक है क्योंकि यह उनकी व्यक्तिगत और सामूहिक आकांक्षाओं के साथ संलग्न हो जाता है, जब कि राज्य के नियमों, कानून और आकांक्षाओं में अक्सर विरोधाभास हो जाता है जिससे व्यक्ति मजबूरी में जबरदस्ती राज्यों के थोपे हुए नियमों को मानने के लिए बाध्य हो जाता है और पीडि़त रहता है।
अभिधारणा 4 :-समाज के कुछ व्यक्ति जो एक मूल, इतिहास या संस्कृति से संबंधित हैं, उनकी एक चिति (आत्मशक्ति) है। यह चिति ही उनके एकीकरण और सद्भाव में सहायक है। यदि वह नकली या अन्य देशों को दोहराने की कोशिश करता है, तो वह बेहद दुखदायी होगा।
अभिधारणा 5:-चिति की धर्म की मान्यता के आधार पर आर्थिक विकास को विकसित किया जाना चाहिये। समाज में विभिन्न परस्पर विरोधी हितों में सन्निहित समानताओं की मांग, जीवन प्रणाली का आपसी अंतर शेष युक्तिसंगत धारणा के आधार पर ऐसी व्यवस्था जो सामाजिक व्यक्तिगत मूल्यों का एकत्रीकरण करे, विकल्प की प्रणाली उजागर करेगी।
अभिधारणा 6:-कोई भी अर्थव्यवस्था, जो एकात्म मानवतावाद पर आधारित है, वह सामान्य लोकतांत्रिक मौलिक अधिकारों के साथ, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, कार्य का अधिकार, मुफ्त चिकित्सा-देखभाल करने के बुनियादी अधिकार प्रदान करती है।
(लेखक पूर्व केन्द्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं)
टिप्पणियाँ