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परिवार में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते सांस्कृतिक मूल्य युगानुकूल परिवर्तन के सूत्रधार की तरह हैं। चराचर जगत के प्रति सह-अस्तित्व का भाव वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा को गहराता है
इंदुमति काटदरे
एकात्म मानवदर्शन का केन्द्रीय तत्व है आत्मीयता। यह शब्द स्वयं आत्मा से ही बना है। आत्मा एक ऐसी संकल्पना है जो भारत का भारतपन निश्चित करती है। हम सब जानते हैं कि विश्व में भारत की पहचान एक आध्यात्मिक राष्ट्र की है। आध्यात्मिक शब्द भी आत्मा से ही बना है। आत्मीयता का सीधा-सा अर्थ है अपनापन। अपनेपन का अनुभव प्रेम के कारण होता है। प्रेम भी आत्मा का सहज स्वभाव है। अत: सबका अपना होना, कोई पराया न होना और सबके प्रति प्रेम होना, यह एकात्मता का मूल भाव है।
इस भाव को व्यावहारिक रूप देने के लिये भारत में परिवार संस्था की रचना हुई है। परिवार संस्था भारत में भी है और पश्चिम के अन्यान्य देशों में भी है । परन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। पश्चिम में परिवार कानूनी व्यवस्था है, अर्थात् स्त्री-पुरुष के काम-संबंधों को कानूनी मान्यता प्राप्त होने से वे पति-पत्नी बनते हैं। उसकी कुछ शतेंर् होती हैं। स्त्री-पुरुष को पति-पत्नी बनाने की व्यवस्था एक करार है जो अपने-अपने लाभ को ध्यान में रखकर किया जाता है। जब भी लाभ कम होता दिखाई दे, करार समाप्त कर दिया जाता है और किसी दूसरे के साथ नया करार किया जाता है। विवाह और विवाह-विच्छेद को इतनी सहजता से देखा जाता है। उसमें पवित्रता, संस्कार का बंधन, समर्पण, निष्ठा आदि होने की कोई आवश्यकता नहीं होती। परन्तु भारत में ऐसा नहीं है। भारत में स्त्री और पुरुष जब विवाह संस्कार से बंधकर पति-पत्नी होते हैं तब वे दो नहीं रहते, एक हो जाते हैं। यह दो के एक होने की बात केवल कल्पना या केवल तत्व नहीं है, वह भारत के जनमानस में सहस्राब्दियों से गहरी पैठी हुई है। पति-पत्नी का एकात्म संबंध भारत की परिवार व्यवस्था का केन्द्र-बिन्दु है। एकात्म विचार की मूल धारणा यह है कि यह संपूर्ण सृष्टि परमात्मा से नि:सृत हुई है। यह सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है। सृष्टि के सारे पदाथोंर् में एक ही आत्मतत्व अनुस्यूत है। अत: वे एकात्म संबंध से जुड़े हुए हैं। इसी एकात्म संबंध से पति-पत्नी भी जुड़े हैं। इस संबंध को सार्थक बनाना साधना है। यह एकात्मता की साधना है। बच्चों का जन्म होता है तब इसी एकात्म संबंध का विस्तार होता है। भाई-बहन और विस्तार है। इस प्रकार एकात्मता के संबंध का विस्तार होते-होते परिवार का फैलाव 'वसुधैव कुटुम्बकम्' तक पहुंचता है।
अर्थात् भारत की संपूर्ण समाज रचना का केन्द्र कहें या अधिष्ठान, वह परिवार-भावना है। यह परिवार एक ओर तो संस्कृति रक्षा का केन्द्र है, दूसरी ओर यह परम्परा का वाहक और रक्षक है। सारे सांस्कृतिक जीवनमूल्य परिवार के माध्यम से ही एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते हैं। हस्तान्तरण की यह प्रक्रिया जीवन्त प्रक्रिया है इसलिए हर पीढ़ी उसे अपने पुरुषार्थ से समृद्ध बनाती रहती है, साथ ही साथ देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तन कर उसे परिष्कृत भी करती रहती है। पं. दीनदयाल उपाध्याय इसे ही युगानुकूल परिवर्तन कहते हैं।
भारत की यह परिवार-भावना सम्पूर्ण सामाजिक व्यवहार का भी आधार है। यहां राजा प्रजा का पालक पिता है, शिष्य गुरु का मानस पुत्र है। मालिक अपने नौकर के योगक्षेम की चिंता करता है। यहां बाजार भी परिवार-भावना से चलता है। ग्राहक की आवश्यकता की पूर्ति करना व्यापारी का धर्म माना जाता है। किसी की रोजी छिन जाए, इस प्रकार से व्यवसाय करने की अनुमति धर्म किसी को नहीं देता है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना रचना में भी लाई जाती है। इसलिए आर्थिक स्वावलम्बन के आधार पर गांव की रचना होती है। हर हाथ को काम मिलना चाहिए, इस आधार पर व्यवसायों की रचना होती है। किसी की भी स्वतंत्रता और सम्मान को बाधा न पहुंचे, इस आधार पर अर्थार्जन की व्यवस्था होती है। अर्थार्जन हेतु व्यवसाय भी मूलत: सेवा की भावना से चलाये जाते हैं इसलिए जो समाज को हानिकारक हों, ऐसे व्यवसाय की अनुमति नहीं दी जाती है। व्यवसाय के लिये अनुमति कानून से नहीं अपितु धर्म से प्राप्त होती है। इसलिए एकात्म मानव दर्शन यंत्र आधारित बड़े उद्योगों के पक्ष में नहीं है।
एकात्म मानव दर्शन केवल मनुष्यों के साथ ही नहीं, प्रकृति के साथ भी अपनेपन से रहने की बात करता है। भारत की परम्परा भी यही रही है। हम छोटे बच्चे को भी प्राणियों और प्राकृतिक पदाथोंर् का परिचय ऐसे ही देते हैं। इसलिए सूरज दादा है, चंदा मामा है, बिल्ली मौसी है और बन्दर मामा है। छोटों के लिए ही नहीं आबाल-वृद्ध सभी के लिए धरती, गंगा, गाय, तुलसी माता है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि देवता हैं। प्रकृति के साथ व्यवहार करने के चार सूत्र हैं। प्रथम है प्रेम। अभिज्ञान शाकुंतलम् में शकुंतला पौधों के लिए कहती है, 'अस्ति मे सहोदर स्नेह एतेषु।' अर्थात् इन पौधों पर मेरा सगे भाई जैसा स्नेह है। दूसरा है कृतज्ञता। पृथ्वी, जल, वायु आदि पंचमहाभूतों के बिना, वृक्ष-वनस्पति के बिना हमारा जीवन सम्भव ही नहीं है। हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति इनसे ही होती है। इसलिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञता होना आवश्यक है। तीसरा है, दोहन का सिद्धान्त। हमारी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से ही होती है इसलिए प्रकृति से जितनी आवश्यकता है उतना ही लेना चाहिए। आवश्यकता से अधिक लेने का अधिकार ही नहीं है। जो अपनी आवश्यकता से अधिक लेता है वह चोर है, ऐसा हमारे शास्त्र भी कहते हैं। चौथा सिद्धान्त है रक्षण का। यह सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा से ही बनी है। इस सृष्टि में मनुष्य परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ सृजन है। मनुष्य सबसे बड़ा है इसलिए अपने से छोटों का रक्षण और पोषण करना उसका कर्तव्य है। इस दृष्टि से प्रकृति का रक्षण करना व्यवहार का चौथा सिद्धान्त है।
हम समझ सकते हैं कि इन सिद्धान्तों के आधार पर यदि रचना की जाती है तो हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी समाज व्यवस्था, हमारी उत्पादन नीति, हमारी बाजार व्यवस्था, हमारी उपभोग व्यवस्था सर्वथा बदल जाएगी। इस व्यवस्था में पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या पैदा ही नहीं होगी, समस्या के निराकरण की बात तो दूर की है।
समाज के साथ हो या प्रकृति के साथ, यदि हम परिवार भावना को आधार बनाते हैं तो आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याओं का निराकरण शीघ्र ही हो जाएगा। मनुष्य का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। जहां परिवार भावना होती है वहां चिन्ता, तनाव, उत्तेजना, भय, असुरक्षा आदि नहीं रहते, क्योंकि हर व्यक्ति दूसरों का विचार स्वयं से पहले करता है। इससे हृदय विकार, रक्तचाप, मधुप्रमेह आदि व्याधि भी नहीं रहतीं। हर हाथ को काम मिलने से उत्पादन बढ़ता है। मनुष्य को अर्थार्जन हेतु अत्यधिक चिन्ता से ग्रस्त नहीं रहना पड़ता तथा उसकी स्वतंत्रता और सम्मान की सम्यक् सुरक्षा होती है, तब समाज में प्रसन्नता व्याप्त रहती है। इस स्थिति में सृजनशीलता का विकास होता है और उत्पादन में उत्कृष्टता आती है। प्रकृति भी प्रसन्न होकर विपुल मात्रा में धान्य, फल, फूल, औषधि प्रदान करती है। प्रकृति के साथ प्रेम और तज्ञता से व्यवहार किया जाए तो उसके पदाथार्ें की गुणवत्ता भी बढ़ती है। सुख, शान्ति, सौहार्द, प्रसन्नता, संस्कार, ज्ञान, कौशल, पराक्रम आदि प्रस्थापित होते हैं।
श्रेष्ठ समाज में दो बातों का समन्वय होता है-समृद्धि और संस्कृति। बिना संस्कृति के समृद्धि आसुरी होती है, बिना समृद्धि के संस्कृति का रक्षण ही नहीं होता। अत: दोनों चाहिए। परिवार भावना से इन दोनों बातों की प्राप्ति होती है।
सृष्टि के नियमों के अनुसार समाज रचना करने की हमारे मनीषियों की बुद्धि की विलक्षणता का परिचय देने वाली व्यवस्था है परिवार की संकल्पना!
(लेखिका अमदाबाद स्थित पुनर्रुस्थान न्यास की सचिव हैं)
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