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विलक्षण महापुरुष थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय। इसे उनके जाने के बाद ही ज्यादा समझा गया। अनुभव किया गया। जब वे गए तब उनके सामने दशकों का भविष्य हिलोरें ले रहा था। उम्र थी, करीब 52 वर्ष। हालांकि उम्र से महानता का सीधा संबंध नहीं होता। इतिहास में अनेक महापुरुष हुए हैं जो बहुत कम उम्र में चले गए, लेकिन जीते जी अमिट छाप छोड़ गए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी उनमें से एक हैं।
उन्हें जो मानते हैं वे भी और जो नहीं मानते वे भी, यह तो सभी जानते हैं कि उनकी हत्या हुई। हत्या के षड्यंत्रकारियों ने भरसक कोशिश की कि उनके निधन को मामूली दुर्घटना साबित किया जा सके। वे इसमें सफल नहीं हुए। यह जितना सच है उससे ज्यादा गहरा रहस्य आज भी बना हुआ है कि हत्या के षड्यंत्रकारी कौन थे? केंद्र में सरकारें आईं और गईं, लेकिन इस रहस्य को अब तक भेदा नहीं जा सका है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या इतिहास की ऐसी घटना है जो किसी को भी झकझोर देने के लिए काफी है। वे रेल से यात्रा कर रहे थे। लखनऊ से पटना जा रहे थे। मुगलसराय के रेलवे यार्ड में उनकी हत्या हुई। उनका शव मुगलसराय प्लेटफार्म पर रखा हुआ था। अगर एक व्यक्ति ने पहचान न लिया होता तो षड्यंत्रकारी इसमें सफल हो जाते कि उन्हें लावारिस बता दिया जाता। उसके बाद जो कुछ होता, उसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।
जैसे ही दीनदयाल उपाध्याय का शव पहचाना गया, देशभर में सनसनी फैल गई। बात 11 फरवरी, 1968 की है। उस दिन संसद का बजट अधिवेशन शुरू हो रहा था। दूसरी तरफ बिहार प्रदेश जनसंघ के नेता आश्चर्यचकित थे कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय पटना क्यों नहीं पहुंच सके। पठानकोट-सियालदह एक्सप्रेस से उन्हें सुबह 7 बजे पटना पहुंचना था। वे जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वह दौर राजनीतिक संक्रमण का था। कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व समाप्त हो रहा था। आठ राज्यों में संविद सरकारें थीं। उनमें जनसंघ की नेतृत्वकारी भूमिका थी। भारतीय जनसंघ में राजनीतिक विकल्प दे पाने की संभावनाएं देखी जा रही थीं। इसका बड़ा कारण पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नेतृत्व था। उस नेता को हटाकर षड्यंत्रकारी जो हासिल करना चाहते थे वे कर पाए या नहीं, यह अलग एक विश्लेषण की जरूरत उपस्थित करता है।
पर इतना तो तय ही है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या कर जनसंघ को पटरी से उतार दिया गया। उनकी हत्या की दुखद सूचना कई घंटे बाद जगह-जगह पहुंची। बड़े नेता वहां पहुंचें, इससे पहले मुगलसराय और वाराणसी के जनसंघ कार्यकर्ताओं ने आवश्यक व्यवस्थाएं कराईं। जिला प्रशासन भी सक्रिय हुआ। विशेष विमान से अटल बिहारी वाजपेयी सहित जनसंघ के नेता बनारस पहुंचे। उसी तरह लखनऊ से तत्कालीन उपमुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त और मंत्री गंगा भक्त सिंह पहुंचे। दीनदयाल उपाध्याय के शव का पोस्टमार्टम तब तक रोका गया जब तक गुरुजी (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक -माधव सदाशिव गोलवलकर) नहीं पहुंच गए।
यह एक संयोग ही था कि वे कुछ घंटे की दूरी पर ही थे, प्रयाग में। उनके साथ पं. दीनदयाल उपाध्याय के अनन्य सहयोगी भाऊराव देवरस, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह और प्रभुदत्त ब्रह्मचारी भी पहुंचे। उसी समय पटना से ठाकुर प्रसाद, रामदेव महतो, विजय कुमार मित्र, कैलाशपति मिश्र और अश्वनी कुमार पहुंचे। वह दृश्य हृदय विदारक था जब गुरुजी पहुंचे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय को उस अवस्था में देख औरों से अलग वे अविचलित रहे। मन विषाद से भरा हुआ था। अगले दिन उन्होंने कहा- ''मैंने आंसू नहीं बहाए। मन पर नियंत्रण रखने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा।''
पोस्टमार्टम के बाद उनका शव विशेष विमान से दिल्ली लाया गया। पालम हवाई अड्डे से उनका पार्थिव शरीर रात 1 बजे तीस, राजेंद्र प्रसाद रोड पहुंचा जो उस समय अटल बिहारी वाजपेयी का निवास था, जहां पंडित दीनदयाल उपाध्याय रहते थे। अगले दिन वहां सबसे पहले उपप्रधानमंत्री मोरारजी देसाई पहुंचे। श्रद्घांजलि दी। उसके बाद राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, लोकसभा अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी, उपराष्ट्रपति वी़वी. गिरि अनेक केंद्रीय मंत्री जैसे फखरुदद्ीन अली अहमद, आचार्य जेबी कृपलानी, सुचेता कृपलानी, हुमायूं कबीर, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद, चौधरी चरण सिंह, जयप्रकाश नारायण और उनकी पत्नी प्रभावती देवी, सरदार स्वर्ण सिंह आदि नेताओं ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पार्थिव शरीर पर फूलमालाएं चढ़ाईं और श्रद्घांजलि दी। हजारों लोगों ने उस दिन लंबी कतार में प्रतीक्षा कर अपनी बारी का इंतजार किया और फिर वे दीनदयाल जी का अंतिम दर्शन कर सके। शोक खुद को वहां सार्थक कर रहा था।
उसी शाम शवयात्रा प्रारंभ हुई। दो नारे गूंज रहे थे- 'अमर शहीद पंडित दीनदयाल उपाध्याय अमर रहें' और 'भारत माता की जय।' हजारों लोग शोकाकुल मनोभाव में शव यात्रा के साथ रोते-बिलखते चल रहे थे। राजेंद्र प्रसाद रोड से जनपथ होते हुए कनॉट प्लेस का चक्कर लगाकर मिंटो ब्रिज से अजमेरी गेट होते हुए चावड़ी बाजार, और नई सड़क से चांदनी चौक घंटाघर के रास्ते ऐतिहासिक शीशगंज गुरुद्वारा से निगम बोध घाट की उस शव यात्रा में पांच घंटे से ज्यादा लगे। जगह-जगह हजारों लोग खड़े थे। फूलमालाओं की वर्षा हो रही थी। बाजार बंद थे लेकिन लोग उमड़ पड़े थे। निगम बोध घाट पर जनसंघ और संघ के नेताओं के अलावा बड़ी संख्या में सांसद और अन्य राज्यों के नेता उपस्थित थे।
शाम करीब सवा छह बजे पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव उतारकर चबूतरे पर बनाई गई चिता पर रखा गया। श्रद्घांजलि का क्रम प्रारंभ हुआ। सबसे पहले तत्कालीन सरकार्यवाह बाला साहब देवरस आए। उनके बाद उपस्थित खास-खास नेताओं को बुलाया गया। फिर चंदन की लकड़ी रखी गई। हवन सामग्री छिड़की गई। तब ममेरे भाई प्रभु दयाल शुक्ल ने मंत्रोच्चार के बीच मुखाग्नि दी। इस तरह अंतिम संस्कार संपन्न हुआ। उस दौरान अपने प्रिय नेता के असमय जाने की वेदना वहां विविध रूपों में प्रकट हो रही थी। एक हफ्ते बाद अस्थियां संगम में विसर्जित की गईंं जिन्हें लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और सुंदर सिंह भंडारी सहित सैकड़ों नेता प्रयाग पहुंचे थे।
जनसंघ ने श्रद्घांजलि में कहा कि ''उनकी मृत्यु किसी दुर्घटना के कारण नहीं हुई। हत्या का यह स्पष्ट मामला है।'' अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी श्रद्घांजलि में मर्म की बात कही, ''उपाध्याय जी को हमसे छीनकर जो लोग यह समझते हैं कि जनसंघ की प्रगति का रोक देंगे, वे न ही उनको पहचान पाए और न वे यही जानते हैं कि हम उनके अनुयायी किस मिट्टी के बने हैं।'' ऐसी ही भावना सुंदर सिंह भंडारी ने व्यक्त की थी। शब्द अलग थे। वे उस समय भारतीय जनसंघ के महासचिव थे। उन्होंने कहा था कि ''हम आततायियों के कुटिल मंसूबों को विफल कर देंगे।'' -रामबहादुर राय (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं यथावत पत्रिका के संपादक हैं)
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