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परमेष्टि यानी ब्रह्मांड व्यापी परमात्मा की संकल्पना केवल भारतीय चिंतन में है। व्यक्ति की आत्मा को पूरी सृष्टि में व्याप्त परम आत्मा का घटक माना गया है। जीव की आत्मा स्वस्थ और प्रसन्न है तो पूरी सृष्टि प्रसन्न है
डॉ. शिव गौतम
एकात्म मानववाद के प्रणेता पं़ दीनदयाल उपाध्याय के विभिन्न बौद्घिक वर्गों एवं विभिन्न लेखों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि दीनदयाल जी ने कई बार 'योगक्षेम वहाम्यहम्' का जिक्र किया है। आइए हम यह जानने का प्रयास करें कि उनका क्या मन्तव्य था। 'योगक्षेम'की अवधारणा के अंतर्गत वे कहा करते थे कि 'रोटी, कपड़ा और मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान' यह हर व्यक्ति को मिलना चाहिए और स्वास्थ्य के सन्दर्भ में उनका कहना वही था जो भारतीय चिंतन की अवधारणा है ।
स्वास्थ्य के विभिन्न आयाम शरीर, मन, बुद्घि एवं आत्मा में निहित हैं।
भारतीय चिन्तन में कहा गया हैं कि
समदोष: समग्रिद्म सम धातु मल क्रिया:
प्रसन्नात्मेन्द्रिय मन: स्वास्थ्य इत्यमि धीयते।
जिस व्यक्ति के त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) सम यानी संतुलित हों, जिसकी अग्नि (अग्नि का मापन भूख यानी जठराग्नि व शरीर के तापक्रम से होता है) व धातु (रस, रक्त, मांस, मेद/ चर्बी, अस्थि, मज्जा व त्वचा) सम यानी संतुलित हों, तथा मल-मूत्र त्याग क्रिया सामान्य हो, जिसकी आत्मा, मन व इन्द्रियां प्रसन्न हों वह व्यक्ति स्वस्थ कहा जाता है। यानी स्वस्थ व्यक्ति का शरीर मन, बुद्घि तथा आत्मा का संतुलन व सम अवस्था में होना ही स्वास्थ्य का कारक है ।
दीनदयाल जी का चिंतन पूर्णत: भारतीय है। इस चिंतन में व्यक्ति की परिकल्पना एकाकी नहीं बल्कि समाज, सृष्टि व ब्रह्मांड की एक इकाई के सन्दर्भ में की गई है। इसलिए हमें चार शब्दों की व्याख्या समझनी होगी। ये हैं- व्यष्टि (व्यक्ति), समष्टि (समाज), सृष्टि(जड़ व जीव मात्र) एवं परमेष्टि (ब्रह्माण्ड/ परमात्मा) इन चारों में विद्यमान व्यक्ति का अस्तित्व ही उसे स्वास्थ्य प्रदान करता है। व्यक्ति से वृहद यानी ब्रह्माण्ड तक ये चारों सोपान मानव स्वास्थ्य से ही संबंधित हैं एवं स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। भारतीय सांस्कृतिक अवधारणा में व्यक्ति के लिए कहा गया है कि व्यक्ति सर्वाधिकार सम्पन्न नहीं हो किन्तु व्यक्ति नीरोग हो, बल सम्पन्न हो, गुण सम्पन्न हो, बुद्घि तीक्ष्ण हो व मन पर नियन्त्रण हो। व्यक्ति एकाकी नहीं है, वह समाज का अंग है। व्यक्ति, समाज में लघु समाज (परिवार, ग्राम, नगर) वृहद समाज (जिला, राज्य, राष्ट्र) व संपूर्ण विश्व का अंग है। व्यक्ति को चिंतन को विस्तार देना है यानी व्यष्टि से समष्टि तक ले जाना है। व्यष्टि का स्वास्थ्य समष्टि के और समष्टि का स्वास्थ्य व्यष्टि के स्वास्थ्य पर निर्भर है। कडि़यां जुड़ती हैं और एकात्म मानव दर्शन का परस्पर अवलंबित सूत्र पूरा होता है। यानी स्वस्थ व्यक्ति-स्वस्थ समाज, स्वस्थ समाज-स्वस्थ व्यक्ति।
सृष्टि से तात्पर्य परमात्मा द्वारा रचे समस्त जड़-चेतन जगत से है। जीव-जंतु, पर्यावरण, वनज औषधियां, खनिज-रसायन सृष्टि-परमेष्टि का अंग हैं और व्यक्ति को स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।
परमेष्टि यानी ब्रह्मांड व्यापी परमात्मा की परिकल्पना केवल भारतीय चिंतन में ही की गई है तथा व्यक्ति की आत्मा को परमात्मा का अंग माना गया है। आत्मा की प्रसन्नता स्वास्थ्य का एक आवश्यक घटक है ।
जीवनशैली एवं स्वास्थ्य : भारतीय चिंतन में मानव जीवन के विभिन्न कालखंडों का तथा जीवन जीने की कला और शैली का विशेष उल्लेख मिलता है। स्वास्थ्य का संबंध जीवन जीने का तरीका, योग, ध्यान, प्राणायाम एवं आहार-विहार से संबंधित है। भारतीय चिंतन में व्यक्ति की आयु सौ वर्ष (जीवेम शरद: शतम्) मानते हुए इसे वर्णाश्रम व्यवस्था में चार आश्रमों (25 वर्षों के कालखंड) में बांटा गया है। हर कालखंड में व्यक्ति विशिष्ट गुण अर्जित करता है और अगले कालखंड के लिए अपेक्षित अपना व्याप बढ़ाता है। पहले 25 वर्ष (ब्रह्मचर्याश्रम) में व्यष्टि (व्यक्ति) को गुण अर्जित करना है जिसमें गुण संपन्नता (ज्ञान -शिक्षा) बल संपन्नता (शरीर सौष्ठव) यानी स्वयं को गृहस्थ आश्रम के लिए तैयार करना शामिल है। 25 से 50 वर्ष (गृहस्थाश्रम) में व्यक्ति को सृष्टि को आगे बढ़ाने हेतु परिवार बनाना, विवाह संतति उत्पन्न करना, अर्थोपार्जन करना व सामाजिक दायित्व को धारण करना गृहस्थ का दायित्व है।
हमारा ध्येय संस्कृति का संरक्षण नहीं अपितु उसे गति देकर सजीव व सक्षम बनाना है। उसके आधार पर राष्ट्र की धारणा हो और हमारा समाज स्वस्थ एवं विकासोन्मुख जीवन व्यतीत कर सके, इसकी व्यवस्था करनी है। इस दृष्टि से हमें अनेक रूढि़यां खत्म करनी होंगी, बहुत से सुधार करने होंगे। जो मानव के विकास और राष्ट्र की एकात्मता की वृद्धि में पोषक हो, वह हम करेंगे और जो बाधक हो, उसे हटाएंगे।
50 से 75 वर्ष (वानप्रस्थाश्रम) में व्यक्ति का कर्तव्य समाज को वापस लौटाना व ऋणमुक्त होना है। हर व्यक्ति पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं- मातृऋण, पितृऋण एवं गुरुऋण। समाज को आर्थिक रूप से संबल प्रदान कर व नई पीढ़ी को अच्छा बचपन व यौवन प्रदान कर इन ऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है। 75 से 100 वर्ष (संन्याश्रम) में व्यक्ति अर्जित ज्ञान बांटने में भगवद् स्मरण में, जीवन की आध्यात्मिक संतुष्टि, स्वयं को पहचानने में तथा अपने आपको अग्रिम जीवन में ले जाने के लिए सत्कर्म करने में अपना समय व्यतीत करे। आत्मा की प्रसन्नता स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण अंग है।
प्राचीन चिंतन में स्वास्थ्य : स्वास्थ्य के विषय में वैदिक काल से आयुर्वेद तक हमारे ग्रंथों में प्रचुर उल्लेख है। अथर्ववेद, उपनिषद्, भगवद्गीता, योग दर्शन एवं आयुर्वेद स्वास्थ्य के प्रमुख संदर्भ ग्रंथ हैं। वेदों से हमें- भूमि व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सहिष्णुता एवं सहअस्तित्व के संबंध में मार्गदर्शन प्राप्त होता है। वैदिक चिंतन पृथ्वी को सर्वेश्वर की सगुण मूर्ति के रूप में माता मानता है। संपूर्ण ब्रह्माण्ड मूलत: एक इकाई है- जड़ एवं चेतन एक दूसरे के पूरक हैं। भूमि की प्रजा उद्भिज्ज? (जन्म लेने वाले प्राणी) स्वेदज (पसीने से उत्पन्न प्राणी) अण्डज (अण्डे से उत्पन्न प्राणी) तथा जरायुज (जमीन में उत्पन्न होने वाले) चारों प्रकार के प्राणी जिन्हें एक पिता की संतान होने के कारण भाई-भाई बताया गया है- वसुधैव कुटुम्बकम्।
चिकित्सकों का दायित्व : चरक संहिता (ईसा से 1,400 वर्ष पूर्व लिखित ग्रंथ) में रोग, स्वास्थ्य, निदान उपचार, प्रकृति भैषज औषधि का विस्तार से वर्णन मिलता है व सुश्रुत संहितायें विभिन्न प्रकार के शल्य (सर्जिकल) उपायों का वर्णन मिलता है लेकिन अति महत्वपूर्ण बात चिकित्सक द्वारा ली जाने वाली शपथ है। हमारा चिंतन चिकित्सकों को सिखाता है कि रोग को जानना, वेदना का नियंत्रण करना यही वैद्य का वैद्यत्व है। वैद्य आयु का स्वामी नहीं है।
क्वचिद मैत्री क्वचिद धर्म: क्वचिद धनम क्वचिद यश:
कर्माभ्यास: क्वचिद येति चिकित्सानास्ति निष्फला
चिकित्सक को कहीं मित्र मिलता है कहीं धर्म, कहीं धन तो कहीं यश मिलता है। ये चारों न भी मिलें तो वह कर्माभ्यास के द्वारा अपना कौशल बढ़ाता है। चिकित्सा कभी निष्फल नहीं जाती। आइए हम अपनी संस्कृति से सीख लेकर एकात्ममानववाद का अनुसरण करें।
(लेखक प्रख्यात स्वास्थ्यविद् एवं इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी के
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