|
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने अपने 100 वर्ष के इतिहास में देश और दुनिया को लाखों ऐसी प्रतिभाएं दी हैं, जिन्होंने हर क्षेत्र में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है और अभी भी छोड़ रहे हैं। विश्व का शायद ही ऐसा कोई कोना होगा, जहां बीएचयू से शिक्षित और दीक्षित लोग नहीं होंगे। एक अनुमान के अनुसार बीएचयू से निकले 10 लाख से भी ज्यादा लोग पूरी दुनिया में समाज जीवन के हर भाग में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। भारत के नवनिर्माण में बीएचयू के इंजीनियरों के योगदान को भला कौन भूल सकता है? भारत में पहली बार बिजली से चलने वाली कार रेवा का निर्माण करने वाले इंजीनियर डॉ. एस.के. मैनी बीएचयू के ही छात्र थे। इसरो और नासा से लेकर दुनिया के सभी बड़े शोध संस्थानों में बीएचयू के छात्र कार्यरत हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में भी यहां के छात्र उल्लेखनीय काम कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी, विश्व हिन्दू परिषद् के संरक्षक रहे स्व. अशोक सिंहल, प्रख्यात वैज्ञानिक शान्ति स्वरूप भाटनागर, पूर्व उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम, पूर्व उप राष्ट्रपति कृष्णकान्त, समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया, चिन्तक के.एन. गोविन्दाचार्य, राजनेता वेदप्रकाश गोयल, प्रकाशवीर शास्त्री, नेपाल के प्रधानमंत्री रहे बी.पी. कोईराला, फिजी के मशहूर नेता बी.डी. लक्ष्मण, संगीतकार भूपेन हजारिका, कालजयी साहित्यकार हरिवंशराय बच्चन, वैज्ञानिक सी.एन.आर. राव, रंगकर्मी कपिला वात्स्यायन, न्यायमूर्ति बी.एस. चौहान, गूगल के वरिष्ठ उपाध्यक्ष निकेश अरोड़ा जैसी हस्तियों को तराशने में भी बीएचयू का योगदान है। अमेरिकी मनोवविज्ञानी कॉलिन टर्नबुल, अमेरिकी दार्शनिक रॉबर्ट एम. परसिंग, बेल्जियम के प्रसिद्ध प्राच्य विद्या विशेषज्ञ कॉनराड एलस्ट जैसे विद्वानों ने भी बीएचयू से शिक्षा पायी है। पाकिस्तानी विद्वान अहमद हसन दानी पहले मुसलमान थे, जिन्होंने बीएचयू से स्नातक और स्नातकोत्तर की उपाधि ली थी। यहां बीएचयू के कुछ पूर्व छात्रों से अरुण कुमार सिंह से हुई बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं-
डॉ. नामवर सिंह, 90
हिन्दी के वरिष्ठ समालोचक
शिक्षा: 1953 में हिन्दी से पीएच.डी.
'जो कुछ भी हूं बीएचयू की वजह से'
बीएचयू से क्या मिला : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मैंने हिन्दी से बी.ए., एम.ए. और पीएच.डी. की उपाधि लेने के बाद कई वर्ष तक पढ़ाया भी। यदि मैं वहां नहीं पढ़ता तो शायद आप सब मुझे नहीं जानते। वहां पढ़ाई के दौरान हिन्दी के कई विद्वानों का सहयोग और आशीर्वाद मिला। आज मैं जो कुछ भी हूं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की वजह से हूं। जब मैं वहां पढ़ने गया तो उस समय हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे पं. केशव प्रसाद मिश्र। उनकी विद्वता का लाभ हर छात्र को मिला। इसके बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी विभाग के अध्यक्ष बने। इन विद्वानों के सान्निध्य में मैंने शिक्षा ग्रहण की। बीएचयू में विद्वानों की जो संगति मुझे मिली उसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं।
बीएचयू को कहां देखना चाहते हैं : खुशी की बात है कि आज भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अपने पुराने तेवर और कलेवर के साथ देश के मानव संसाधन को सुशिक्षित, समृद्ध और विकसित करने में योगदान दे रहा है। ईश्वर से कामना है कि यह विश्वविद्यालय इसी तरह आगे भी देश की सेवा करता रहे।
डॉ. सत्यव्रत शास्त्री, 86
प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान
शिक्षा: 1957 मंे संस्कृत से पीएच.डी.
'संस्कारों से सराबोर होते हैं छात्र'
बीएचयू से क्या मिला : इस विश्वविद्यालय से मैंने 1955-57 में संस्कृत विषय में पीएच. डी. की उपाधि ली थी। जब वहां पहली बार गया तो उस समय मैं कुछ और था और जब वहां से निकला तो कुछ और था। स्वभाव में बहुत अन्तर आ गया था। ऐसा अनुभव शायद सभी छात्रों को होता होगा। एक बार की बात है। मेरे साथ दक्षिण भारत का एक छात्र पढ़ता था। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह घर गया तो मेरी एक पुस्तक 'पाणिनीकाल में भारतवर्ष' ले गया। बहुत दिन बाद भी जब उसने मेरी पुस्तक वापस नहीं भेजी तो मैंने उसे पत्र लिखा। इसके बाद उसने वह किताब भेज दी। इसके पीछे मैं मानता हूं कि उस छात्र को बीएचयू से जो संस्कार मिले थे, उसकी वजह से ही उसने किताब वापस भेजी थी। जब वह किताब मुझे मिली तो मैं बहुत खुश हुआ, क्योंकि वह मेरे लिए अमूल्य थी। उसके लेखक थे मेरे गुरु डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल। वे किसी को भी, यहां तक कि कुलपति को भी अपनी पुस्तक भेंट नहीं करते थे। एक दिन मैं उनके घर गया तो बात-बात में उस किताब की बात निकल पड़ी।
उन्होंने पूछा तुमने उसे पढ़ लिया? मैंने कहा मुझे तो छात्रवृत्ति से ही काम चलाना पड़ता है। पैसे के बिना किताब खरीदना संभव नहीं। यह सुनते ही उन्होंने मुझे वह पुस्तक भेंट कर दी। उसके एक पृष्ठ पर उन्होंने लिखा था, 'प्रिय सत्यव्रत को सादर भेंट'। यह पंक्ति मुझे अभी भी प्रेरित करती है।
बीएचयू को कहां देखना चाहते हैं : आज समय की मांग है कि हर विश्वविद्यालय शोध कार्य को बढ़ावा दे। बीएचयू से भी यही अपेक्षा करता हूं। हालांकि वहां अनेक ऐसे शोध कार्य हो रहे हैं, जो और कहीं नहीं होते हैं। इसीलिए बीएचयू अन्य विश्वविद्यालयों से अलग है।
'मिली सादगी की सीख'
भीष्म नारायण सिंह, 83
पूर्व राज्यपाल
शिक्षा : 1950 में राजनीतिशास्त्र से स्नातक
बीएचयू से क्या मिला : मेरे पिताजी कहा करते थे कि भारत में ज्ञान और विज्ञान का विकास भारतीय संस्कृति के आधार पर ही होना चाहिए। इसके लिए वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को उपयुक्त स्थान मानते थे। इसलिए उन्होंने वहां मेरा दाखिला करा दिया। 66 वर्ष पहले मैंने बीएचयू में सीखा कि जीवन को जितना सरल और पारदर्शी रखोगे, आनंद उतना ही बढ़ता जाएगा। बीएचयू की वह सीख आज भी मुझे प्रेरित करती है। सादगीभरा जीवन जीता हूं और लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करता रहता हूं।
बीएचयू को कहां देखना चाहते हैं : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसा दुनिया में और कोई विश्वविद्यालय नहीं है। पूरी तरह चंदे की रकम पर बना यह विश्वविद्यालय मालवीय जी की अनमोल कीर्ति है। मैं चाहता हूं कि इसकी कीर्ति से पूरी दुनिया रोशन हो।
जयन्त नार्लीकर, 78
प्रसिद्ध खगोलशास्त्री
शिक्षा : 1957 में गणित से स्नातक
'यहीं मैं बढ़ा, पढ़ा और आगे बढ़ा'
बीएचयू से क्या मिला : महामना के निवेदन पर मेरे पिताजी प्रो. विष्णु वासुदेव नार्लीकर 1932 में लंदन से बीएचयू आए थे। उन्हें गणित विभाग के अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई थी। जब मैं कुछ ही वर्ष का था तभी मेरे पिताजी मुझे कोल्हापुर से बीएचयू ले आए थे। यहीं मैं बढ़ा, पढ़ा और आगे बढ़ा। यह मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। उन दिनों मेरे घर रसायन शास्त्र के विद्वान डॉ. एस.एस. जोशी, भौतिकी के डॉ. दर्शनाचार्य, आयुर्वेद के डॉ. धानेकर, इंजीनियरिंग के प्रो. सेनगुप्ता, हिन्दी के हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान आते थे। आज मैं उन दिनों को याद कर फूले नहीं समाता हूं। ऐसे विद्वानों की छाया भी जिस पर पड़ जाती थी वह बहुत कुछ कर जाता था। वहां का वातावरण ही लोगों को उनके जीवन की दिशा दिखा देता है।
बीएचयू को कहां देखना चाहते हैं : मुझे लगता है इन दिनों वहां से राष्ट्रीय स्तर पर निकलने वाली प्रतिभाएं कम हो गई हैं। इस छवि को बदलने की जरूरत है। बीएचयू में अभी भी वह सामर्थ्य है, जिसका उपयोग कर उसे दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों की पंक्ति में लाया जा सकता है। 100 वर्ष के इस अवसर पर बीएचयू प्रशासन इसका संकल्प ले तो यह मुमकिन है।
गिरधर मालवीय, 80
पूर्व न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय
शिक्षा : 1959 में राजनीतिशास्त्र से स्नातकोत्तर और एल.एल.बी.
'मैं बीएचयू का ऋण नहीं उतार सकता'
बीएचयू से क्या मिला : मेरे पूर्व जन्मों का ही यह फल है कि मेरा जन्म पं. मदन मोहन मालवीय जी के पौत्र के रूप में 1936 में हुआ। मेरी जन्मभूमि और शिक्षाभूमि बीएचयू है। 1936 से लेकर 1959 तक मैं बीएचयू परिसर में रहा। मेरी पढ़ाई भी यहीं शुरू हुई और समाप्त भी यहीं हुई। 1959 में पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं इलाहाबाद आ गया और यहीं पहले वकालत की और बाद में न्यायाधीश भी बना। मैं बीएचयू का ऋण नहीं उतार सकता।
बीएचयू को कहां देखना चाहते हैं : सबसे खुशी की बात है कि 100 वर्ष बाद भी बीएचयू में पढ़ाई का स्तर वही है, जो मालवीय जी के समय में था। बीएचयू को शुरू करने के पीछे उनका उद्देश्य था नई पीढ़ी को भारत की प्राचीन शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा देना। इसलिए उन्होंने वहां पंचांग और वेद की पढ़ाई के साथ-साथ इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी शुरू करवाई थी। बीएचयू देश का पहला विश्वविद्यालय है, जहां पहली बार इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू हुई थी। वहां प्राचीन और आधुनिक शिक्षा की यह परम्परा आज भी चल रही है। मुझे उम्मीद है कि यह परम्परा आगे भी चलती रहेगी।
रामबहादुर राय, 70
वरिष्ठ पत्रकार और यथावत पत्रिका के संपादक
शिक्षा : 1969 में अर्थशास्त्र से स्नातकोत्तर
'मिला राष्ट्रीयता का संस्कार'
बीएचयू से क्या मिला : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अपने जन्मकाल से ही एक अलग तरह का विश्वविद्यालय रहा है। यहां पढ़ने वाले हर छात्र को उसकी पढ़ाई-लिखाई के अलावा राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने की चेतना मिलती है। हमें भी यही चेतना और राष्ट्रीयता का संस्कार मिला। यहीं हमें अन्याय के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा भी मिली। इसका एक उदाहरण है। आपातकाल के समय कालूलाल श्रीमाली वहां के कुलपति थे। वे विचारधारा से कम्युनिस्ट थे। पदभार संभालते ही उन्होंने वहां राजनीतिक भेदभाव शुरू कर दिया। बीएचयू के संस्कारों के कारण ही हम लोगों ने उनका विरोध किया। उन्होंने 46 छात्रों को विश्वविद्यालय से बाहर कर दिया, उनमें से एक मैं भी था। बाद में उन्होंने कहा कि माफी मांग लोगे तो वापस ले लिए जाओगे, लेकिन हम लोगों ने कहा कि हमारी गलती नहीं है, फिर माफी क्यों? बाद में हम लोगों को वापस ले लिया गया। यदि हम वहां नहीं पढ़ते तो आज हमारे संस्कार भी कुछ अलग ही होते।
बीएचयू को कहां देखना चाहते हैं : मेरी इच्छा है कि अब यह विश्वविद्यालय मालवीय जी की मूल कल्पना को साकार करने की दिशा में कदम बढ़ाए। उनकी कल्पना थी इस विश्वविद्यालय में हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति के साथ-साथ आधुनिक विषयों की भी पढ़ाई हो। उन दिनों जो शासन-व्यवस्था थी, उसमें इस कल्पना पर कोई शिक्षण संस्थान खड़ा नहीं हो सकता था। इसलिए मालवीय जी को अपनी मूल कल्पना में कुछ बदलाव करने पड़े थे। अब माहौल अनुकूल है। बीएचयू अपने संस्थापक पं. मदनमोहन मालवीय की मूल कल्पना को साकार करने का प्रयत्न करे।
प्रो. नागेन्द्र कु. सिंह, 57
वैज्ञानिक, लालबहादुर शास्त्री पादप जैव प्रौद्योगिकी केन्द्र, दिल्ली
शिक्षा : 1980 में कृषि विज्ञान से स्नातकोत्तर
''बीएचयू के संस्कार वापस भारत लाए''
बीएचयू से क्या मिला : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मैंने कृषि विज्ञान से स्नातक और स्नातकोत्तर किया। इसके बाद मैं पीएच.डी. करने के लिए आस्ट्रेलिया गया। वहां मेरे सामने अच्छी नौकरी के कई प्रस्ताव आए। पैसा भी था और प्रतिष्ठा भी कम नहीं थी। इसके बावजूद वहां नौकरी करने का मन नहीं हुआ। बीएचयू से मिले संस्कारों ने भारत आने के लिए मजबूर कर दिया। शिक्षा के साथ वहां यह बताया गया था कि देश ही सब कुछ है, इसलिए देश के लिए काम करो। इन्हीं संस्कारों ने मुझे भारत आकर काम करने के लिए प्रेरित किया।
बीएचयू को कहां देखना चाहते हैं : बीएचयू दुनिया का एक अनूठा विश्वविद्यालय है। यहां आधुनिक ज्ञान के साथ-साथ प्राचीन ज्ञान का भी शिक्षण होता है। ऐसा और किसी विश्वविद्यालय में नहीं होता। मैं चाहता हंू कि इस काम में और तेजी आए। हमारे ऋषि-मुनि वैज्ञानिक ही थे। उन्होंने हमें जो ज्ञान दिया है, उनकी जो विरासत है, उसे आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ा जाए। ऐसा सिर्फ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही कर सकता है।
संदीप पाण्डे, 51
सामाजिक कार्यकर्ता
शिक्षा : 1986 में बी.टेक
'दीपक तले अंधेरा'
बीएचयू से क्या मिला : यह तो मानना पड़ेगा कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अपने आप में एक अनूठा शिक्षण संस्थान है। कोई भी छात्र जब स्कूली शिक्षा पूरी कर महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में जाता है तो उसे पढ़ाई के साथ-साथ तमाम बातें सीखने को मिलती हैं। खासकर, विश्वविद्यालयों में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक जैसे विषयों पर छात्रों का ज्ञान बढ़ता है। बीएचयू में मुझे चुनावी प्रक्रिया को जानने-समझने का मौका मिला। इसके साथ ही मैं यह भी कहना चाहूंगा कि देश के अन्य विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों की तरह बीएचयू भी सामाजिक समस्याओं के समाधान की दिशा में कोई काम नहीं कर पाया। वहां दीपक तले अंधेरा है।
बीएचयू को कहां देखना चाहते हैं : बीएचयू के आसपास कई गांव हैं, जो भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं। इनमें छेतुपुर, सुसुवाही जैसे गांवों की हालत बेहद खराब है। यहां मुसहर जाति के लोग रहते हैं। उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, लोगों के पास काम नहीं है। क्या बीएचयू इन गांवों के विकास के लिए कुछ नहीं कर सकता? यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हमारे यहां शिक्षण और शोध की प्रक्रिया में सामाजिक सुधार की नीतियों को कोई जगह नहीं दी जाती। इसमें सुधार की जरूरत है। इसके लिए बीएचयू पहल करे।
टिप्पणियाँ