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कहते हैं 'हरेक रंज में राहत है आदमी के लिए'। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। दिल्ली में पर्यावरण प्रदूषण रोकने के लिए सम-विषम फार्मूला अपने साथ केवल असुविधा नहीं, कई फायदे भी लेकर आया है, जिस पर पहली नजर में ध्यान नहीं जाता।
सम-विषम के चक्कर में गराजों में और खुले आसमान के नीचे सड़कों के किनारे मोटरगाडि़यां बिन ब्याही कन्याओं की तरह प्रतीक्षारत खड़ी हैं। कब उनकी जन्मराशि की संख्या अर्थात नम्बर प्लेट का महीने की तारीख से सही मिलान हो, कब वे बाबुल की गलियां छोड़कर सुहाने सफर पर निकल पड़ें। गराजों की बात करने पर आप सोचेंगे कि मैं अतीत के धुंधलके में वर्तमान की सचाइयां भूल गया हूं। गए वे जमाने, जब मोटरकारों के लिए गराज होते थे, जिनमंे आराम से पसरकर कारें दिनभर की थकान मिटा लेती थीं और अगली सुबह इठलाती हुई फिर से अपने मालिक के दफ्तर, दुकान या फैक्ट्री जाने के सपने देखती थीं। अब गराज होते भी हैं तो किराये पर किसी प्रेस वाले या परचून की छोटी-मोटी दुकान के लिए उठा दिए जाते हैं। बड़े बंगलों और फ्लैटों में रहने वालों का इतने किराए से क्या भला होना है। अत: गराज क्वार्टर में बदल जाते हैं, जिनमें रहने वालों की घरवालियां किराए के एवज में गराज मालिक के घर में कामवाली बाई का किरदार अदा करती हैं। अत: मैं अपनी गलती मानते हुए ऊपर लिखे 'गराजों में खड़ी' वाला विशेषण हटा देता हूं। अब आप उस वाक्य को सुधार कर केवल 'खुले आसमान के नीचे खड़ी गाडि़यां… पढ़ें।
रहा सवाल कारों का सड़कों पर इठलाते हुए चलने का तो वहां भी गलती हो गयी। लाखों वाहनों की भीड़ में इठलाने की कौन कहे, रेंगना भी कठिन होता है। किसी तरह सरकते हुए ट्रक, ठेले, ऑटो रिक्शा, स्कूटर और मोटर साइकिलें, सभी डीजल और पेट्रोल के धुएं के गुबार छोड़ती इन कारों के साथ दिल्ली के फेफड़ों में धुआं भरने में जुटे रहते हैं। अत: अब ऊपर लिखे वाक्य में से इन कारों के सुहाने सफर पर निकलने वाली बात भी हटा दीजिए।
चलिए, काव्यात्मक भाषा त्यागकर सीधी-सादी भाषा में बात शुरू करूं। तो सबसे पहले, यह प्रयोग इसलिए प्रशंसनीय है कि मुख्यमंत्री जी ने शायद पहली बार दिल्ली के उपराज्यपाल से लेकर पुलिस आयुक्त तक से झगड़ने, आई.ए.एस. अधिकारियों, दिल्ली सरकार के अन्य अधिकारियों से लेकर दिल्ली के सफाई कर्मचारियों तक हर श्रेणी के कर्मचारियों को गरियाने, डराने-धमकाने और स्वयं धरने पर बैठने को छोड़कर कोई और रचनात्मक कदम उठाया। शायद उन्होंने आशा छोड़ दी है कि उनकी सरकार अब लड़ाई-झगडे़, चीखने-चिल्लाने के अतिरिक्त कुछ और कर पायेगी। यदि सारे सरकारी धीरे-धीरे आकस्मिक अवकाश पर जाने को मजबूर हुए, यदि उनके अपने विधायक और मंत्री एक-एक कर के कभी फर्जी डिग्री के मामले में, कभी सरकारी कर्मचारियों के साथ मारपीट करने में तो कभी अपनी ही पत्नी के लगाए आरोपों के कारण हवालात के अन्दर हो गए या जमानत जुटाने में व्यस्त रहे तो मुख्यमंत्री जी और कुछ तो कर पाने से रहे, कम से कम लोगों को कार रहते भी न इस्तेमाल करने के लिए मजबूर तो कर ही सकते हैं। भले प्रदूषण के लिए सड़कों की धूल, भवन निर्माण से उड़ती मिट्टी आदि वाहनों से पैदा हुए धुंए से ज्यादा जवाबदेह हों। अन्य समस्याओं से विचलित न भी हों, पर इस समस्या से ऐसे व्यक्ति का उद्विग्न हो जाना स्वाभाविक ही है, जो स्वयं नाक पर मफलर लपेटकर किसी तरह से प्रदूषणजन्य सांस की बीमारी से निजी लड़ाई लड़ रहा हो। 'वह क्या जाने पीर पराई, जाके पैर न फटी बिवाई।' दिल्ली का दर्द भला और कौन बेहतर समझेगा।
इधर दिल्ली उच्च न्यायालय ने दाखिल आपत्तियों की सुनवाई करते हुए सवाल उठाया कि 15 दिन के बजाय केवल सात दिनों में ही इस व्यवस्था के कारगर होने न होने का फैसला दिल्ली सरकार क्यूं नहीं करती। अच्छा ही हुआ। देश की अदालतों में पीढ़ी दर पीढ़ी लंबित मुकदमों के चलते जनता ने आशा छोड़ दी थी कि अदालत का दरवाजा खटखटाने से किसी कानूनी समस्या का निराकरण औसत जीवन काल में संभव है। सम- विषम प्रयोग के फायदे और नुकसान का फैसला एक सप्ताह में क्यूं नहीं हो सकता पूछकर उच्च न्यायालय ने स्वयं न्यायपालिका के लिए मुश्किल पैदा कर दी। जनता अब न्याय पालिका से भी पूछने लगेगी कि अदालतें अपने फैसले जल्दी क्यूं नहीं सुना सकतीं।
सबसे चमत्कारिक परिवर्तन तो मुख्यमंत्री जी की गांधीगिरी वाली मुद्रा में दिखाई देता है। अब वे टी.वी. स्क्रीन पर (पता नहीं क्यूं पीठ दर्शकों की तरफ किये हुए) जनता को ये नेक सलाह देते हुए देखे जाते हैं कि नियम के उल्लंघन करने वालों के हाथों में पुष्पगुच्छ थमाएं। उन्हें गरियाने के बजाय उनसे नम्र निवेदन करें। मस्जिद में दीया जलाने के पहले अपने घर में जलाते हैं। संभव है अगली बार मुख्यमंत्री जी प्रधानमंत्री से असहमत होने पर उनके विषय में अनर्गल भाषा नहीं बोलेंगे और अपने पद की गरिमा के अनुकूल भाषा का प्रयोग करते हुए कमल का फूल भेंट करेंगे। -अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
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