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किसी चीज को लेकर पसंद या नापसंद मनुष्य की अपनी निजी इच्छा पर निर्भर होती है। इसलिए वह किसे स्वीकार करे और किसे नहीं, इस मामले में उसे फैसले का अंतिम अधिकार होता है। लेकिन अपनी नापसंद को वह स्वयं पकड़े रहकर किसी अन्य पर उसी को लेकर निशाना साधता रहे तो यह गलत है। भले उससे किसी की प्रतिष्ठा निरंतर घायल हो। तब प्रभावित होने वाले को यह अधिकार भी होता है कि वह अपनी स्वयं की रक्षा के लिए कोई कदम उठाने और कार्रवाई करने के संबंध में संपूर्ण रूप से स्वतंत्र रहे। निर्णय करने का अधिकार उस देश की न्यायपालिका का होता है। ऐसी स्थिति में कोई भी नागरिक अपने देश को छोड़ने के लिए संवैधानिक आधार पर निजी रूप से अपना अधिकार रखता है। उसे यह भी अधिकार है कि वह परमात्मा की इस धरती पर बसे किसी भी देश में जा सकता है। लेकिन यदि वह व्यक्ति ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाता है और केवल अपने देश को ही कटघरे में खड़ा करता है तो क्या फिर उस सरकार को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह उसकी नागरिकता और राष्ट्रीयता को समाप्त कर दे?
यह कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति को दंडित करने का अधिकार तो सरकार के पास है ही, वह उसे अपने कानूनों के अंतर्गत चाहे जिस प्रकार का दंड दे सकती है। उसके लिए कोई भी प्रावधान कर सकती है। लेकिन क्या कोई सरकार अपने नागरिक को इन कृत्यों को देखते हुए देश निकाला नहीं दे सकती? यह अवधि कुछ समय के लिए भी हो सकती है और स्थायी तौर पर भी। जिसने देशद्रोहिता की है वह किसी अन्य देश में जाकर यह महसूस करे कि धरती पर नरक क्या है और स्वर्ग क्या है? जब कोई देश अपने यहां उसे स्थान नहीं देगा उस क्षण उसे प्रतीत हो जाएगा कि स्वदेश क्या होता है और पराया देश होता है या नहीं, और यदि होता है तो वह कैसा होता है?
एक साधारण नागरिक के लिए तो पलायन करना कठिन होता है, लेकिन आमिर खान तो साधन संपन्न हैं। उनके लिए तो कोई न कोई देश तैयार हो ही जाएगा? चाहे गलत या सही, क्या बंगलादेश ने अपनी कवयित्री तसलीमा नसरीन को देश निकाला नहीं दिया है? इसके उपरांत भी वह जिस स्थिति से गुजर रही हैं इसका अनुभव आमिर खान को तभी होगा जब वह भारत को छोड़कर अन्य देश में पलायन करेंगे। आज तो वे भारत में जिस सुख-सुविधा और सम्मान से रह रहे हैं उन्हें पता नहीं चल रहा है कि अपने और पराए देश में क्या अंतर है। अपनी इच्छा से देश छोड़ना बहुत सरल है, लेकिन उनके पुरखों का देश जब यह कह देगा कि अब आपको यहां रहने का अधिकार नहीं है, तब उन्हें आटे-दाल का भाव मालूम पड़ जाएगा?
1947 में भारत विभाजन स्वीकार करना, हमारे पुरखों की सबसे बड़ी भूल थी। वास्तव में तो देश की निंदा करने का साहस उसी वृत्ति से जन्मा विष-वृक्ष है जिसके कारण कुछ लोगों को इस धरती की निंदा करने का साहस बार-बार होता है। भारत में रहकर भारत के विरुद्ध बेवजह की बातें करना, यह संवैधानिक स्वतंत्रता नहीं हो सकती। इसे जड़-मूल से उखाड़ना है तो हमें इतिहास में लौटना होगा और अपनी इस धरती के मौलिक स्वरूप को प्राप्त करने हेतु लिए संकल्प को व्यावहारिक रूप देना होगा। इस बीमारी को सदा-सदा के लिए समाप्त करने हेतु हमारे संविधान में कोई न कोई व्यवस्था होनी ही चाहिए। इस गंदे और थोथे हथियार से किसी राज्य की सत्ता पाने में तो क्षणिक सफलता प्राप्त की जा सकती है, लेकिन भारत के पिंड को नहीं बदला जा सकता। आमिर खान जैसों की चुनौती किसी राज्य की सत्ता को कुछ दिनों के लिए बेचैन भले कर दे, लेकिन हिन्दुस्थान के पिंड को परिवर्तित नहीं कर सकती।
फ्रांस में अल बगदादी एंड कंपनी ने जो किया, उसे उत्तर प्रदेश के काबीना मंत्री आजम खान क्रिया की प्रतिक्रिया मानते हैं। लेकिन उसमें तनिक भी सचाई होती तो इसी देश के जमीयतुल ओलेमा ने पेरिस में घटी आतंकी घटना की कड़ी निंदा नहीं की होती। जमीयत के अध्यक्ष ने अपने बयान में यह भी कहा कि यदि समय आया तो यह संस्था देश के सभी भागों में आतंकवाद के विरुद्ध प्रदर्शन करेगी। पेरिस में जो कुछ इन मजहबी जिहादियों ने किया, क्या उसे कोई दो सभ्यताओं के टकराव से निरुपित करेगा?
अब तक इस प्रकार की आतंकी टोलियां मजहब की आड़ में लोगों को बरगलाती आई हैं, लेकिन अब उसका दूसरा पहलू भी सामने आया है कि ये हत्यारी टोलियां मुसलमानों को भी मारने में तनिक विलम्ब नहीं करतीं। इराक से लेकर सीरिया तक आईएसआईएस के दहशतगर्द मुसलमानों को भी उसी प्रकार मार रहे हैं जैसे गैर-मुसलमानों की हत्याएं कर रहे हैं। यही हाल अफगानी तालिबान और पाकिस्तानी तालिबान का भी है। मुसलमानों को भी गाजर-मूली की तरह काटा जा रहा है। इसलिए मौलाना महमूद मदनी को बाहर आकर कहना पड़ रहा है कि अब मुसलमानों के लिए चिंतन की घड़ी है कि क्या ऐसे खूनी और वहशी लोगों को मुसलमान कहा जा सकता है? क्या उनका इस्लाम से कोई रिश्ता हो सकता है? इस्लाम के नाम पर बरगलाना कैसे सच्चा और खरा इस्लाम हो सकता है? यदि यह सही है तो अच्छे और सच्चे मुसलमान बाहर क्यों नहीं आते? अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो मुस्लिम संगठन हैं वे इन खूनी दरिंदों के सामने आकर लोहा क्यों नहीं लेते? गरीब मुस्लिम महिला के तलाक के लिए तो फतवों का ढेर लग जाता है। अब मक्का और दिल्ली के इमामों की जुबान क्यों बंद है? इस्लाम का रंग तो हरा है, फिर यह अल बगदादी के काले लिबास के हत्यारे इस्लाम के रक्षक कब से हो गए? मुसलमानों के विश्व स्तर पर अनेक संगठन हैं। उनके यहां से फतवे जारी क्यों नहीं होते? शांतिप्रय मुससलमानों की सेना इनसे लड़ने के लिए मैदान में क्यों नहीं उतरती? काबे के इमाम और ईरान के अयातुल्लाह इनके खिलाफ फतवे जारी क्यों नहीं करते? अब वक्त आ गया है जब उन्हें इस बात का दो टूक फैसला करना ही होगा कि इस्लाम सलामती का मजहब है या फिर अल बगदादी जैसों की टोली की शरणस्थली?
इराक से लेकर सीरिया तक आईएसआईएस के दहशतगर्द मुसलमानों की हत्या उसी प्रकार से कर रहे हैं जिस प्रकार से वे अन्य मतावलंबियों की करते हैं? सवाल यह है कि इस्लामी देश इनको बर्दाश्त क्यों कर रहे हैं? उनका मौन समर्थन इस समय बगदादियों की सबसे बड़ी ताकत है। इसका सबूत जी20 देशों का पिछले दिनों संपन्न सम्मेलन है जिसमें ओबामा ने स्पष्ट शब्दों में प्रेस को संबोधित करते हुए कहा कि मुस्लिम समुदाय से उन्हें बड़ी शिकायत है कि जितनी निंदा मुसलमानों को इन दहशतगर्दों की करनी चाहिए उतनी नहीं हो रही है। ओबामा ने कहा कि मुस्लिम पालकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को आईएस की चपेट में न जाने दें। बगदादी ने इन मासूम बच्चों की भी सेना बनाकर उनका दुनिया में अनेक स्थानों पर दुरुपयोग किया है। युद्ध तो एक दिन समाप्त हो जाएगा। बगदादी भी ओसामा और तैमूर की तरह ही मारा जाएगा, लेकिन यदि मुसलमानों की भावी पीढ़ी आतंकवादी बन गई, तो फिर उनके समाज और उनके मजहब को कोई नहीं बचा सकेगा? बगदादी इस्लाम की रक्षा के नाम पर इस्लाम को बचाने के लिए नहीं, बल्कि वह इस्लाम जिस भावी पीढ़ी पर टिका हुआ है उसे ही जड़-मूल से नष्ट करने में लगा हुआ है। भारतीय जमीयतुल ओलेमा के मौलाना महमूद मदनी कहते हैं कि 'कुछ तत्व जाने-अनजाने इन आतंकवादियों से इस्लाम का रिश्ता जोड़ते हैं। लेकिन मौलाना यह बताएं कि क्या इनका कृत्य इस्लामी है? क्या ये इंसानियत के दुश्मन नहीं हैं? जो लोग अल्लाह की इस खूबसूरत दुनिया को बर्बाद करने में लगे हुए हैं, क्या केवल इस्लाम के नाम पर उनकी रक्षा की जा सकती है? क्या उनके इन अपराधों को क्षमा किया जा सकता है? इंसान बचेगा तो इस्लाम बचेगा? इंसान ही नहीं होगा तो फिर क्या शैतान इस्लाम की रक्षा करेगा?'
वास्तव में तो यह जंग इंसान और शैतान के बीच की है। जब मदनी कहते हैं कि हम पेरिस, तुर्की, लेबनान में आतंकवादी गतिविधियों की निंदा करते हैं और पीडि़त परिजनों की हमदर्दी के लिए कटिबद्ध हैं तब मौलाना इन शैतानों को समाप्त करने के लिए फतवा जारी क्यों नहीं करते? दुनिया भर के इमामों को संदेश क्यों नहीं देते कि वे मुसलमानों की आने वाली संतानों को इस विचारधारा से बचाने के लिए कोई ठोस पहल करें? मुस्लिम मौलाना दूध और दही के बीच पांव रखना जब तक बंद नहीं करते, आतंकवाद का जिन्न तब तक दुनिया में अपना बर्बर नाच जारी रखेगा। वर्तमान में कुछ मुसलमान नेताओं के बयान और कृत्य इस प्रकार के हैं जो पेट्रोल में आग डालने वाले हैं। काला कफन ओढ़े जो नेता सीरिया से लेकर नाइजीरिया तक बगदादी और बोको हराम के वेश में विचरण कर रहे हैं वे उन मजहबी उन्मादियों को शह ही दे रहे हैं जो न जाने किस दिन उनकी ही छाती में खंजर भोंक देंगे। ल्ल
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