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पलायन से पुरुषार्थ का अद्भुत मंगलमय अमर ग्रंथ है श्रीमद्भगवद्गीता। गीता मरना सिखाती है और आत्मा की अनश्वरता का बोध कराकर अनासक्त कर्म की दिव्य प्रेरणा देती है। अपनी अनुपम प्रकाशपूर्ण शिक्षाओं के कारण श्रीमद्भगवद् गीता को वैश्विक ग्रंथ की मान्यता प्राप्त है। यूं तो विश्व में सर्वाधिक प्रचारित ग्रंथों में बाइबिल का नाम सबसे पहले आता है किन्तु ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ईसाई पंथ की इस प्रतिनिधि पुस्तक को दुनिया के कोने-कोने में फैलाने में ईसाई मिशनरियों व तत्कालीन राजसत्ता का समूचा तंत्र लगा रहा, जबकि श्रीमद्भगवद्गीता के प्रचार-प्रसार के लिए गीता प्रेस गोरखपुर और अन्तर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ (इस्कान) को छोड़कर कोई संगठित प्रयत्न नहीं किए गए। इसके बावजूद अपने विषय और वैशिष्ट्य के कारण इस ग्रंथ के करीब 80 भाषाओं में 250 से ज्यादा अनुवाद और व्याख्यान हो चुके हैं। यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। 'गीता कहती है-योग: कर्मसु कौशलं।' अर्थात्-कर्म में समता रूपी निपुणता प्राप्त कर लेना ही योग है यानी कार्य में समग्र रूप से निमग्न हो जाना। निष्काम कर्मयोग है-अपने मन, कर्म, विचार, भाव के साथ कार्य करते हुए भी उस कार्य के परिणाम से सदा मुक्त रहना। कार्य के प्रति अनासक्त भाव ही निष्काम कर्मयोग है। आसक्ति कर्म के बंधन का कारण होती है और कर्म के पीछे निहित उद्देश्य ही कर्म के परिणाम के रूप में सामने आता है और मनुष्य को इस भोग को भोगना ही पड़ता है। कुशलतापूर्वक कर्म करते हुए 'योग: कर्मसु कौशलं' की स्थिति पायी जा सकती है।
सामान्य कर्म को कर्मयोग में परिवर्तित करने के लिए गीता में तीन साधनों की विशेष रूप से आवश्यकता बतायी गयी है-1. कर्मफल की आकांक्षा का त्याग 2. कर्त्तापन के अहंकार से मुक्ति व 3़ ईश्वरार्पण। गीता के इन सूत्रों में सभी वेदों व उपनिषदें का सार निहित है। वेद भी कहते हैं कि फल का परित्याग मनुष्य की अंतर्शुद्धि करता है और भगवद् प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। कामना रहित कमार्ें से मन के कषाय-कल्मषों का विनाश हो जाता है और इसके नियमित अभ्यास से दुष्कर्म सोने में चढ़ी अशुद्धियों के समान भस्म हो जाते हैं। निष्काम कर्म के आचरण से मनुष्य का अंत:करण नितांत निर्मल होकर साक्षात भगवद्चेतना का, परमज्ञान का पवित्र स्थल बन जाता है। आसक्ति रहित ऐसा व्यक्ति निष्काम कर्मयोगी की श्रेणी में आता है। गीता आगे कहती है कि कर्त्तापन का भाव भी कर्म कोे दूषित करता है।
'मैं और मेरा' में मानव का अहंकार झलकता है। कार्य की सफलता का श्रेय स्वयं लेना और असफलता का दोष दूसरों पर मढ़ देना अहंकार का उद्धृत प्रदर्शन है और यही भाव कर्मबंधन का कारण बनता है। इस भाव से मुक्त रहने के लिए जरूरी है कि मनुष्य अपने सभी छोटे-बड़े कार्य भगवान को अर्पित करके करे। यदि मन में ऐसा भाव आ जाए तो छोटे से छोटा कार्य भी व्यक्ति पूरी तन्मयता और कुशलता से कर सकता है।
कर्मयोग के साथ ही ज्ञानयोग और भक्तियोग की भी तार्किक विवेचना करती है गीता। कर्मयोग के अभ्यास से जब साधक को मन-चित्त व बुद्धि शांत और शुद्ध हो जाती है तो साधक के अन्दर ज्ञान की पात्रता विकसित हो जाती है। फिर वह उत्तरोत्तर अभ्यास द्वारा अपनी अंतरात्मा के विभिन्न स्तरों को क्रमश: अनावृत्त करता हुआ अंत में परम तत्व से एकाकार हो जाता है।
सार रूप में कहें तो गीता का चिंतन अज्ञानता के आचरण को हटाकर आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त करता है। गीता भगवान की श्वास और भक्तों का विश्वास है। गीता ज्ञान का अद्भुत भंडार है। हम सब प्रत्येक कार्य में तुरन्त परिणाम चाहते हैं, लेकिन भगवान ने कहा है कि धैर्य के बिना अज्ञान, दु:ख, मोह, क्रोध, काम और लोभ से निवृत्ति नहीं मिलेगी। इसलिए जीवन में उत्थान के लिए इसका स्वाध्याय हर व्यक्ति को करना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि महाभारत के भीष्म पर्व के 24वें अध्याय से 42वें अध्याय तक का अंश श्रीमद्भगवद्गीता है। इसमें 18 अध्याय हैं, जिनमें कुल 700 श्लोक हैं, लेकिन महाभारत का अंश होते हुए भी गीता अपने आप में एक ऐसा सम्पूर्ण ग्रंथ है, जिसको भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म का प्रतिनिधि ग्रंथ माना जाता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में मोहग्रस्त अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश दिया था, इसीलिए यह तिथि गीता जयंती के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस कालजयी महाग्रंथ के उपदेश किसी जाति, समाज या देश के लिए नहीं वरन् समस्त मानव समाज के लिए उपयोगी हैं। इसकी सार्वकालिक शिक्षाओं में सभी भारतीय दर्शनों, उपनिषदें, योग की सभी विधाओं का सार निहित है। कर्म, ज्ञान व भक्ति की इस पावन त्रिवेणी में डुबकी लगाकर मानव जीवन के गूढ़ रहस्य सहज ही सुलझाए जा सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की वाणी से नि:सृत इस महाकाव्य में गोते लगाकर मानव मन ससीम से असीम की यात्रा करता हुआ अनंत की ओर गमन कर सकता है।
स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, लोकमान्य तिलक जैसे अनेकानेक मनीषियों के जीवन दर्शन पर गीता की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि-गाीता उपनिषदें से चयन किए हुए आध्यात्मिक सत्य के सुंदर पुष्पों का ऐसा सुंदर गुलदस्ता है जिसकी सुगंध समूचे मन-मस्तिष्क को नयी ऊर्जा से भर देती है। महर्षि अरविन्द ने कहा था कि, गीता वह तैलजन्य दीपक है, जो अनंतकाल तक हमारे ज्ञान मन्दिर को प्रकाशित-अवलोकित करता रहेगा। इसी तरह स्वामी योगानंद ने लिखा कि गीता, योगी के लिए योगशास्त्र, दार्शनिकों के लिए दर्शनशास्त्र, ज्योतिषियों के लिए ज्योतिष, वैज्ञानिकों के लिए विज्ञान, नीतिवानों के लिए नीति, आध्यात्मिक पुरुषों के लिए अध्यात्म और साधुजनों के लिए सदाचार है। हर मनुष्य गीता में प्रतिपादित योग सिद्धांत का अनुसरण कर सहज ही अपनी उन्नति और विकास कर सकता है। महात्मा गांधी कहते थे, 'गीता संपूर्ण वैदिक शिक्षाओं का सारतत्व है। इसका ज्ञान सारी मानवीय महत्वाकांक्षाओं को सिद्ध करने वाला है। गीता का अध्ययन करने वालों को विषाद बहुत कम सताता है। मुझे गीता से बड़ी सांत्वना मिलती है। जब कभी निराश होता हूं, तो गीता की शरण लेता हूं। मुझे इसमें कोई न कोई श्लोक ऐेसा मिल ही जाता है, जिससे मंै विपत्तियों में भी मुस्कुराने लगता हूं।'
भारत ही नहीं अमरीका, चीन, जापान व जर्मनी आदि अनेक देशों के धर्मविदों व दार्शनिकों में भी यह ग्रंथ खासा लोकप्रिय है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान जे़ डब्ल्यू़ होमर के अनुसार गीता न केवल गंभीर अंतदृर्ष्टि देती है, अपितु धर्म के आंतरिक और लौकिक स्वरूप को भी परिभाषित करती है। उनके अनुसार एक अकेले इसी शास्त्र का अध्ययन जर्मन पंथ की मूल प्रकृति से भलीभांति परिचित करा देता है। इसी तरह पाश्चात्य दार्शनिक एल्डुअर्स हक्सले के मुताबिक मानव के शाश्वत जीवनदर्शन का निरूपण करने वाले ग्रंथों में सवार्ेपरि है गीता। यह अद्भुत ग्रंथ न केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि सभी पंथ-सम्प्रदायों के अनुयायियों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
लाखों सनातनी हिन्दू प्रतिदिन गीता के कम से कम एक अध्याय का पाठ अवश्य करते हैं। बहुत से लोग इससे पढ़े गये अंशों के अर्थ-भाव का मनन करते हैं। पूरे ग्रंथ को कंठस्थ कर लेने वालों की संख्या भी बहुत है। गीता केवल लाल कपड़े में बांधकर घर में रखने की वस्तु नहीं है। गीता का अध्ययन करने वाले लोगों के जीवन में इसका प्रभाव सहज ही देखा जा सकता है।
यह महज एक धर्मग्रंथ नहीं, अपितु कलियुग के पापों का क्षय करने का अद्भुत और अनुपम माध्यम भी है। सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन हमें केवल भोग-विलास के लिए नहीं मिला है, इसका कुछ अंश भक्ति और सेवा में भी लगाना चाहिए। गीता भक्तों के प्रति भगवान द्वारा प्रेम में गाया हुआ अमर गीत है। इसके पठन-पाठन, श्रवण एवं मनन-चिन्तन से जीवन में श्रेष्ठता के भाव आते हैं।
पूनम नेगी
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