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अशोक जी का पैतृक गांव बिजौली और मेरा गांव छर्रा उ ़प्र. के एक ही जिले अलीगढ़ में है। दोनों गांवों के बीच 07 किमी. की दूरी है। इस कारण हमारे परिवार के बड़े लोग एक दूसरे को जानते थे तथा घर और गांव में आना-जाना भी था। अशोक जी के पिता श्री महावीर सिंहल जी का जन्म तो गांव में ही हुआ था; पर वे प्र्रशासन में आगरा में सेवारत हुए। अशोक जी का जन्म आश्विन कृष्ण पंचमी (27 सितम्बर, 1926) को आगरा में हुआ।
श्री महावीर सिंहल उ़प्ऱ शासन की सेवा में थे। तत्कालीन उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल और उ.प्र. के पहले मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत से उनके निकट संबंध थे। जिन दिनों उ़प्ऱ में चौधरी चरणसिंह चकबंदी आदि के मंत्री थे, उन दिनों श्री महावीर सिंहल उनके वित्त सचिव थे। यद्यपि इस पद पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही रखे जाते थे; परन्तु चौधरी चरणसिंह ने उनकी योग्यता देखकर आईएएस़ न होते हुए भी उन्हें यह दायित्व सौंपा।
श्री महावीर सिंहल की रज्जू भैया के पिता कुंवर बलवीर सिंह जी से बहुत निकटता थी। श्री बलवीर सिंह जी भी उ़प्ऱ शासन में सिंचाई विभाग में मुख्य अभियंता थे। उन्होंने अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए प्रयाग में एक मकान बना लिया था। उनके आग्रह पर श्री महावीर सिंहल ने भी भवन बनवा लिया, जिसमें रहकर अशोक जी की पढाई हुई। अशोक जी के आग्रह पर उनके परिवारजनों ने वह 'महावीर भवन' अब विश्व हिन्दू परिषद के वेद विद्यालय के काम के लिए समर्पित कर दिया है।
प्राय: जो लोग सरकारी सेवा में होते हैं, वे अपने बच्चों को भी इसी दिशा में जाने को प्रेरित करते हैं; परन्तु श्री महावीर सिंहल ने ऐसा नहीं किया। अत: उनके अधिकांश बच्चे उद्योग के क्षेत्र में जाकर सफल कारोबारी बने।
अशोक जी ने प्रयाग और फिर काशी में अपनी शिक्षा पूरी कर 1950 में गोरखपुर के जिला प्रचारक के नाते प्रचारक जीवन प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् 1951 में बनारस, 1952 में सहारनपुर, 1958 में देहरादून के जिला प्रचारक रहे। 1959 में वे कानपुर में प्रचारक रहे। आपातकाल के बाद उन्हेंे दिल्ली में प्रांत प्रचारक बनाया गया। 1982 में उनकी योजना विश्व हिन्दू परिषद में हुई।
अशोक जी जहां भी रहे, वहां उन्होंने जिस काम का निश्चय किया, उसे जिद और दृृढ़तापूर्वक पूरा किया। इसके लिए वे उचित सहयोगी अपने साथ जोड़ते रहते थे, तत्पश्चात् परिणाम लाकर ही दिखाते थे। उनका यह स्वभाव बना रहा।
उन्होंने जहां एक ओर प्रतिभाशाली और मेधावी छात्रों को प्रचारक बनाया, वहीं दूसरी ओर समाज के सम्पन्न और प्रभावी लोगों से भी जीवंत संपर्क बनाकर रखा। संघ, विश्व हिन्दू परिषद तथा समाज में चलने वाले अन्य प्रकल्पों के लिए धन की आवश्यकता होने पर उनके ये संबंध बहुत काम आते थे। उन्होंने अपने सब भाई-भतीजों को भी देश, धर्म और समाज के लिए धन देने को सदा प्रोत्साहित किया है। आपातकाल में सब लोग डरे हुए थे; पर ऐसे में भी उनके अनुज (अब स्व़) श्री विवेक जी के घर में गुप्त बैठकें हुआ करती थीं। ऐसी तीन दिन की एक बैठक में मैं भी शामिल हुआ था।
आपातकाल के बाद दिल्ली प्रांत प्रचारक रहते हुए उन्होंने विद्यार्थियों के बीच में सघन काम किया तथा वामपंथियों के गढ़ जेएनयू में भी संघ कार्य खड़ा किया।
दिल्ली का प्रसिद्घ 'झंडेवालान माता मंदिर' एक समय अराजक तत्वों का अड्डा बन गया था। अशोक जी के प्रयास से वह उनके कब्जे से मुक्त हुआ और अब उसकी सुव्यवस्था की प्रसिद्घि पूरे देश में है। उसके माध्यम से अनेक सेवाकार्य चल रहे हैं।
अशोक जी के भाषण युवकों के दिल में देश और धर्म के लिए समय देने की भावना जगाते थे। दूसरी ओर उनसे दिशा पाकर सैकड़ों प्रौढ़ एवं वानप्रस्थी कार्यकर्ता भी तैयार हुए थे। विश्व हिन्दू परिषद के कार्य विस्तार में इन दोनों प्रकार के कार्यकर्ताओं का भरपूर योगदान है।
अशोक जी की एक अन्य विशेषता थी कि वे व्यक्तिगत रूप से अपने कार्यकर्ताओं की अत्यधिक चिन्ता करते थे। ब्रज प्रांत प्रचारक रहते हुए अक्तूबर, 2000 में मुझे 'स्लिप डिस्क' की समस्या हुई। कई तरह से इलाज करवाने पर भी वह ठीक नहीं हो सकी। अशोक जी को जब यह पता लगा, तो उन्होंने श्री रवि आनंद के साथ मुझे कोयम्बतूर की आर्य वैद्यशाला में भेजा। उन दिनों वैद्यशाला में कोई कमरा खाली नहीं था। आर्य वैद्यशाला के प्रमुख श्री कृृष्णकुमार वाडियार विदेश गये हुए थे। अशोक जी ने उनसे वहीं बात की और फिर उनके घर के एक कमरे में ही रहते हुए मेरी तैल चिकित्सा हुई, जिससे मैं ठीक हो सका।
अशोक जी का परिवार पूर्णत: धार्मिक परिवार रहा है। अत: वहां साधु संतों का आवागमन होता रहता था। इसी से उनके मन में ईश्वर और संतों के प्रति अटल विश्वास जाग्रत हुआ, जो अंत तक दृढ़ रहा। अशोक जी संतों की बात कभी टालते नहीं थे। इसी प्रकार उनकी बात भी किसी संत ने टाली हो, ऐसा देखने में नहीं आया। पूज्य संत अशोक जी का बहुत सम्मान करते थे।
एक पूज्य शंकराचार्य जी ने तो सार्वजनिक रूप से एक सभा में यह कहा था कि हमारे जैसे संतों का मूल काम समाज का प्रबोधन है। उसके लिए हमें मठ-मंदिरों से निकालने का श्रेय अशोक जी को है। पांच वर्ष पूर्व नागपुर के पास उदासा में विश्व हिन्दू परिषद के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का तीन दिवसीय प्रशिक्षण वर्ग था। उसमें पूज्य गोविन्द गिरि जी महाराज भी आये थे। जब अशोक जी उनके गले में पुष्पहार डालने और पैर छूने को आगे बढ़े, तो पूज्य गोविन्द गिरि जी ने उनके हाथ पकड़ लिये। उन्होंने बहुत प्रयास के बाद भी अशोक जी को अपने पैर नहीं छूने दिये।
भारतवर्ष तथा विश्व मेंे विहिप के वर्तमान विश्वव्यापी स्वरूप का पूरा श्रेय अशोक जी को जाता है तथा उन्होंने हिन्दू समाज का जनजागरण एवं हिन्दू समाज के स्वाभिमान को जगाने का बहुत बड़ा कार्य किया है। वे हिन्दू समाज के मानबिन्दु, श्रद्घाबिन्दु एवं जीवनमूल्यों के प्रति पूर्ण समर्पित रहे। गो, गंगा, गीता, वेद तथा श्रीराम जन्मभूमि, श्रीकृृष्ण जन्मभूमि, बाबा काशी विश्वनाथ को मुक्त करवाने आदि में उनकी अग्रणी भूमिका सदैव याद की जाएगी। जय श्रीराम का घोष हिन्दू समाज में सहज लिया जाता है परन्तु जय श्रीराम के इस घोष बोलने में वीरत्व का भाव अशोक जी ने भरा।
केवल संत ही नहीं, अपितु समाज के अन्य बड़े और प्रतिष्ठित लोगों के मन में भी अशोक जी के प्रति बहुत सम्मान रहा। 30 मई, 2013 को महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी से संतों के प्रतिनिधिमंडल की भेंट का कार्यक्रम था। उद्देश्य था- उन्हें श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के बारे में केन्द्र सरकार द्वारा न्यायालय में दिये गये शपथपत्र की याद दिलाना। राष्ट्रपति सचिवालय से कहा गया कि मिलने वालों की संख्या आठ से अधिक न हो। अत: सात प्रमुख संतों के साथ विहिप के महामंत्री श्री चंपतराय के नाम वहां भेज दिये गये। जब यह सूची महामहिम राष्ट्रपति ने देखी, तो उन्होंने कहा कि इसमें श्री अशोक सिंहल का नाम क्यों नहीं है, उन्हें भी अवश्य आना है। अत: आठ संख्या की मर्यादा होते हुए भी अशोक जी वहां बुलाए गये। महामहिम राष्ट्रपति महोदय से सबका परिचय करवाया गया। जब अशोक जी का नाम आया, तो श्री प्रणव मुखर्जी ने कहा, इन्हें सब जानते हैं, इनका परिचय करवाने की आवश्यकता नहीं है।
इसी प्रकार 17 अगस्त, 2013 को लखनऊ में मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव और उनके पिता श्री मुलायम सिंह से अयोध्या के संत मिलने गये थे। इसका उद्देश्य उन्हें 25 अगस्त से होने वाली अयोध्या की 84 कोसी परिक्रमा की जानकारी देना था। इस प्रतिनिधिमंडल में संतों के साथ अशोक जी और श्री चंपत राय जी भी थे। मुलायम सिंह ने बड़े आदर से सबका स्वागत किया। यद्यपि अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते भेंट के अगले ही दिन उन्होंने यात्रा को प्रतिबंधित भी कर दिया।
अशोक जी प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य बनाये रखते थे। ऐसी स्थितप्रज्ञता प्राय: दुर्लभ है। 17 अगस्त, 2013 को दिन में 11 बजे लखनऊ में मुलायम सिंह और अखिलेश यादव से भेंट निर्धारित थी। 10.30 पर उन्हें अपने अनुज श्री विवेक जी की मृत्यु का समाचार मिला। उस समय वे प्रतिनिधिमंडल में जाने वाले पूज्य संतों से बात कर रहे थे। बिना विचलित हुए उन्होंने वार्ता पूरी की और मुलायम सिंह से मिलने भी गये। इसके बाद ही उन्होंने दिल्ली को प्रस्थान किया। बिगडे़ स्वास्थ्य के बावजूद अपने सहयोगियों का परिचय करवाने वे एक माह के विदेश दौरे पर गए, यह जिद की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है?
हिन्दू समाज के ऐसे श्रेष्ठ और ज्येष्ठ मार्गदर्शक स्व़ अशोक जी का जीवन हमें सदैव प्रेरणा देता रहेगा। उनके जाने से हुई अपूरणीय क्षति को पूज्य संतांे के आशीर्वाद व मार्गदर्शन से उनके द्वारा तैयार किए गए देवदुर्लभ परिषद कार्यकर्ता सामूहिक रूप से मिलकर पूरी कर सकने में समर्थ हो सकें, यही प्रभु से कामना है। प्रभु श्रीराम से प्रार्थना है कि वे ऐसी दिव्य विभूति/आत्मा को अपने श्रीचरणों में स्थान प्रदान करें।
दिनेश चन्द्र-लेखक रा.स्व. संघ में क्षेत्र प्रचारक रहे। वर्तमान में
विश्व हिन्दू परिषद के अन्तरराष्ट्रीय संगठन महामंत्री हैं।
हिन्दुओं के गौरव अशोक जी
भारतवर्ष में यदि हिन्दू को किसी ने पुनर्जीवन दिया है तो वह अशोक सिंहल हैं। उनके कृतित्व को कभी नहीं भुलाया जा सकता। न केवल भारतवर्ष अपितु सम्पूर्ण विश्व के हिन्दुओं के गौरव थे अशोक जी। अशोक जी का सामर्थ्य ही था कि देश में चिंतन, विचार औ राजनीति की दिशा बदली और भारतवर्ष के लोगों को यह भरोसा हुआ कि हिन्दू धर्म नहीं अपितु जीवन पद्धति है। उनके क्रांतिकारी विचार और उनका कृतित्व इस देश को सदियों तक सकारात्मक राष्ट्रीय सोच देता रहेगा और भारत का ही नहीं विश्व का हिन्दू भी स्वयं को विपन्न महसूस नहीं करेगा। उन्होंने जिस राम की बात कही वह तो हर व्यक्ति के रोम-रोम में बसने वाला है। अशोक जी ने हिन्दुओं के स्वाभिमान को तो जीवंत रूप में साकार किया ही वेद विद्या और संस्कृत भाषा के उत्थान के लिए भी हरसंभव प्रयास किया। सादर वंदन।
—प्रो. महेन्द्र कुमार मिश्र
अध्यक्ष-भारत संस्कृत परिषद्
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