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गिरीश कर्नाड द्वारा टीपू की तुलना शिवाजी से करना या संजय खान द्वारा टीपू का उत्सव मनाने की मांग करना केवल गलतफहमी नहीं है। कर्नाड उसी क्षेत्र से आते हैं, जहां टीपू का शासन रहा था। इतिहास की दृष्टि से यह कल की बात है। इतना आसन्न इतिहास कि असंख्य लोगों को प्राथमिक, सीधे स्रोतों से टीपू काल की सचाइयां मालूम हैं। इस के अलावा देश-विदेश के अनेक प्रत्यक्षदर्शी अधिकारियों, लेखकों और दस्तावेजों के विवरण बड़े-बड़े इतिहासकारों द्वारा उद्धृत, प्रकाशित हैं। स्वयं टीपू के लिखे पत्र उपलब्ध हैं जिनसे उस के कार्य, विचार और लक्ष्यों की सीधी जानकारी मिलती है। उदाहरण के लिए, बदरुज्जमा खान को 19 जनवरी 1790 को लिखे टीपू के पत्र में लिखा है, ‘तुम्हें मालूम नहीं कि हाल में मालाबार में मैंने गजब की जीत हासिल की और चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। मैंने तय कर लिया है कि उस मरदूद ‘रामन नायर’ (त्रावनकोर के राजा, जो धर्मराज के नाम से प्रसिद्घ थे) के खिलाफ जल्द हमला बोलूंगा। चूंकि उसे और उस की प्रजा को मुसलमान बनाने के ख्याल से मैं बेहद खुश हूं, इसलिए मैंने अभी श्रीरंगपट्टनम वापस जाने का विचार खुशी-खुशी छोड़ दिया है।’
दक्षिण भारत में असंख्य लोग जानते हैं कि टीपू का शासन हिन्दू जनता के विनाश और इस्लाम के प्रसार के अलावा कुछ न था। अंग्रेजों से उस की लड़ाई अपना राज और अस्तित्व बचाने के लिए थी। इसके लिए उस ने फ्रांस को यहां आक्रमण करने का न्योता दिया, जिस की मदद से उस ने भारतीय जनता को रौंद डाला। टीपू ने केवल फ्रांस ही नहीं, ईरान, अफगानिस्तान को भी हमले के लिए बुलाया था। अत: अंग्रेजों से टीपू की लड़ाई को ‘देशभक्ति’ कहना दुष्टता, धूर्तता या घोर अज्ञान है।
हिन्दू जनता पर टीपू की अवर्णनीय क्रूरता के विवरण असंख्य स्रोतों से प्रमाणित हैं। पुर्तगाली यात्री बार्थोलोमियो ने सन् 1776 से 1789 के बीच के अपने प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखे हैं। उस की प्रसिद्ध पुस्तक ‘वोएज टू ईस्ट इंडीज’ पहली बार सन् 1800 में ही प्रकाशित हुई थी। अभी भी वह केंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से पिछले वर्ष छपी उपलब्ध है। टीपू और फ्रांसीसियों के संयुक्त सैनिक अभियान का वर्णन करते हुए बार्थोलोमियो ने लिखा, ‘टीपू एक हाथी पर था, जिस के पीछे 30,000 सैनिक थे। कालीकट में अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों को फांसी पर लटका दिया गया। पहले मांओं को लटकाया गया जिन के गले से उन के बच्चे बांध दिए गए थे। उस बर्बर टीपू सुल्तान ने नंगे शरीर हिन्दुओं और ईसाइयों को हाथी के पैरों से बांध दिया और हाथियों को तब तक इधर-उधर चलाता रहा जब तक उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए। मंदिरों और चर्चों को गंदा और तहस-नहस करके आग लगाकर खत्म कर दिया गया।़.़ ’
भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार सरदार के. एम. पणिक्कर ने ‘भाषा पोषिणी’ (अगस्त, 1923) में टीपू का एक पत्र उद्धृत किया है। सैयद अब्दुल दुलाई को 18 जनवरी 1790 को लिखे पत्र में टीपू के शब्द हैं, ‘नबी मुहम्मद और अल्लाह के फजल से कालीकट के लगभग सभी हिन्दू इस्लाम में ले आए गए। महज कोचीन राज्य की सीमा पर कुछ अभी भी बच गए हैं। उन्हें भी जल्द मुसलमान बना देने का मेरा पक्का इरादा है। उसी इरादे से यह मेरा जिहाद है।’
मेजर अलेक्स डिरोम ने टीपू के खिलाफ मैसूर की लड़ाई में स्वयं हिस्सा लिया था। उन्होंने लंदन में 1793 में ही अपनी पुस्तक ‘थर्ड मैसूर वार’ प्रकाशित की। उस में टीपू की शाही मुहर का भी विवरण है, जिस में वह अपने को ‘सच्चे मजहब का संदेशवाहक’ और ‘सचाई का हुक्म लाने वाला’ घोषित करता था।
ऐसे प्रामाणिक विवरणों की संख्या अंतहीन है। टीपू के समय से ही पर्याप्त लिखित सामग्री मौजूद है, जो दिखाती है कि लड़कपन से टीपू का मुख्य लक्ष्य हिन्दू धर्म का नाश तथा हिन्दुओं को इस्लाम में लाना ही रहा था। सन् 1802 में लिखित मीर हुसैन अली किरमानी की पुस्तक ‘निशाने हैदरी’ में इस का विस्तार से विवरण है। इस के अनुसार, टीपू ने ही श्रीरंगपट्टनम की जामा मस्जिद (मस्जिदे आला) उसी जगह पहले स्थित एक शिव मंदिर को तोड़कर बनवायी थी।
उस ने अपने कब्जे में आयी सभी जगहों के नाम बदल कर भी उन का इस्लामीकरण कर दिया था। जैसे, कालीकट को इस्लामाबाद, मंगलापुरी (मैंगलोर) को जलालाबाद, मैसूर को नजाराबाद, धारवाड़ को कुरशैद-सवाद, रत्नागिरि को मुस्तफाबाद, डिंडिगुल को खलीकाबाद, कन्वापुरम को कुसानाबाद, वेपुर को सुल्तानपटनम आदि। टीपू के मरने के बाद इन सब को फिर अपने नामों में पुनर्स्थापित किया गया।
‘केरल मुस्लिम चरित्रम्’ (1951) के ख्याति-प्राप्त इतिहासकार सैयद पी़ ए़ मुहम्मद के अनुसार, केरल में टीपू ने जो किया वह भारतीय इतिहास में चंगेज खान और तैमूर लंग के कारनामों से तुलनीय है। इतिहासकार राजा राज वर्मा ने अपने ‘केरल साहित्य चरितम्’ (1968) में लिखा है, ‘टीपू के हमलों में नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या गिनती से बाहर है। मंदिरों को आग लगाना, देव-प्रतिमाओं को तोड़ना और गायों का सामूहिक संहार करना उस का और उस की सेना का शौक था। तलिप्परमपु और त्रिचम्बरम मंदिरों के विनाश के स्मरण से आज भी हृदय में पीड़ा होती है।’
उक्त पुस्तकों के अलावा विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’ (1887), विलियम किर्कपैट्रिक की ‘सेलेक्टिड लेटर्स आॅफ टीपू सुल्तान’ (1811), मैसूर में जन्मे ब्रिटिश इतिहासकार और शिलालेख-विशेषज्ञ बेंजामिन लेविस राइस की ‘मैसूर गजेटियर’ (1897), डॉ़ आई़ एम़ मुथन्ना की ‘टीपू सुल्तान एक्सरेड’(1980) आदि अनगिनत प्रामाणिक पुस्तकें हैं। संक्षेप में पूरी जानकारी के लिए बाम्बे मलयाली समाज द्वारा प्रकाशित ‘टीपू सुल्तान: विलेन आॅर हीरो’ (वॉयस आॅफ इंडिया, दिल्ली, 1993) देखी जा सकती है। सभी के विवरण पढ़कर कोई संदेह नहीं रहता कि यदि एक सौ जनरल डायर मिला दिए जाएं, तब भी निरीह हिन्दुओं को बर्बरतापूर्वक मारने में टीपू का पलड़ा भारी रहेगा। यह तो केवल कत्लेआम की बात हुई।
केरल और कर्नाटक में मुस्लिम आबादी की वर्तमान संख्या का सब से बड़ा मूल कारण टीपू था। हिन्दुओं के समक्ष उस का दिया हुआ कुख्यात विकल्प था, ‘तलवार या टोपी?’ अर्थात, ‘इस्लामी टोपी पहनकर मुसलमान बन जाओ, फिर गोमांस खाओ, वरना तलवार की भेंट चढ़ो!’ टीपू के इस कौल, ‘स्वॉर्ड आॅर कैप’ का उल्लेख कई किताबों में मिलता है।
बहरहाल, उसी टीपू को अभी संजय खान ने टाइम्स आॅफ इंडिया (18 नवंबर 2015) को दिए साक्षात्कार में ‘देशभक्त’ बताया है। साथ ही, उस के द्वारा हिन्दुओं को कत्ल करने, उन का उत्पीड़न, कन्वर्जन कराने आदि को ‘मिथ’ यानी कोरी गल्प करार दिया है। संजय खान साफ झूठ बोल रहे हैं! कम से कम उन्हें कोई अज्ञान नहीं है। कारण, जब सन् 1990 में उन्होंने दूरदर्शन पर अपना सीरियल ‘स्वॉर्ड आॅफ टीपू सुल्तान’ दिखाया था, तो उस पर कड़ी सामाजिक प्रतिक्रिया हुई थी। न्यायालय में मुकदमा भी चला था। मुख्य आपत्ति यही थी कि एक मनगढंÞत उपन्यास के आधार पर बने उस सीरियल में टीपू के बारे में झूठी बातें बताकर उसे देशभक्त, उदार आदि दिखाया गया था। तब, मार्च 1990 में अंग्रेजी साप्ताहिक ‘द वीक’ को एक साक्षात्कार में खान ने स्वीकार किया था कि जिस गिडवाणी लिखित उपन्यास पर आधारित उनका सीरियल था, उसके विवरण ‘इतिहास की दृष्टि से सच नहीं हैं।’
पचीस वर्ष पहले माने गए अपने झूठ को अब संजय खान ने इस नए इंटरव्यू में फिर जोर देकर सच बताया है। इतना ही नहीं, देश में ‘टीपू की छवि खराब करने’, देश में ‘भयंकर असहिष्णुता का वातावरण’ होने का आरोप लगाते हुए उन्होंने ‘टीपू का जश्न मनाने’ का आह्वान किया! यह बेशर्मी और धृष्टता क्या बताती है? यही कि हमारे देश में इतिहास का मिथ्याकरण और हिन्दू-विरोधी राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। साथ ही यह भी कि देश का अंग्रेजी मीडिया कट्टर हिन्दू-विद्वेष से ग्रस्त है। क्योंकि संजय खान से जैसे सवाल पूछे गए, वे सवाल नहीं थे, बल्कि उन की जैसे आरती उतारी गई थी! पिछले विवाद का संदर्भ देने के बाद भी तथ्यों पर एक भी प्रश्न ही नहीं था। सब कुछ केवल केंद्र सरकार, हिन्दू जनता को लांछित करने और उस पर ‘टीपू की महानता और जय-जयकार’ थोपने की जिद पर केंद्रित था। इस अंग्रेजी अखबार की ऐसी हिन्दू-द्वेषी बौद्धिक नीति कम से कम पिछले तीन दशक से स्थापित है। दूसरे भी अधिक पीछे नहीं हैं।
इतिहास का यह घोर मिथ्याकरण ही, हमारे देश में सेकुलरवाद, उदारवाद के रूप में बौद्धिक रूप से प्रतिष्ठित है। इससे तनिक भी असहमति रखने को ही ‘असहिष्णुता’ बताकर सीधे-सीधे संपूर्ण हिन्दू जनता को अपमानित किया जाता है। यह स्वतंत्र भारत में आधिकारिक नेहरूवादी नीति के रूप में इतने गहरे जमाया जा चुका है कि दूसरे राजनीतिक दल तक इस से बुरी तरह भ्रमित हैं। यह उसी भ्रम का ही नतीजा है कि नई सरकार के ‘विकास’ के नारे की खिल्ली उड़ाकर उसे दुनिया भर में ‘हिंसक’, ‘असहिष्णु’ के रूप में बदनाम करने की कोशिशें की गर्इं।
हमारे देश के कर्णधारों ने इस की अनदेखी की है कि इतिहास के प्रति गलत दृष्टिकोण से देश के किशोरों, युवाओं के मानस पर दुष्प्रभाव पड़ता रहा है। इसी से राजनीति में हिन्दू-विरोधी तत्व मजबूत रहे हैं। उन के प्रतिवाद-स्वरूप कुछ कहा जाए, तो उसे हिन्दू ‘असहिष्णुता’ बता कर उलटे दु:खी समूह को ही पुन: चोट पहुंचाई जाती है। इन सब को विशेष रंगत देकर जो दुष्प्रचार होता है, उस से भारत की अंतरराष्टÑीय छवि भी बिगड़ती है। बल्कि, जैसा तसलीमा नसरीन ने पहचाना, वही इस संगठित पुरस्कार-लौटाऊ प्रदर्शन का एक उद्देश्य ही था। अतएव वैचारिक लड़ाई की उपेक्षा केवल भाजपा के लिए ही नहीं, देश-हित के लिए भी ठीक नहीं है। आरंभिक इस्लामी विभूतियों से लेकर टीपू, और इकबाल-जिन्ना से लेकर ‘लादेन जी’ तक के बारे में गलतफहमी फैलाने वालों में अज्ञानियों से लेकर राजनीतिबाजों तक, हर तरह के लोग शामिल हैं। वे इसलिए भी कुछ भी अनाप-शनाप बोलते रहते हैं, क्योंकि उन्हें उन का अज्ञान दिखाया नहीं जाता। मत-वैभिन्य के नाम पर आदर दे दिया जाता है। यह इतने लंबे समय से चल रहा है कि गलत को सही, और सही को ही गलत मान लिया गया है।
टीपू के घृणित, क्रूर इतिहास को बदलकर ‘सामासिक संस्कृति’ का प्रतीक या ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी योद्धा’ का खिताब दे देना एक राजनीतिक कारस्तानी है। 14 अक्तूबर 1930 के ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ में एक विस्तृत समीक्षा छपी थी। उस के विशेष संवाददाता ने व्यंग्य-पूर्वक लिखा था कि ‘यंग इंडिया’ ने टीपू की ऐसी विरुदावली गढ़ी, मानो वह कोई कांग्रेस कार्यकर्ता हो। जबकि टीपू की कुख्याति हिन्दुओं के घोर शत्रु के रूप में है, जिसने कुर्ग में एक ही बार में 70,000 हिन्दुओं को बलात् इस्लाम में कन्वर्ट किया और उन्हें गोमांस खाने पर मजबूर किया। मैसूर नगर और उस के राजमहल का विध्वंस किया। महल पुस्तकालय में संग्रहित बहुमूल्य पांडुलिपियों को जलाकर उस से अपने घोड़ों के लिए चने उबलवाए। बड़े पैमाने पर मंदिरों और चर्चों को तोड़कर नष्ट किया। इसीलिए, सन् 1930 वाले ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ संवाददाता के अनुसार, यंग इंडिया ने अपनी ‘राष्टÑ-निर्माण’ वाली खामख्याली में टीपू की एक झूठी छवि गढ़ने की कोशिश की है।
इस प्रसंग से समझा जा सकता है कि किस तरह राजनीतिक उद्देश्यों से इतिहास का मिथ्याकरण करने की कोशिशें लगभग सौ साल से चल रही हैं। ध्यान दें, यंग इंडिया ने यह तब किया जब इतिहासकारों के प्रामाणिक लेखन के अलावा जन-गण की आम स्मृति में टीपू की वास्तविकता और भी हालिया तथा जीवन्त थी! मगर झूठ की भित्ति पर सद्भाव नहीं बनाया जा सकता। ऐसी कोशिशों ने शिक्षा और ज्ञान-विमर्श में सस्ती भावुकता और छिछले तर्कों को ऊंचाई प्रदान कर हमारे बौद्धिक स्तर और चरित्र, दोनों को गिराया है। इसीलिए, तब से लेकर अभी गिरीश कर्नाड तक को जानकारों द्वारा तीखी प्रतिक्रियाएं भी झेलनी पड़ीं। मगर, दु:ख की बात है कि फिर भी उन्होंने और उनके अज्ञानी समर्थकों ने नहीं समझा कि टीपू को सम्मानित करने की मांग कर-करके उन्होंने सदैव हिन्दुओं के घावों पर नमक छिड़कने का काम किया। टीपुओं के हाथों मारे गए लाखों मृतकों की आत्माओं का अपमान तो अलग रहा! टीपू के बारे में राजनीतिक दुष्प्रचार ही चलाते रहे और इसी को हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव की जरूरत बताते रहे हैं।
किन्तु हमें समझना होगा कि इतिहास का मिथ्याकरण या उस के प्रति अज्ञान सामाजिक सद्भाव के बदले वैमनस्य ही बढ़ाता है। वह एक कट्टर, आततायी मजहबी साम्राज्यवाद की ही मदद करता है। उस का फल कभी अच्छा नहीं हो सकता। पर कई दशकों से इस का हिसाब किसी ने नहीं मांगा, इसलिए वे भ्रमवश या धृष्टतापूर्वक वही लकीर पीटते रहते हैं। इतिहास के प्रति अज्ञान और हमारी संस्कृति के प्रति उदासीनता तथा उस के जबरन ‘सेक्यूलर’ इस्लामीकरण से देश को बड़ी हानि उठानी पड़ी है। निरपवाद रूप से सभी वैचारिक हमलों का निशाना केवल हिन्दू समाज रहता है। वह अपने धर्म, समाज की उपेक्षा-अपमान बेबस देखता है। यह देश का ही अपमान है, जिसे समझा जाना चाहिए। नेहरूवादी प्रभाव में यह लंबे समय से बेरोक-टोक चल रहा है। इसीलिए, जो बड़े बुद्धिजीवी और अकादमिक ‘एक्टिविस्ट’ लोकसभा चुनाव से पहले मोदी पर गोले बरसा रहे थे, वे पुन: संगठित, सक्रिय हो गए हैं। मोदी-विजय से उपजी निराशा से उबरकर अब वे किसी न किसी बहाने ठीक वही दुहरा रहे हैं, जो विगत कई बरसों से उन का रिकार्ड है। वैचारिक-सांस्कृतिक लड़ाई स्वभाव से ही अविराम होती है। साथ ही, इस में पहले प्रहार करने वाले को उसी तरह बढ़त मिलती है, जैसे खेल में टॉस जीतने वाले को। वह लड़ाई का स्वरूप तथा दिशा तय करने का अवसर पाता है। अनेक राष्टÑवादी नेताओं ने भी इसे नहीं समझा। उन्हें और देश को सदैव उस का खामियाजा भुगतना पड़ा है। -शंकर शरण
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