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फ्रांस की राजधानी को थर्राने वालों ने सोचा नहीं होगा कि जवाब इतनी जल्दी मिलेगा। सीरिया में योजना बनाने, बेल्जियम में तैयारियां करने और पेरिस को निशाना बनाने वाले आतंकी जिस वैश्विक फैलाव के लिए तैयार होते दिखे, दुनिया ने इस मजहबी उन्माद के विरुद्ध उतनी ही तेजी से एकजुट होना शुरू कर दिया। इस ताजा एकजुटता में भारत की भागीदारी सूत्रधार सरीखी है। पेरिस हमले से पहले, ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के साथ साझा घोषणापत्र में, पूर्वी एशिया सम्मेलन के दौरान और इस हमले के बाद तुर्की में जी-20 के मंच से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार इसकी आवश्यकता दोहराई। आतंकवाद की वैश्विक परिभाषा तय करने, आतंकवाद के मददगार देशों की मुश्कें कसने और इसके विरुद्ध विश्व बिरादरी के आपस में हाथ मिलाने का जैसा सतत अभियान उन्होंने चलाया, दुनिया 'आतंक के विरुद्ध एकता' की उसी दिशा में संकल्पित होती दिख रही है।
ये पंक्तियां लिखे जाने के तक विश्व आतंकवाद के नए पर्याय, इस्लामी स्टेट (आईएस) के गढ़ राक्का को काफी हद तक तबाह किया जा चुका है। फ्रांस और रूस के ताबड़तोड़ हवाई हमलों के बाद राक्का की सड़कों पर हथियार लहराते, खून-खराबे की खुशियां मनाते आतंकी जत्थे बिलों में जा दुबके हैं। दरअसल, फ्रांस और रूस दो ऐसी विश्व शक्तियां हैं, जिन पर आज जिहादी जुनून को रौंदने का नैतिक-नागरिक दबाव सबसे अधिक है। रूसी यात्री विमान को गिराकर 224 निदार्ेष यात्रियों की जान लेने के बाद से आईएस पुतिन सरकार के निशाने पर है। दूसरी ओर फ्रांस भी पेरिस हमले के बाद से राक्का पर ताबड़तोड़ हमले बोल रहा है। लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ राक्का को तबाह करने से वैश्विक आतंक के दैत्य को खत्म किया जा सकेगा? रूस और फ्रांस के हमले जोरदार हैं, इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन यह कोई संयुक्त आक्रमण नहीं है। दूसरे, रूसी विमान को तुर्की द्वारा मार गिराने की घटना ऐसी है जो लड़ाई को लक्ष्य से भटका सकती है। लक्ष्य एक ही होने के बावजूद आतंक के विरुद्घ अलग-अलग रणनीतियां बनाने, गुटबंदियां करने या हल्ला बोलने से लड़ाई थकाऊ और दुनिया के लिए ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाली साबित हो सकती है।
आतंकवाद से साझा युद्ध के दौरान आपसी समझ की यह दरार जितनी गहरी दिखती है उससे ज्यादा खतरनाक तरीके से विश्लेषित की जाती है। दबाव-प्रभाव और आपसी टकराव की गुत्थियों वाली इन परिभाषाओं में कुछ तो ऐसी हैं जो मजहबी उन्माद और कट्टरता की बात को सीधे-सीधे दबा जाती हैं। ऐसे विश्लेषकों के लिए यह शीतयुद्ध की समाप्ति और रूस के बिखराव के बाद विश्व व्यवस्था के ध्रुव के तौर पर स्थापित होने की रूसी-अमरीकी होड़ है। कुछ इसे मध्य एशिया तक सीमित और स्थानीय राजनीतिक कारकों से प्रेरित-पोषित मानते हैं। ऐसे विश्लेषकों के तर्क को स्वीकारने या नकारने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इन चर्चाओं में आतंकवाद की समस्या और उसे पोसने वाली मानसिकता से नजर हटने लगती है। वैसे, वैश्विक कूटनीति के जानकार चाहे जिन शब्दों में अपनी राय रखें, आज दुनिया यह मानने को तैयार नहीं कि आतंकवाद के पीछे उसकी अपनी कोई प्रेरक शक्ति और सिद्धांत नहीं है।
जिहादियों द्वारा बच्चियों से बलात्कार, युवतियों की नीलामी, गैर-मुसलमानों को आग में भूनते, पानी में डुबाते, गले रेतते आतंकियों के वीडियो़.़ ये सब काम महाशक्तियां करा रही हैं, यह बात लोगों के गले नहीं उतरती। अमरीका के मुखर समाज सहित पूरी दुनिया में लोग मानने लगे हैं कि आतंकवादियों के पास अपनी परिभाषा, तर्क और निर्देशक ताकतें हैं।
आतंकी समूहों के हथियार किस मार्के के हैं, किस सरकार को कौन कितना भीतर-बाहर से समर्थन देता रहा और आईएस की रुचि काफिरों का खून बहाने से ज्यादा तेल निकालने में है-इस तरह की दलीलों का अब कोई मतलब रह नहीं गया है। यह सच है कि किसी एक मत या पंथ के तमाम मतावलंबियों को मजहबी उन्माद में बराबर का दोषी नहीं माना जा सकता, लेकिन इस्लामी आतंकियों की करतूतों ने पूरी मुसलमान बिरादरी को शर्मनाक आरोपों की निर्मम बौछार में ला खड़ा किया है। काले झंडे पर हजरत मुहम्मद की मुहर को लहराते, हर हत्या और यंत्रणा को आयतों के आइने में जायज ठहराते आतंकी उन तमाम तर्कों को मुंह चिढ़ा रहे हैं जिनके बूते इस्लाम को 'शांति का मजहब' बताया जाता रहा।
संपूर्ण मानवता को आहत और दुनिया की बड़ी आबादी को शर्मिंदा करती यह लड़ाई लंबी चलेगी। आईएस को यदि इस्लामी विद्वान शैतान मानते हैं तो इस शैतान के विरुद्ध लड़ाई में उन्हें भी पूरा साथ देना होगा। फ्रांस, अमरीका या रूस माध्यम हो सकते हैं, लेकिन मानवता की खातिर पूरी दुनिया को यह युद्ध मिलकर लड़ना होगा।
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