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पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 12 अंक: 35
09 मार्च 1959
'पायनियर' लखनऊ
यह प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक पं. नेहरू की घोषणा को चुनौती देते हुए निम्न अकाट्य तर्क प्रस्तुत करता है:
''श्री नेहरू की 'ग्राम-ग्राम' जाकर सहकारी खेती का सन्देश फैलाने की' घोषणा उतनी ही नाटकीय है जितनी की मसानी की गृहयुद्ध की धमकी। सहकारिताओं का युद्ध एकाध व्यक्तियों के जिहादों से नहीं जीता जा सकेगा।
रूस और चीन
''श्री कुश्चेव ने स्वीकार किया है कि रूस को 50 लाख किसानों का सहकारी खेती का विरोध करने के अपराध में जेलखाने भेजना पड़ा था। चीन में उन लोगों पर सार्वजनिक मुकदमे चल रहे हैं। जो 'कम्युनों' के प्रति उत्साही नहीं है। ये मुकदमे उन पुराने मुकदमों की याद दिलाते हैं, जो चीनी कम्युनिस्टों ने अपने भूमि सुधार कार्यक्रम का श्रीगणेश करते समय जमींदारों पर चलाए थे। परिणामस्वरूप लगभग 20 लाख जमीदारों को फांसी दी गई थी।
भारत और चीन
सूक्ष्म विश्लेषण यह प्रकट करता है कि चीन और भारत में भूमि सुधारों के लिए जो पग क्रमश: उठाये जा रहे हैं वे लगभग समान हैं। (भारत में) जब जमींदारों को समाप्त किया गया तो भूमि के पुन: वितरण की स्थिति आ पहुंची। पुन: वितरण किया गया तो यकायक यह खोज की गई कि छोटे-छोटे खेतों को जोतने से अधिक उत्पादन नहीं होगा। उसका हल निकला 'स्वेच्छा' से सहकारी खेती। 'स्वेच्छा' सामने नहीं आएगी। तब क्यों न हम जबरदस्ती अपनाएं? यह तर्क बिल्कुल 'चित भी मेरी पट भी मेरी' के समान है।
बेकार आश्वासन
''पं. नेहरू का व्यक्तिगत आश्वासन कि भारत में उन बातों की पुरारावृत्ति नहीं होगी, पर्याप्त नहीं है। व्यक्तिश: वह स्वयं भारत के 5 लाख ग्रामों तक नहीं पहुंच पाएंगे और सहकारिता की भावना समितियां या फौज खड़ी करने से निर्माण नहीं होगी। जबकि साथ काम करने की कला राजनीतिक पार्टियां भी नहीं सीख पाई हैं- जो कि श्री नेहरू द्वारा कृपलानी जी की राष्ट्रीय सरकार की मांग को ठुकराने का प्रमुख कारण था, तब यह अपेक्षा करना बिल्कुल बेकार है कि एक शुभ प्रात: समस्त किसान जगकर सहकारी खेती की इतनी जोरदार मांग करने लगेंगे कि सरकार को उसके सामने झुकना ही होगा।'
'आज' वाराणसी
'सहकारी खेती' का सिद्धान्तत: समर्थक वाराणसी का दैनिक 'आज' भी पं. नेहरू को सचेत करते हुए लिखता है:
''यदि इस घेरे में रहते हुए उन्होंने गांव-गांव जाकर किसान-किसान को सहकारी कृषि अपनाने के लिए तैयार करने की चेष्टा की तो वे समाज क्रान्ति करने की क्षमता रखने वाली सहकारी कृषि को प्रश्रय न देंगे वरन् नौकरशाही ढंग की सहकारी कृषि को प्रोत्साहन देंगे जिसमें जनता की सहकारी भावना का नहीं, वरन् अफसरशाही सहकारी कृषि का बोलबाला रहेगा। ऐसी सहकारी कृषि में शासनतन्त्र के सहकारी कृषि अधिकारियों की मौज रहेगी और जनता त्रस्त होगी।''
इनकी भी सुनिए
नेहरू-कम्युनिस्ट गठबन्धन
पायनियर लखनऊ
कम्युनिस्ट बड़ी चतुराई से, सहकारी खेती और सार्वजनिक क्षेत्र के विकास विस्तार से सम्बन्धित कांग्रेस प्रस्तावों का अपने दलीय स्वार्थों के लिए उपयोग कर रहे हैं। कम्युनिज्म और जनतंत्रवाद एक दूसरे के विरोधी हैं परन्तु कांग्रेसजन स्वयं ही इसके दोषी हैं कि कम्युनिस्ट उन्हें अपने सहयात्री के रूप में पा रहे हैं। दारिद्र्य आज राष्ट्र का प्रमुख शत्रु है। परन्तु समाज के समाजवादी ढांचे के नाम पर समस्त स्वप्रेरणा को समाप्त कर जनतंत्र की बातें करते हुए उसके विरोधी उपयों को अपनाकर शत्रु को परास्त करने के स्थान पर हम उसे चोर दरवाजे से घुसा रहे हैं। इस व्यापक गिरावट का लाभ केवल कम्युनिस्ट ही उठ पाएंगे और वर्तमान नीतियों की विवेकशुन्यता का इससे बढ़कर क्या प्रमाण हो सकता है कि कम्युनिस्ट उनका स्वागत कर रहे हैं?
(27 फरवरी)
हिन्दुस्तान टाइम्स, दिल्ली
नागपुर प्रस्तावों के कार्यावयन के लिए कम्युनिस्टों की ओर से सहयोग-प्रस्ताव की प्राप्ति से कांग्रेसजनों को वही भय होना स्वाभाविक है, जिसने किसी प्राचीन रोमन से यह कहलाया था, ''जब यूनानी'' मुझे कोई उपहार देते हैं तो मुझे अधिक भय लगता है।'' किसी भी स्थिति में यह प्रस्ताव प्रारम्भिक अवस्था में किसी विशिष्ट नीति के कार्यान्वयन में सहयोग देने के लिए नहीं तो निष्कासन में सहायता देने के लिए है।
दिशाबोध- भू-स्वामी कृषि
सहकारी कृषि का दुराग्रह रखने की बजाए सेवा-सहकारी संस्थाओं को प्रोत्साहन देकर किसानों को छोटे-छोटे यंत्रों, स्प्रे पम्प, अच्छे पशु, बहुत ही साधारण ब्याज पर ऋण आदि सुविधाएं दी जाएं और उनके द्वारा किया गया उत्पादन उचित भाव में बेचने का प्रबंध सहकारी विपणन-संघों के द्वारा किया जाए तो खेती के विकास की दृष्टि से वह अधिक फलदायी होगा। इसमें से सहकारी खेती की कल्पना शास्त्रज्ञों ने कभी की त्याग दी है और सेवा सहकारी संस्था की कल्पना बहुत लोकप्रिय एवं राजमान्य भी हो चली है। हमारे यहां भूमि और किसान का नाता मां और पुत्र जैसा होता है। किसान को यह विश्वास होना चाहिए कि उसे भूमि पर से 'बेदखल' नहीं किया जाएगा। यह विश्वास हो, तभी वह खेती की भूमि में सुधार कर सकेगा और अधिकतम परिश्रम करते हुए अधिकाधिक फसल उगाएगा।
—पं. दीनदयाल उपाध्याय: विचार दर्शन, एकात्म अर्थनीति, पृष्ठ संख्या-59
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