|
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ इन दिनों अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े जोखिमदायी युग से गुजर रहे हैं। बलूचिस्तान की जनता जिस प्रकार से बगावत कर रही है उसे देखते हुए लगता है कि बलूचिस्तान अब पाकिस्तान की सीमा में बहुत दिनों तक नहीं रहना चाहता है। पिछले दिनों पाकिस्तान के सबसे बड़े विरोधी दल ने इमरान खान के नेतृत्व में नवाज हटाओ रैली का आयोजन किया था। कुछ ही समय में पाकिस्तान के अनेक नेता इस मुहिम से जुड़ गए थे। उस समय यह लग रहा था कि इस्लामाबाद एक बार फिर से 'मार्शल लॉ' की छाया तले सरक जाएगा। लेकिन हालात तेजी से बदले और सेना और नवाज शरीफ के बीच समझौता हो गया और पाकिस्तान फौजी शासन में जाने से बच गया। कहा जा रहा है कि सेना ने आन्तरिक और बाह्य दबाव में आकर नवाज को मोहलत दे दी। लेकिन फिर भी बात नहीं बनी। नवाज किसी समस्या को हल नहीं कर सके। इसका परिणाम यह हुआ कि स्थिति बद से बदतर होती चली गई। पिछले दिनों नवाज एक माह में दो बार अमरीका की परिक्रमा कर आए। पाकिस्तान अमरीका से परमाणु संधि चाहता था, लेकिन ओबामा ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। नवाज का कहना था कि भारत एक परमाणु ताकत सम्पन्न देश है। इसलिए वह कभी भी उस पर परमाणु शस्त्रों का प्रयोग कर उसे मटियामेट कर सकता है। लेकिन ओबामा जानते हैं कि पाकिस्तान एक नादान दोस्त है। वह किसी भी हद तक जा सकता है। इसलिए उसे परमाणु शस्त्रों से लैस करने की भूल नहीं की जा सकती है। इसके बाद नवाज स्वदेश वापस आ गए। स्वदेश लौटकर उन्होंने कुछ ऐसा ताना-बाना रचने का असफल प्रयास किया कि पाकिस्तान अपनी सीमा की रक्षा किसी न किसी प्रकार कर सके।
अलग होने की छटपटाहट
नवाज शरीफ जानते हैं कि पाकिस्तान में इस समय उसके दो बड़े भागों में उससे अलग होने की छटपटाहट अपने यौवन पर है। इसमें एक तो पाकिस्तानी कब्जे वाला कश्मीर है और दूसरा बलूचिस्तान। पाकिस्तानी कब्जे वाला कश्मीर अब किसी भी कीमत पर पाकिस्तान का हिस्सा नहीं रहना चाहता है। उसकी तमन्ना है कि वह भारत के कश्मीर से मिल जाए और वृहत्तर कश्मीर का भाग बन कर वे सभी लाभ उठाए जो भारत स्थित कश्मीर को मिल रहे हैं। पर पाकिस्तान इसे अपने पास रखने के लिए हर सम्भव प्रयास कर रहा है। पाकिस्तान चाहता है कि भारतीय कश्मीर में आतंकवाद बढ़े और वह येन-केन प्रकारेण पाकिस्तान का हिस्सा बन जाए। लेकिन यहां तो सारी बाजी ही पलट गई है। पाकिस्तानी कब्जे वाला कश्मीर भारतीय कश्मीर से मिलकर अपनी मूल प्राकृतिक स्थिति में लौट जाना चाहता है। लगता है कि अब नवाज शरीफ के पास इस आन्दोलन को रोकने का कोई मार्ग नहीं रह गया है। यदि पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर का विलय भारतीय कश्मीर के साथ हो जाता है तो फिर नवाज शरीफ की वर्तमान सरकार भला किस प्रकार टिक सकती है?
अब बात पाकिस्तान के सबसे बड़े प्रदेश बलूचिस्तान की। बलूचिस्तान भी अब उसके साथ नहीं रहना चाहता है। दूसरी बार जब नवाज शरीफ ओबामा के दरबार में पहुंचे तो उन्होंने 'डोजियर' की पोटली खोली और शिकायत की कि बलूचिस्तान भी पाकिस्तान से अलग होना चाहता है। उसके पीछे भी भारत की ही रणनीति है। उन्होंने 'डोजियर' के माध्यम से अनेक बातें ओबामा के सम्मुख रखीं। नवाज का कहना था कि पाकिस्तान अपनी रक्षा के लिए ही अमरीका से परमाणु संधि चाहता है, लेकिन अमरीका के गले में यह बात नहीं उतरी।
सम्मेलन की मंशा
अब पाकिस्तान ने अफगानिस्तान को आगे करके 'हार्ट ऑफ एशिया' सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया है। यह सम्मेलन 7 और 8 दिसम्बर को इस्लामाबाद में होने वाला है। इसके लिए पाकिस्तान ने भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भी आमंत्रित किया है। सम्मेलन में इस क्षेत्र के सभी देशों के भाग लेने की संभावना है।
'हार्ट ऑफ एशिया' में इस क्षेत्र के 25 देशों का समावेश है। सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे विवादों और कश्मीर समस्या पर भी बातचीत हो सकती है। पाकिस्तान इस सम्मेलन में बलूचिस्तान पर भी चर्चा करना चाहता है। सम्मेलन में मध्य एशिया के उन मुस्लिम राष्ट्रों का शामिल होना तय है, जो अफगानिस्तान के निकट हैं। इनमें तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, खिरगिस्तान आदि देश शामिल हैं। इनकी सीमाएं रूस से मिलती हैं। ये सभी सोवियत संघ के हिस्सा थे। इन देशों के पास समुद्र तट नहीं है। इसलिए वे सभी बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के जरिए अपना व्यापार और आवागमन करते हैं। इस बंदरगाह पर चीन की भी निगाहें लगी रहती हैं। इसलिए अफगानिस्तान और पाकिस्तान सहित मध्य एशिया के सभी देशों के लिए उक्त बंदरगाह अत्यंत महत्व का है। इन देशों को 'हार्ट ऑफ एशिया' कहा जाता है।
भारत चंूकि इन सभी के निकट है इसलिए यह सम्मेलन तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि भारत उसमें शामिल नहीं होगा। पाकिस्तान इस सम्मेलन के माध्यम से भारत पर दबाव लाने का प्रयास करना चाहता है।
पाकिस्तान की सीमाएं घटेंगी ?
भारत को छोड़कर ये सभी इस्लामी देश हैं। इसलिए पाकिस्तान यहां मजहब की दुहाई देकर बलूचिस्तान में बगावत रोकना चाहता है, लेकिन यह बात तय है कि अब बलूचिस्तान में बगावत होकर रहेगी। यदि बलूचिस्तान स्वतंत्र देश बन जाता है तो पाकिस्तान की सीमाएं एक बार फिर घटेंगी। बलूचिस्तान और पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के अलग हो जाने से पाकिस्तान की इस्लामी पहचान भी खतरे में पड़ जाती है। यह कहना शायद ठीक होगा कि बलूचिस्तान और अपने कब्जे वाले कश्मीर की बगावत को ठण्डा करने के लिए ही पाकिस्तान 'हार्ट ऑफ एशिया' सम्मेलन बुलाने में भारी दिलचस्पी दिखा रहा है। वह किसी भी तरह से बलूचिस्तान को खोना नहीं चाहता है। एक बात यह भी सही है कि आज बलूचिस्तान भले ही पाकिस्तान का भाग है, लेकिन वह हमेशा से स्वतंत्रता का हिमायती रहा है।
पाकिस्तान में शामिल कर लिए जाने के बाद भी बलूचिस्तानियों के जीवन में कोई बड़ा अंतर नहीं आया है। पाकिस्तान में जो भी सरकार आई उसने बलूचिस्तान की अनदेखी ही की है। इसलिए बलूचिस्तानी नेता अब पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों के बहकावे में नहीं आना चाहते हैं। पाकिस्तान भले ही 'हार्ट ऑफ एशिया' देशों का सम्मेलन बुला ले, लेकिन बलूचिस्तान के लोग किसी भी स्थिति में इस्लामाबाद की गुलामी स्वीकार नहीं कर सकते। पाकिस्तान अपने अणु बम की धमकी दे, लेकिन वह इस क्षेत्र की समस्याओं से निपटने में हमेशा असफल रहेगा। 'हार्ट ऑफ एशिया' सम्मेलन में भाग ले रहे देशों की सफलता इसी में है कि वे अप्राकृतिक सीमाओं को छोड़कर अखंड भारत में अपना विश्वास दोहराएं। नवाज शरीफ को समझ लेना चाहिए कि परमाणु युद्ध इन देशों की समस्याओं का समाधान नहीं है। -मुजफ्फर हुसैन
टिप्पणियाँ