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स्वामी सत्यमित्रानंद जी ने कहा कि 60 वर्ष की उम्र में ही अशोक जी को महात्मा कह देना चाहिए था। भारत में तमाम प्रकार की उपासनाएं हैं, दार्शनिक मार्ग हैं, लेकिन सब मार्गों के संत, महात्माओं, धर्माचार्यों को किसी एक मंच पर देश की, समाज की समस्याओं को हल करने के लिए जोड़ देने वाले व्यक्ति थे अशोक सिंहल जी। सभी जानते हैं कि वे जो ठान लेते थे वही करते थे। इसका अर्थ ये नहीं कि वे जिद्दी थे। वे संकल्प के धनी थे, वे आज्ञाकारी भी थे और धैर्यवान बहुत थे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रतीक्षा करते रहना, लक्ष्य कभी भूलना नहीं- ये उनकी विशेषता थी। साथ ही साथ दया और करुणा का भाव उनमें बहुत अधिक था, छोटे बड़े का विचार नहीं था। उनकी सिक्योरिटी का पीएसओ, गाड़ी चलाने वाला चालक, उनकी सेवा करने वाला सेवक अगर उसके घर में कोई सुख-दु:ख है तो बिना किसी से कहे कार्यक्रम अपने आप बनाते थे और चल देते थे। उनको किसी ने निमंत्रण दिया, नहीं दिया इसका विचार दिमाग में नहीं रखते थे। उनको जानकारी मिलनी चाहिए- ये कार्यक्रम हो रहा है, बहुत महत्व का कार्यक्रम है बिना बुलाये पहुंच जाते थे। मान अपमान का विचार उनको छू तक नहीं सकता था। मुझे ऐसा लगता है कि वे अपने कमरे के सामने अपने देवता रखते थे। अपने गुरु और परमपूज्य श्रीगुरुजी का चित्र रखते थे। कहते थे ये दो ही मेरे गुरु हैं। शायद वह सीधी प्रेरणा वहां से प्राप्त करते थे। इसीलिए उनके निर्णय हृदय से, आत्मा से लिए गए निर्णय होते थे। प्रथम दृष्ट्या तो यह लगता था कि यह कैसे होगा, ये क्या कह रहे हैं लेकिन उनका कहा हुआ हो भी जाता था। अंतत: सब कहते थे ये सही निकला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी जब उनके पास केवल शाखा का ही काम था तो भी वे देश की तमाम समस्याओं पर बोलते और सोचते थे। विश्व हिन्दू परिषद में रहकर तो हमें स्पष्ट अनुभव हुआ कि उनकी सोच वैश्विक थी। हर समस्या के बारे में सुनते रहना, अध्ययन करते रहना, चर्चा करना और समाधान खोजते रहने की उनमें विलक्षण प्रतिभा थी, शायद भगवान ने ही उन्हें यह जन्मना दी थी। कम लोगों को ही पता होगा कि कानपुर में पता लग गया कि रेलगाड़ी से गाय ले जायी जा रही हैं, उन्होंने कार्यकर्ताओं को लेकर ताले तोड़ दिए, गायों को मुक्त कर दिया और वहां से आगे की यात्रा पर निकले तो किसी की पकड़ में नहीं आए। दिल्ली का झंडेवालान मंदिर अराजक तत्वों के हाथ में था, श्रद्धालुओं की भावना का सम्मान करते हुए मार-मारकर उन्हें वहां से भगा दिया। आज वह मंदिर शुद्ध और प्रतिष्ठित है, सबके सामने है लेकिन उनकी व्यक्तिगत लिप्सा कभी उस मंदिर से नहीं रही। वेदों का पुनरुद्धार होना चाहिए, उत्तर भारत में वेदपाठ को कंठस्थ करने की परंपरा का बीज उन्होंने धरती पर डाला और आज वह जम गया। देश के माथे से गुलामी के कलंक हटने चाहिए, बच्चे-बच्चे के मन में एक ललक जगा दी। 1526 में हमारा अपमान हुआ था उसका परिमार्जन करने की प्रबल भावना जन-जन में जगा दी। देश के हर नौजवान में अपने पावन स्थल को मुक्त करने की चेतना जग गई, देश में हजारों मंदिर तोड़े गए थे, सभी के प्रति ऐसा भाव जग गया। कभी वंदेमातरम् और भारतमाता की जय के नारे हमारी स्वाधीनता की पहचान थे, वे आज भी याद किये जाते हैं। जय श्रीराम हमारे यहां पहले भी बोलते थे लेकिन 'जय श्रीराम' के नारे में वीरत्व भर दिया। तो अशोक जी का बहुत बड़ा योगदान है। अशोक जी तो शायद पढ़ने के बाद ही साधु जीवन की ओर, संन्यास लेने जा रहे थे लेकिन किसी शक्ति ने ही उन्हें प्रेरणा दी कि भारतमाता की यह दशा है तुम कहां जा रहे हो। फिर उसी प्रेरणा से उन्होंने संतों में जागरूकता पैदा की। जो संत केवल भजन करने में ही व्यस्त रहते हैं उन्हें समाज और देश की समस्याओं में भी रुचि लेनी चाहिए। हर आदमी को वैभव अच्छा लगता है वे तो वैभव छोड़कर घर से आए थे। घर के वैभव के बाद उन्हें किसी ने क्या खिलाया, कहां बिठाया, इस पर उन्होंने कोई विचार नहीं किया। मैं तो समझता हूं भगवान की कोई विशेष शक्ति अशोक जी में अवतरित हुई थी, इसी उद्देश्य के लिए उनका जन्म हुआ था। मैंने एक बार उनसे कहा कि कुछ आराम कर लिया कीजिए तो कहने लगे कि प.पू. श्रीगुरुजी ने एक बार कहा था कि आराम तो चिता पर ही होता है।
वास्तव में अशोक जी ने श्रीगुरुजी के शब्दों को सार्थक किया। 12 नवंबर शाम को उन्होंने एक घंटे मुझसे बात की। 13 नवंबर को केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी को बुलाया, उनसे एक घंटे बात की। इसी दिन रात्रि में 9 बजे स्वामी रामदेव से टेलीफोन पर वार्ता की और इसी वार्ता में उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया तब उन्हें रात्रि 2.30 बजे अस्पताल ले जाया गया। 10 नवंबर को परम पूजनीय सरसंघचालक जी से उन्होंने अपने मन की बात की। अंतिम समय में अस्पताल में भी लोगों को बुला-बुलाकर वे बातें करते रहे। हंसी मजाक नहीं करते थे देश की बात करते थे। 14 नवंबर के बाद उनकी वाणी बंद हो गई। उनको वेंटिलेटर लग गया, किडनी का फंक्शन घटने लगा। 17 नवंबर को दोपहर 2 बजकर 24 मिनट पर उनकी सांस बंद हो गई। अर्थात कुल मिलाकर साढ़े तीन दिन उन्होंने अपने जीवन में आराम किया। इससे पहले कभी उन्होंने बीमारी में भी आराम नहीं किया, ऐेसे विरले ही कर्मयोगी होते हैं। ऐसे महान कर्मयोगी को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम।
-चंपत राय
(लेख विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महामंत्री हैं)
रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत तथा सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी द्वारा स्व. अशोक सिंहल को दी गयी श्रद्घांजलि-
'हिन्दू समाज का सिंहत्व जाग्रत किया'
स्वर्गीय अशोक जी सिंहल के निधन से सारे विश्व के हिन्दू समाज को गहरा शोक हुआ है। उनके लम्बे संघर्षमय जीवन का अंत भी मृत्यु के साथ लम्बा संघर्ष करते हुए हुआ। श्री अशोक जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। संघ की योजना से उन्हें विश्व हिन्दू परिषद का दायित्व दिया गया था।
विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से हिन्दू समाज में चैतन्य निर्माण करते हुए उन्होंने हिन्दू समाज का सिंहत्व जाग्रत किया।
श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण आन्दोलन को एक महत्व के मुकाम पर लाने में उनकी महत्व की भूमिका रही है। भारत के सभी श्रेष्ठ साधु-संतों के साथ सतत् आत्मीय संपर्क के कारण उन्होंने सभी साधु-संतों का विश्वास एवं सम्मान अर्जित किया था। हिंदुत्व के मूलभूत चिन्तन का उनका गहरा अध्ययन था जो उनके वक्तव्य एवं संवाद द्वारा हमेशा प्रकट होता था।
ऐसे एक सफल संगठक एवं सक्रिय सेनापति को हिन्दू समाज ने आज खो दिया है। गत कुछ दिनों से अपने स्वास्थ्य के कारण विश्व हिन्दू परिषद् का कार्यभार अपने सुयोग्य साथियों को सौंप कर मार्गदर्शक के रूप में वे कार्य कर रहे थे। स्वतंत्र भारत के हिन्दू जागरण के इतिहास में श्री अशोक जी का संघर्षशील एवं जुझारू नेतृत्व सदा के लिए सभी के स्मरण में रहेगा।
उनकी दिवंगत आत्मा को सद्गति प्रदान हो, ऐसी हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।
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