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स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय इतिहास का विषय आज भी देश के जनमानस के लिए आश्चर्य तथा निराशा का विषय बना हुआ है। विश्व के पराधीन रहे अनेक देशों ने स्वाधीन होते ही अपने-अपने देश के इतिहास को राष्ट्रीय चैतन्य के प्रकाश में सही लिखा तथा उसमें तथ्यों के आधार पर परिवर्तन, संशोधन अथवा पुनर्लेखन किये हैं। परंतु भारत में ब्रिटिश शासकों ने जाते-जाते सत्ता का हस्तांतरण अपने चहेते पं. जवाहरलाल नेहरू तथा कांगे्रेस को एक सुन्दर सोने की थाली में रखकर सभी प्रजातांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर सौंप गये। कांग्रेस भी कभी ब्रिटिश शासकों द्वारा दी गई बरकतों को न भूली, वह अब भी उनकी आरती उतारने में लगी है। पाश्चात्य मॉडल से प्रेरित हो उन्होंने भारतीय संविधान बनाया तथा भारतीय मार्क्सवादियों के सक्रिय सहयोग से भारतीय इतिहास को भ्रमित, विकृत करने में कोई कसर न रखी। स्वामी विवेकानंद ने ब्रिटिश शासकों द्वारा प्रचारित इतिहास को 'सूडो' ऐतिहासिक प्रचार व राजनीति प्रेरित बताया है।
यह भारत का सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि भारत विश्व का प्राचीनतम जीवित राष्ट्र है। यह तब भी धनधान्य से सम्पन्न, अत्यंत गौरवशाली राष्ट्र था जब न ईसा का जन्म हुआ न इस्लाम का कहीं अता-पता था, न यूनान के नगर राज्यों का अस्तित्व था और न रोम नगर का निर्माण (जन्म 753 ई.पू.) हुआ था। अंग्रेजों ने भारतीयों में हीन भावना तथा राष्ट्र विस्मृति पैदा करने, अपने साम्राज्य को दृढ़ करने तथा भारत को एक ईसाई देश बनाने हेतु ही इसके इतिहास में अनेक भ्रांतियों-मिथकों को फैलाया था। उन्होंने बाइबिल के आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति, मानव का विकास, आर्य समस्या, काल गणना आदि पर अपने मनमाने निष्कर्ष दिये तथा उनका योजनापूर्वक प्रसार किया। इसी भांति उन्होंने भारत की प्राचीनता, इतिहास के कालक्रम पर काल्पनिक तथा अप्रमाणित व्याख्या प्रस्तुत की।
इतिहास : काल प्रवाह
भारत तथा विश्व के इतिहासकारों, वैज्ञानिकों नक्षत्र विधा के ज्ञााताओं तथा अन्य विद्वानों ने अपने-अपने शोध के आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति तथा मानव विकास की कहानी को वर्णित किया है। भरतीय इतिहास में सृष्टि की उत्पत्ति 197 करोड़ वर्ष पूर्व मानी गई है। यह गणना वेदों, पुराण ग्रंथों तथा मनुस्मृति में एक जैसी है। विदेशियों ने भी इस पर अपने विचार व्यक्त किये है। चीन ने सृष्टि की उत्पत्ति 10 करोड़ वर्ष ई. पूर्व, खताई ने 9 करोड़ वर्ष पूर्व मानी है। इसके पश्चात क्रमश: मिस्र, पारसी, तुर्की तथा यहूदियों ने कालगणना कम कर दी है। अंत में यूनानी, रोमन, ईस्वी तथा हिजरी मानी जाती है। विश्व के प्राय: सभी वैज्ञानिक वर्तमान काल में भारतीय कालगणना को निकटतम तथा सही मानते हैं। इसका आधार भूगोल, भूगर्भशास्त्र, शरीर विज्ञान, खगोल विधा, जीवोत्पत्ति शास्त्र आदि हैं।
सृष्टि की उत्पत्ति की भांति मानव इतिहास के संदर्भ में विवेचना की गई है। यह आश्चर्यजनक है कि 165 ई. में आयरलैंड के एक आर्च पादरी यूजेर ने घोषणा की कि मानव सृष्टि ईसा से 4004 वर्ष ई. पूर्व 23 अक्तूबर को प्रात: 9 बजे हुई। साथ ही यह भी आदेश दिया कि जो ये नहीं मानेगा वह पाखण्डी समझा जाएगा तथा उसको कठोरतम सजा दी जायेगी। पादरी की इस घोषणा को विश्व के ईसाई समाज ने ईश्वरीय वाक्य के रूप में अपनाया (देखें, हिस्टोरियन्स ॲाफ द वर्ल्ड, भाग एक, 1908, पृ. 626) गंभीर चिंतन का विषय है कि यूरोप के इतिहासकारों ने भी इस तथ्यहीन पांथिक घोषणा को भी पूर्णत: स्वीकार किया। मैक्समूलर ने इसका प्रचार किया। भारत में प्रथम ब्रिटिश प्राच्यवादी इतिहासकार सर विलियम जोन्स (1743-1791) ने अपने 11वें भाषण में 1791 ई. में इसके आधार पर भारतीय इतिहास की मनमानी व्याख्या की। अर्नोल्ड टायनबी ने इसका अनुसरण किया। उन्होंने एक हिस्टोरिकल एटलस बनाया जिसमें सामान्यत: विश्व की सभ्यताओं का विकास 2000 ई. पूर्व से दिखलाया। एक अमरीकी जॉन वी स्पार्क ने 1975 ई. में विश्व का एक हिस्ट्रो मैप तैयार किया जिसमें विश्व सभ्यताओं का विकास तथा पतन दिखलाया तथा इसका प्रारंभ भी 2000 वर्ष ई. पूर्व से किया। एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ने ईसाइयत के पूर्व के काल को अज्ञानतापूर्ण तथा अंधकारमय बताया। इसी संदर्भ में यूनानियों ने अपने देश को विश्व की प्राचीनतम सभ्यता का देश अर्थात 4004 वर्ष ई. पूर्व का माना। रोम का निर्माण आठवीं शताब्दी ई. पूर्व हुआ, तभी लैटिन भाषा का विकास हुआ। उन्होंने भी अपने को प्राचीनतम सभ्यता का देश कहा। वस्तुत: इन सभी ने यदि वैदिक साहित्य को जरा भी पढ़ा होता या केवल प्रत्यक्ष पुस्तकों का दर्शन किया होता तो उनके ये सभी कृत्रिम तर्क व खोखली मान्यतायें जरा भी टिक न पाते।
सिन्धु सभ्यता
1921-22 ई. में सिंधु घाटी के कुछ भागों में उत्खनन की जानकारी से विश्व के इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं में खलबली सी मच गई। जहां भारतीयों में असीम प्रसन्नता का संचार हुआ, वही अनेक विदेशी इतिहासकारों ने अनेक नए-नए भ्रम व मिथक गढ़े तथा काल्पनिक निष्कर्ष निकाले।
वस्तुत: 1856 ईं. में ब्रिटिश सरकार ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बनाने का प्रयत्न किया था। उन्हें कुछ ईंटों की आवश्यकता पड़ी थी। आसपास के हड़प्पा खण्डहर से कुछ ईंटें ली गई थीं। 1921-22 में राखलदास बनर्जी ने एक बौद्ध स्तूप की खुदाई करवाते समय यह अनुमान लगाया कि इसके आस-पास किसी नगर के ध्वंसावशेष होने चाहिए। अत: इसे पहले मोहनजोदड़ों-हडप्पा सभ्यता, फिर सिन्धु घाटी की सभ्यता तथा अब सरस्वती नदी से जुड़े अनेक स्थल मिलने से, सिन्धु सरस्वती सभ्यता ठीक नाम दिया जाता है।
ब्रिटिश इतिहासकारों तथा पुरातत्ववेत्ताओं ने अपने पूर्वाग्रहों से प्रेरित हो इसके निष्कर्ष भारत की प्राचीनता, प्राचीन वैदिक साहित्य तथा उससे सम्बंध न मिकालकर बाइबिल के मापदण्ड से निकाले। उन्होंने पहले ही 1866 ई. में एक प्रस्ताव पारित किया था कि भारत में आर्य बाहर से आए। अत: उसी को मानते हुए इस सभ्यता के जनक 'द्रविड' बतलाए तथा इसे 4004 वर्ष पूर्व के बाद की अर्थात 3000 वर्ष ई. पूर्व से लेकर 1500 ई. वर्ष पूर्व तक की सभ्यता का काल माना तथा इसका विनाश आयोंर् के कपोलकल्पित आक्रमम से गढ़ा।
सिन्धु सरस्वती नदी का प्रथम प्रणेता ब्रिटिश भूगर्भ विज्ञानी सर मोर्टिकर व्हीलर था जो सिन्धु के उत्खनन से जुड़ा था तथा जिसे 1944 में डाइरेक्टर जनरल आर्कियोलोजी सर्वे ऑफ इंडिया बनाया गया था।
अनेक भारतीय विद्वानों ने अंग्रेजों के भ्रामक तथा योजनापूर्वक प्रस्तुत काल्पनिक विचारों का कोई आधार न होने पर स्वीकार न किया, प्राचीन नगरी द्वारिका के खोजकर्ता प्रो. एस. आर. राव ने आयोंर् के आक्रमण के विचार का विरोध किया। (देखे डॉन एण्ड डील्यूशन ऑफ द इन्डस सिविलाइजेशन, दिल्ली, 1991, पृ. 324) प्रसिद्ध विद्वान जी बी लाल ने व्हीलर के विचार को अस्वीकार किया। (जी.बी.लाल, द इंडस सिविलाइजेशन, कल्चरल हिस्ट्री ऑफ इंडिया (सम्पादन ए.एल.वराय (1875 पृ. 19) प्रसिद्ध पुरातत्ववेता वी.के. थापर ने लिखा- पुरातत्व के अनुसार यह सिद्ध नहीं होता कि आर्य बाहर से आए- शांतिपूर्वक या आक्रमणकारी के रूप में।
वैदिक युग पूर्व यह सर्वमान्य है कि ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसे कम से कम दस हजार वर्ष पूर्व का माना है। ऋग्वेद के प्रसिद्ध ज्ञाता अविनाश चन्द्र दास ने ऋग्वेद की रचना कम से कम 25000 वर्ष मानी है तथा आर्यों के भारत पर आक्रमण करने वालों को उन्होंने अपनी व्यंग्यपूर्ण शैली में कहा- आर्य ने औपनिवेशकर्ता थे न भारत के थे, बल्कि यहां के मूल निवासी थे। (देखें, ऋग्वैदिक इंडिया, पृ. 61-62)
वेदों को ईश्वरीय ज्ञान तथा ईश्वर की वाणी माना गया है। वेदों के अध्ययन से व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन की आदर्श व्यवस्था, एक वैभव सम्पन्न राष्ट्र की कल्पना, मानवीय गणों के विकास का बोध, सृष्टि और प्रलय की व्याख्या, समाज रचना और राजनीतिक व्यवस्था आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। स्वामी विवेकानन्द ने वेदों को हिन्दुओं का आदि ग्रन्थ, स्वामी दयानन्द ने सत्य का प्रकाश, महर्षि अरविन्द ने भारतीय संस्कृति का आधार माना है। पं. दामोदर सातवलेकर का मत है संसार का कोई ज्ञान ऐसा नहीं है जो वेदों में न हो। वेद वाङ्मय में मुख्यत: चारों वेद- ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद आते हैं। वैदिक ग्रन्थों में ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदान्त, दर्शन तथा उपवेदों के ज्ञान का असीम भण्डार आता है।
प्रारम्भ में कुछ पाश्चात्य विद्वानों जॉन.एच हालवैल (1711-1790) क्यो कुरोफर्ड (1790) एवं वाल्वेयर आदि ने इन ग्रन्थों की सराहना की, पर शीघ्र ही वे इनसे भयभीत हो गए। उन्होंने ईसाइयत के मापदण्डों को अपनाते हुए वेदों को गडरियों या देहातियों के गीत कहा। कीथ बुहलर, मैक्डोनाल्ड, सर विलियम जोन्स ने इनका काल केवल 1500 ई. पूर्व से 1200 ई.पू. माना, अर्थात् इन्हें सिन्धु घाटी की सभ्यता के बाद का बतलाया, आर्यों की भारत पर आक्रमण की कहानी गढ़ी। पहले ही 1820में जे.सी रोहेेडस ने, 1847 में क्रिश्चियन चार्ल्स लेसर ने बेतुके तर्क दिए। मैक्समूलर ने 1861 ई. में आर्यों को भारत पर पहला आक्रमणकारी तथा अपने (बिट्रिश) को अंतिम बतलाया। (देखें, लैक्चर्स ऑन द साइंस ऑफ लैंग्वेज, लंदन, 1861)
संक्षेप में पाश्चात्य इतिहासकारों ने न केवल विश्व के सन्दर्भ में भारत के इतिहास के बारे में विसंगतियां फैलाईं बल्कि भारत के स्वयं के इतिहास में अनेक विवादों को जन्म दिया। वैदिक युग तथा सभ्यता का काल 3000 वर्ष ई. पूर्व का बताया। सिन्धु सभ्यता के आदिवासी द्रविड बतलाये तथा आर्यों को आक्रमणकारी तथा बर्बर कहा। इसी भांति आर्यों के आदि स्थान के बारे में यूरोप में जर्मनी, आस्ट्रेलिया, काकेसस (रूस) तथा एशिया में मध्य एशिया बताए जबकि किसी भी भारतीय विद्वान लोकमान्य तिलक, स्वामी दयानन्द, डा. सम्पूर्णानन्द आदि ने किसी भी आधार पर इसे स्वीकार न किया। इसी भांति कुछ विदेशी विद्वानों- अमरीका के सीडेन वर्ग तथा डेविड फ्राउली पूर्णत आयोंर् को भारत का वासी मानते हैं। भगवान गिडवानी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि आर्य बाहर से नहीं आए बल्कि भारत से बाहर गए।
गत चालीस वर्षों में भारतीय इतिहास संकलन योजना ने देश-विदेश में अनेक गोष्ठियां आर्य समस्या, काल गणना तथा सरस्वती नदी पर कीं। जिससे यही निष्कर्ष निकला कि आर्य कोई जातिवाचक शब्द नहीं बल्कि गुणवाचक है। आर्यों का आदि देश भारत है तथा वैदिक साहित्य इतना है कि वह केवल कुछ वर्षों में नहीं लिखा जा सकता। अनेक स्थानों पर विदेशियों द्वारा यह सुनने को भी मिला कि हम तो मानते हैं कि वैदिक संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है।
इतिहास क्रम बदले
1921-22 में सिन्धु सभ्यता के प्रकाश में आने के पश्चात् अंग्रेजों ने प्रयत्नपूर्वक इतिहास अध्ययन पाठन तथा शोधकों की सोच को बदला। उन्होंने अब इतिहास लेखन का क्रम सिन्धु घाटी के उत्खनन से किया तथा वैदिक इतिहास से महाभारत के इतिहास को बिल्कुल हटा दिया। स्वतन्त्रता के पश्चात् कांग्रेस सरकार ने भारतीय मार्क्सवादियों से मिलकर एनसीईआरटी की पुस्तकों में भी वैदिक इतिहास को नकारकर केवल इतना पढ़ाया कि 'आर्यों ने सिन्धु घाटी की सभ्यता को नष्ट किया।' व्यावहारिक रूप से जेम्स मिल अथवा वी.ए. स्मिथ का कालक्रमानुसार इतिहास आज भी भारतीय विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। सिन्धु घाटी की सभ्यता जो अधिक से अधिक 3000 वर्ष ईं. पूर्व से मानी जाती है, उससे पूर्व इतिहास के पाठ्यक्रम में वैदिक साहित्य, ऋग्वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल उपनिषद काल, रामायणकाल तथा महाभारत काल आदि का विस्तृत अध्ययन होना चाहिए। जो सिन्धु सभ्यता से पूर्व की है। भारत के इतिहासकारों को चाहिए कि वे इतिहास को तथ्यों के आधार पर लिखें, इतिहास का औपनिवेशिक अथवा यूरोप केन्द्रित के स्थान पर भारतीय चिंतन दृष्टि से मूल्यांकन करें। भारतीय इतिहास को अपनी जड़ों को निहारने तथा जानने की दृष्टि से लिखें। भौतिक प्रगति के साथ भारत के आध्यात्मिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक पक्षों का भी विचार करें, तभी भारत का सही इतिहास लिखा जा सकेगा तथा चिंतन की दिशा भी ठीक होगी।
– डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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