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बिहार विधानसभा के चुनाव प्रचार में जाति का जहर लगातार घोला जा रहा है। हालांकि यह आदर्श चुनाव आचार संहिता के विरुद्ध है, परंतु इसकी परवाह किसे है? हर नेता, विशेषकर जातिवाद की राजनीति करने वाले नेता सुबह से शाम तक जाति के आधार पर वोट देने की अपील कर रहे हैं। इस अपील में वे सामान्य मर्यादा भी भूल रहे हैं। लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी यादव राघोपुर से चुनाव लड़ रहे हैं। यहां के तेरसिया में आयोजित इस वर्ष की अपनी पहली चुनावी सभा में लालू प्रसाद ने कहा, 'यदुवंशियो सावधान! अपने वोट को बिखरने मत देना। भाजपा ने यादवों के वोट को बांटने का सब उपाय कर दिया है। भाजपा यादवों को कमजोर करना चाहती है। अरे, जब यादव को भैंस कमजोर नहीं कर सकी तो ये सब क्या हैं? जाग जाओ। दलाल को पहचानो। कमंडल के फोड़ देवे ला हऊ .़.़.़ यह लड़ाई बैकवर्ड-फारवर्ड की है।'
हालांकि चुनाव आयोग के कहने पर लालू प्रसाद के विरुद्ध एफ.आई.आर. दर्ज हो गई है। चुनाव आयोग ने रपट मांगी है। यदि इसमें वे दोषी पाए गए तो उनकी सभाओं पर प्रतिबंध भी लग सकता है।
बिहार में कभी जुमला चलता था 'वोट और बेटी अपनी जाति को ही देना चाहिए।' पहले यह काम दबे-छुपे होता था, पर अब खुल्लम-खुल्ला। बिहार के चुनावी मिजाज को बिगाड़ने में लालू प्रसाद ने अहम भूमिका निभाई है। नब्बे के दशक में उन्होंने 'भूराबाल साफ करो' का नारा दिया था। इसका अर्थ बताते हुए उनके समर्थक कहते थे, 'भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ)' के संक्षिप्त रूप को वे भूराबाल कहते थे।
वैसे बिहार की राजनीति में जातिवाद का पुराना इतिहास रहा है। आजादी के पूर्व बिहार में मंत्रिमंडल का गठन होना था। ज्यादा समर्थन के बावजूद अनुग्रह नारायण सिंह, जो राजपूत थे, बिहार के प्रधानमंत्री (उस समय यही कहा जाता था) नहीं बन सके थे। उनकी जगह श्रीकृष्ण सिंह, जो भूमिहार थे, प्रधानमंत्री बने। देशरत्न डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद के बीच-बचाव के कारण यह संभव हो सका। अनुग्रह बाबू ने तो इसे स्वीकार कर लिया था, परंतु इस घटना को राजपूत मतदाताओं ने अपने स्वाभिमान से जोड़कर देखा। इसके बाद बिहार के राजनीतिक परिदृश्य पर लॉबी उभरी- राजपूत और भूमिहार की। इस सब का फलाफल यह हुआ कि 'एप्पल बाय कमेटि' ने जिस बिहार को देश का दूसरा बेहतर राज्य माना था वह हर मोर्चे पर पिछड़ने लगा। जातियों की गोलबंदी शुरू हो गई। 1965 के बाद बिहार और उत्तर प्रदेश में कई परिवर्तन हुए। समाजवादियों ने यादव जाति को पिछड़ों के विकास का इंजन बताया। 1967 के बाद बिहार में आयाराम-गयाराम की सरकार बनती रही। कोई भी सरकार एक वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। 1972 के बाद थोड़ा स्थायित्व आया। जातियों को राजनीतिक रूप से उभारने का और अपने पक्ष में करने का सिलसिला कांग्रेसियों ने जो शुरू किया उसकी गति क्रमश: तेज होती गई।
बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में जब लालू प्रसाद का प्रादुर्भाव हुआ तो घोर जातिवाद ने अपना रूप दिखाना शुरू किया। लालू प्रसाद ने एक खास जातीय समीकरण के आधार पर पंद्रह वषार्ें तक राज किया। उनके पूरे कार्यकाल में जाति ही प्रमुख रही। नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल में वंचितों (दलितों) को बांटने का काम किया। दुसाध तथा कुछ जातियों को छोड़कर शेष को महादलित वर्ग में रखा। लालू प्रसाद बिहार की कमजोर नब्ज को पहचानते हैं। जब राजग से जदयू अलग हुआ तो लालू ने इसे अपने राजनीतिक वनवास की समाप्ति मानकर जाति से जुड़े हर मुद्दे को उछालना शुरू किया।
बिहार की राजनीति में हाशिए पर जा चुके लालू इस चुनाव में अपने राजनीतिक पुनरुज्जीवन की संभावना देख रहे हैं। 2010 के चुनाव में लालू प्रसाद इतनी सीटें भी नहीं जीत सके थे कि उन्हें नेता प्रतिपक्ष का स्थान दिया जा सके। पटना के वरिष्ठ साहित्यकार श्रीकांत यादव व्यास कहते हैं, 'लालू रूपी 'जिन्न' को नीतीश ने बेवजह जिंदा कर दिया। बिहार में जातिवादी राजनीति समाप्त हो चुकी थी, लेकिन लालू ने उसे फिर से हवा दे दी है।' वहीं बिहार के चुनाव पर लंबे समय से नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रविरंजन सिन्हा कहते हैं, 'लालू प्रसाद आर-पार की लड़ाई लड़ रहे हैं। लालू प्रसाद की उम्र 67 वर्ष है। पांच वर्ष बाद 70 पार कर जाएंगे। परिवार में वर्चस्व की होड़ है। अगर अभी उनके बेटे चुनाव मैदान में सफल नहीं हुए तो अगली बार में संशय है। परिस्थितियां इस प्रकार की बन रही हैं कि अगली बार लालू प्रसाद कहीं अप्रासांगिक न हो जाएं।' शायद यही कारण है कि लालू हताशा में हैं। राघोपुर उनके लिहाज से सबसे सुरक्षित सीट है। इसलिए उन्होंने अपने बेटे तेजस्वी यादव को यहां से उम्मीदवार बनाया है। लालू प्रसाद अपने भविष्य की संभावना तेजस्वी मेंे देख रहे हैं। ऐसी ही संभावना मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव में देखी थी। वे इसमें सफल भी रहे, क्योंकि अखिलेश में अच्छी राजनीतिक समझ है, साथ ही उन्होंने उच्च शिक्षा भी हासिल की है। लेकिन तेजस्वी के पास इन दोनों का अभाव है। इसके बावजूद लालू प्रसाद अपने राजनीतिक पुनरुज्जीवन और बेटों को नेता बनाने के लिए लगे हैं। इसके लिए वे हर वह चाल चल रहे हैं जिन्हें चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन माना जा सकता है।
नीतीश कुमार को लगातार कोसने वाले लालू प्रसाद इस चुनाव में नीतीश के संदर्भ में संभल-संभलकर अपनी बातें कह रहे हैं। नीतीश कुमार के शासन को लुंज-पुंज बताने वाले लालू प्रसाद ने जब उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी माना तो उन्होंने एक तीर से कई शिकार किए। लालू प्रसाद की सारी रणनीति मंडल राज के ईद-गिर्द ही घूमती नजर आ रही है। उनकी पूरी कोशिश है कि चुनाव प्रचार में जाति और आरक्षण को इतना उछालो कि लोग जाति के आधार पर वोट करने के लिए तैयार हो जाएं। जनगणना में जातिगत जानकारी को सार्वजनिक करने के लिए उन्होंने कुछ दिन पहले हड़ताल भी की थी। वे कथित पिछड़ी जातियों को अगड़ी जातियों के विरुद्ध भड़काकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकना चाहते हैं, लेकिन उनकी मंशा शायद ही पूरी हो। 2014 में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी जैसे अति पिछड़े को प्रधानमंत्री बनाकर पिछड़ों के बीच अपनी पैठ बना ली है। दूध व्यवसाय से जुड़े महेश राय कहते हैं, 'लालू प्रसाद के शासनकाल में हर कोई परेशान था। वे सिर्फ आरक्षण और सम्मान की बात करते रहे, लेकिन खुद यादवों को भी उन्होंने कभी विश्वस्त नहीं माना। उन्होंने यादवों के वोट के बल पर केवल अपने परिवार के लोगों को आगे बढ़ाया। वहीं दूसरी ओर भाजपा ने एक चाय वाले को प्रधानमंत्री बनाकर बता दिया कि वह सबको आगे बढ़ाना चाहती है।'
लालू के हर दांव को निष्फल करने के लिए राजग ने विशेष तैयारी की है। भाजपा ने यादव बहुल सीटों पर किसी यादव को ही उतारकर लालू को चित करने का प्रयास किया है। भाजपा ने सारण के मढ़ौरा विधानसभा क्षेत्र में राजद के ही लाल बाबू यादव को टिकट दिया है। लालू प्रसाद के लिए सबसे प्रतिष्ठा की सीट राघोपुर है। भाजपा ने जदयू के निवर्तमान विधायक सतीश राय को टिकट देकर लालू प्रसाद की नींद उड़ा दी है। सतीश राय की क्षेत्र में अच्छी पैठ है। इनके भाई संतोष पटना के प्रमुख पत्रकारों में गिने जाते हैं। सतीश राय के कारण लालू प्रसाद को अपने प्रचार की शुरुआत तीसरे चरण की सीट से करनी पड़ी है।
लालू प्रसाद यह भी दिखाना चाहते हैं कि वही यादवों के एकमात्र नेता हैं। इसलिए वे अन्य यादव नेताओं को अपने प्रचार अभियान में गाली देने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। रामकृपाल यादव को उन्होंने ठग बताया, तो पप्पू यादव का नाम लिए बगैर भाजपा का दलाल। लालू ने रामकृपाल यादव पर यह भी आरोप लगाया कि उनके पास पटना में अकूत सम्पत्ति है। इस पर रामकृपाल यादव ने करारा जवाब दिया कि यदि वे उनकी सम्पत्ति सिद्ध कर दें तो वह सम्पत्ति लालू की पार्टी को दान कर देंगे। मधुबनी के एक शिक्षक दिनेश यादव कहते हैं, 'वास्तव में जब लालू प्रसाद मंडल-दो की बात करते हैं तो इससे उनका मतलब अपने परिवार से होता है। लालू को यादव समाज से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें सिर्फ अपनी पत्नी और बेटे-बेटियों की चिंता है। जबकि भाजपा समाज के सभी लोगों की चिंता करती है।' लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान ने लालू प्रसाद के कथित यादव प्रेम पर कहा कि भूपेन्द्र यादव, हुकुमदेव नारायण यादव, नंद किशोर यादव, रामकृपाल यादव, नित्यानंद राय, असली यादव तो इधर हमारे पास हैंं। दलित, महादलित सब इधर हैं, उधर कहां कुछ बचा।
लालू प्रसाद जहां इस चुनाव को अगड़ा-पिछड़ा ध्रुवीकरण के आधार पर लड़ना चाहते हैं, वहीं नीतीश कुमार इस चुनाव को बिहारी स्वाभिमान के साथ जोड़ रहे हैं। लेकिन नरेन्द्र मोदी को बाहरी कहने वाली बात लोगों को पच नहीं रही है। नीतीश कुमार चुनावी सभाओं में बिहारी और बाहरी का मुद्दा उठाने से नहीं चूक रहे हैं। हर जगह नीतीश कुमार यही कह रहे हैं कि बिहार में गुजरात का मॉडल नहीं चलेगा। बिहार का विकास बिहारी ही करेगा। लेकिन उनकी इन बातों का लोग विरोध भी करने लगे हैं। उनकी सभाओं में लोग मोदी-मोदी के नारे लगा रहे हैं। इसके बावजूद महागठबंधन के नेता हवा के रुख को पहचान नहीं रहे हैं या फिर पहचानने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। यह रवैया उनके लिए कहीं भारी न पड़ जाए। – पटना से संजीव कुमार
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