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संयुक्त राष्ट्र के निर्माण के समय दो देशों के बीच टकराव मुख्य समस्या थी, लेकिन आज गैर राज्यीय तत्व (नॉन स्टेट एक्टर्स) टकराव पैदा कर रहे हैं। ये शब्द थे मोदी के संयुक्त राष्ट्र महासभा में। विश्व मीडिया में गहमा-गहमी थी और पाकिस्तान के सियासी हल्कों में थी बेचैनी। माहौल पहले ही बन चुका था।
जब कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का आमना-सामना होने वाला होता है, भारतीय मीडिया में मैराथन बहस शुरू हो जाती है। जैसे कि 'दोनों एक होटल में ठहरे हैं, बात करेंगे क्या? आमने-सामने बैठेंगे, हाथ मिलाएंगे क्या?' संयुक्त राष्ट्र बैठक के लिए दोनों नेता न्यूयार्क पहुंचे तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। वैसे मीडिया के लिए भी इसकी संभावना पहले ही धुंधली हो चली थी क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की दूत मलीहा लोधी द्वारा सुरक्षा परिषद को लिखे पत्र सामने आ गए थे जिनमें भारत की शिकायत की गयी थी। 4 और 9 सितम्बर को लिखे गए इन पत्रों में लोधी ने 'भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के बीच कार्यशील 197 किलोमीटर लम्बी सीमा पर भारत द्वारा 10 मीटर ऊंची और 135 फुट चौड़ी दीवार उठाए जाने की सम्भावना पर चिंता जताई थी।' पत्र में आगे कहा गया था कि 'जम्मू-कश्मीर अंतरराष्ट्रीय तौर पर मान्य विवादित क्षेत्र है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का अमल होना शेष है। और भारत ये तथाकथित दीवार उठाकर अस्थायी सीमाओं की स्थिति को बदलना चाहता है। इस दीवार के बनने से नियंत्रण रेखा एक आभासी अंतरराष्ट्रीय रेखा में परिवर्तित हो जाएगी।' पाकिस्तान की इस मांग पर भारत का कोई स्कूली छात्र भी मुस्कुरा सकता है। जवाब में भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा कि पाकिस्तान का यह पत्र हिज्बुल मुजाहिदीन के सरगना सैयद सलाहुद्दीन की अपील पर आधारित है, जो एक दुदांर्त आतंकवादी है।
“कैलिफोर्निया के सैप सेंटर में भारतीयों को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने बिना नाम लिए पाकिस्तान को घेरा।”
वे बोले कि आतंकवाद,आतंकवाद होता है, अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद नहीं होता। यूएन अब तक ये तय नहीं कर पाया है कि 'आतंकवाद है क्या। यूएन साफ करे कि कौन आतंकवाद के साथ खड़ा है और कौन मानवतावाद के साथ।
सलाहुद्दीन ने नवाज शरीफ से मांग की थी कि वे कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र में उठाएं। पाकिस्तान में सब जानते हैं कि हाफिज सईद और सलाहुद्दीन दरबार के आदमी हैं। सो, नवाज शरीफ जब संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून से मिले तो कश्मीर पर स्यापा करने से नहीं चूके। इस दौरान उनके वे शब्द कई लोगों के दिमाग में कौंधे होंगे जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के लिए कहा था कि वे किसी देहाती औरत की तरह रोते और शिकायत करते हैं। जाहिर है, समय काफी बदल चुका है।
समय के इस बदलाव को पाकिस्तान के प्रतिष्ठित दैनिक द नेशन के सम्पादकीय में बहुत साफगोई से लिखा गया-प्रधानमंत्री मोदी एक चतुर राजनेता हैं जो अपने विरोधियों को मात देना जानते हैं। उनका मकसद भारत की राजनैतिक और सैन्य ताकत का दबदबा कायम करना है। उनका स्वागत किसी 'स्टार' की तरह किया गया है। सम्पादकीय में आगे कहा गया है कि सियासतदानों के बीच जोर आजमाइश हर किसी को दिलचस्प लगती है, लेकिन जब शरीफ और मोदी में मुकाबले की नौबत आती है तो हमारी पीठ दीवार से जा लगती है। द नेशन के अनुसार, जहां मोदी किसी सितारे की तरह आयोजनों और पार्टियों में शिरकत कर रहे हैं, हमारे प्रधानमंत्री के पास सिर्फ संयुक्त राष्ट्र का मंच है। समय पाकिस्तान के प्रतिकूल है। ़.़. मोदी न केवल सिलिकन वैली के शीर्षस्थ उद्योगपतियों से मिलेंगे बल्कि फेसबुक के 15 करोड़ उपयोगकर्ताओं के प्रश्नों के उत्तर भी देंगे। उन्होंने भारतीयों से भरे पूरे 350 उद्योग नायकों के साथ रात्रि भोज किया और उन्हें उनके ज्ञान को भारत लाने के लिए प्रोत्साहित किया। ़.़. नवाज शरीफ क्या कर रहे हैं? जहां एक ओर मोदी प्रवासी भारतीयों से जुड़ रहे थे वहीं हमारे नवाज शरीफ अमरीकी राष्ट्रपति से उर्दू में बात करने पर विचार कर रहे थे ताकि हमारे अभिमान को कुछ सहारा मिल सके। यह एक मजाक है। पाकिस्तान के पास पश्चिम को देने के लिए कुछ भी नहीं है। व्यक्तित्व और करिश्मा भी नहीं। नवाज शरीफ के लिए यह समय अंगारों पर बैठने जैसा है, लेकिन उनकी मुश्कें कसी हुईं हैं, और हद की लकीर खिंची हुई है, क्योंकि पाकिस्तान की जिहादी फौज की एक बन्दूक हमेशा उनके वजीरे आजम की ओर तनी रहती है।
इस बीच कैलिफोर्निया के सैप सेंटर में भारतीयों को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने बिना नाम लिए पाकिस्तान को घेरा। वे बोले कि आतंकवाद,आतंकवाद होता है, अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद नहीं होता। यूएन अब तक ये तय नहीं कर पाया है कि 'आतंकवाद है क्या। यूएन साफ करे कि कौन आतंकवाद के साथ खड़ा है और कौन मानवतावाद के साथ। संयुक्त राष्ट्र आतंकवाद की परिभाषा सुनिश्चित करे ताकि दुनिया को पता चले कि उसे किस रास्ते पर चलना है। भारत 40 साल से आतंकवाद से परेशान है। दुनिया 'गुड टेररिज्म और बैड टेररिज्म' में फर्क करना बंद करे।' भारत के इन सुरों और प्रयासों को दुनिया में समर्थन मिलना शुरू हो गया है। सबसे ताजा उदाहरण है अमरीका में राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प का। सितम्बर के तीसरे हफ्ते में एक रेडियो साक्षात्कार में ट्रम्प ने कहा कि यदि वे राष्ट्रपति बने तो अस्थिर पाकिस्तान को साधने के लिए भारत का सहयोग लेंगे। भारत ही पाकिस्तान को राह पर ला सकता है। जब पूछा गया कि 'यदि पाकिस्तान हाथ से बाहर जाता है तो क्या वे पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को नियंत्रण में लेने के लिए अमरीकी फौज को भेजेंगे?' तो ट्रम्प का उत्तर था कि वे अपने संभावित शत्रु के बारे में अपनी योजनाओं को सार्वजनिक नहीं करना चाहते। 'आखिर कुछ तो अपने दुश्मन के सोचने के लिए भी छोड़ना चाहिए।' राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने जा रहे एक नेता का ये बयान अमरीकी मतदाताओं की सोच को भी रेखांकित कररहा है। उधर वर्तमान राष्ट्रपति ओबामा ने भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत के दावे को अमरीकी समर्थन की पुष्टि कर दी। 28 सितम्बर को ओबामा से भेंट के बाद मोदी ने उन्हें इसके लिए सार्वजनिक रूप से धन्यवाद दिया।
इसके पहले 27 सितम्बर को प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास सम्मेलन 2015 को संबोधित करते हुए कहा,'सुरक्षा परिषद समेत संयुक्त राष्ट्र में सुधार अनिवार्य है ताकि इसकी विश्वसनीयता और औचित्य बना रहे सके। साथ ही व्यापक प्रतिनिधित्व के द्वारा हम अपने उद्देश्यों की प्राप्ति अधिक प्रभावी रूप से कर सकेंगे।' उन्होंने कहा,'हम ऐसे विश्व का निर्माण करें जहां प्रत्येक जीव मात्र सुरक्षित महसूस कर सके। सभी को अवसर और सम्मान मिले।'
पाकिस्तानी मीडिया में कुछ और बातों की भी चर्चा होती रही। उनमें से एक है पिछले हफ्ते विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और अमरीका के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट जॉन कैरी के संयुक्त वक्तव्य की, जिसमें लश्करे तोयबा की तुलना अल कायदा से की गई है। साथ ही अमरीका द्वारा भारत को नाभिकीय सामग्री निर्यातक देश के रूप में समर्थन, अफगानिस्तान के स्थायित्व में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका और भारत को अमरीका-जापान-अस्ट्रेलिया संयुक्त सैन्य अभ्यास का हिस्सा बनने का आमंत्रण शामिल है। इसके अलावा वह कुछ दिनों पहले संयुक्त अरब अमीरात द्वारा भारत को दिए गए महत्व और आतंक विरोधी करार पर कयास लगता रहा कि आखिर पाकिस्तान का ये पुराना दोस्त अचानक विरोधी खेमे में कैसे जा बैठा? अब बात भारत की पाक नीति और घरेलू मोर्चे की। बुद्धिजीवी 'प्रगतिशील' पत्रकार वगैरह का एक वर्ग भारत-पाक वार्ता टूटने पर जनता को घुट्टी पिला रहा है कि भारत सरकार ने शांति के मौके को खो दिया है। बहुत बुरा हो रहा है क्योंकि 'पाकिस्तान भारत के व्यवहार से बहुत दुखी है।' क्योंकि 'नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ दोनों नासमझ उत्साह से काम लेते रहे हैं।' क्योंकि 'मोदी पाकिस्तान के मामले में बेवजह आक्रामक रुख अपना रहे हैं।' और सबसे विस्फोटक-ब्रेकिंग न्यूज, क्योंकि 'विदेशमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही है।'
ये बेहद गंभीर बात है। जब एनएसए स्तर की बातचीत की पूर्वसंध्या पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बयान दिया कि उफा में दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच तय हुआ था कि तीन प्रकार की बातचीत होगी। एनएसए स्तर की बातचीत का मुद्दा आतंकवाद होगा। सीमा सुरक्षा बल और पाकिस्तान रेंजर्स के बीच सीमा शांति पर बात होनी थी और एक बातचीत युद्ध विराम उल्लंघन पर होनी थी। साथ ही पाकिस्तान द्वारा हुर्रियत कांफ्रेंस समेत किसी और को तीसरा पक्ष बनाया जाना हमें मंजूर नहीं है। बात सिर्फ आतंकवाद पर होनी है। हिंसा थमे बिना किसी और मुद्दे पर बात नहीं होगी। इस पर एक जानी-मानी पत्रकार की शिकायत का लहजा तो देखिये कि 'क्या सुषमा स्वराज के कहने का ये मतलब नहीं है कि यदि आतंकवाद पर बात नहीं करनी है तो मत आओ?' टीवी चर्चाओं में इसे 'प्रधानमंत्री का अहं, सरकार की अदूरदर्शिता, संघ का एजेंडा' आदि बताने की होड़ भी चली। इस बीच एक वामपंथी झुकाव वाले पत्रकार, जो लोकसभा चुनाव के दौरान 'नरेंद्र मोदी की विजय से होने वाले निश्चित दुष्परिणामों' के बारे में कलम घिसते रहे थे, एक पाकिस्तानी चैनल पर मेहमान के तौर पर उपस्थित थे। उनका कहना था कि पाकिस्तान तो स्वाभाविक रूप से कश्मीर पर बात करना चाहेगा और भारत बिना बात बतंगड़ बना रहा है। वे पाकिस्तानियों के सुर में सुर मिलाते हुए ये बोलने से भी नहीं चूके कि भारत ने पाकिस्तान के सामने नाजायज मांगें रखी हैं।
एक उल्टा सवाल। भारत को इस बातचीत से ऐसा क्या हासिल होने वाला था जो उसे पाकिस्तान के जाल में फंसना स्वीकार कर लेना चाहिए था? क्या पहले भारत ने पाकिस्तान को डोसियर नहीं दिए हैं? क्या पूर्व में जकीउर्रहमान लखवी के विरुद्ध भारत ने प्रमाण नहीं दिए हैं? क्या जिंदा पकड़ा गया कसाब पाकिस्तान के रुख को बदल सका? मेरा इशारा बातचीत के उद्देश्य को दाव पर लगाकर बातचीत करने की मांग की ओर है। वास्तविकता ये है कि भारत-पाकिस्तान अलग-अलग उद्देश्यों लेकर बातचीत की मेज पर आते हैं या इंकार करते हैं। आज वार्ता करने की पाकिस्तान की जरूरत हम से कहीं बड़ी है। सारी दुनिया में दहशतगर्दी के कारखाने के रूप में कुख्यात हो चुके पाकिस्तान को एक तरह की मान्यता मिलती है जब विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र उससे बातचीत करता है। रावलपिंडी में बैठे खाकी वाले जानते हैं कि भारत और अफगानिस्तान समेत दुनिया के अनेक हिस्सों में जिहादियों की आपूर्ति का उनका कारोबार भी शांति वार्ताओं की आड़ में कुछ समय की मोहलत मांगता है। ये एक आवरण है। और इसलिए वे पाकिस्तान की सरकार को बातचीत की छूट देते हैं लेकिन फौज की मुट्ठी में जकड़ी लगाम ये तय करती है कि वह एक सीमा से आगे न जाएं। 2014 में जब नवाज शरीफ इस सीमा के बाहर पैर निकालने की कोशिश कर रहे थे, और हुर्रियत को हाशिया दिखा दिया गया था, तब फौज ने नवाज की कुर्सी के नीचे एक कृत्रिम भूचाल पैदा किया। इमरान खान और मौलाना ताहिर-उल-कादरी ने 'एस्टैब्लिशमेंट' के इशारे और सहयोग से दोनों शरीफ बंधुओं की नाक के नीचे वह धमाचौकड़ी मचाई कि जल्दी ही नवाज शरीफ के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। आखिरकार मायूस नवाज ने भर्राये गले से एक बार फिर राग-कश्मीर छेड़ दिया।
एक और विचित्र तर्क दिया गया कि 'कश्मीर मुद्दे पर उफा में नवाज शरीफ की चूक का पाकिस्तान में बचाव करने का उन्हें मौका न देकर नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी पाकिस्तान नीति को हाशिये पर धकेल दिया है।' नवाज शरीफ को किस प्रकार का मौका दिया जाना चाहिए था? क्या उन्हें एक बार फिर आतंकवाद के स्थान पर कश्मीर को केंद्रीय विषय बनाने की छूट दी जानी चाहिए थी? क्या व्यापार और दूसरे मामलों पर ज्यादा जोर देकर आतंकवाद को बढ़ावा देने के आरोपों से पाकिस्तान को राहत देनी चाहिए? और, क्या इस बातचीत में नवाज शरीफ का कोई दखल है? ये बात सही है कि पाकिस्तान में नवाज शरीफ या किसी अन्य लोकतांत्रिक सरकार का प्रभाव बढ़ना मोदी सरकार की प्राथमिकता में है। 26 मई 2014 के शपथ ग्रहण समारोह से ही इस बात को इशारों में कह दिया गया है, परन्तु इस विचित्र तर्क के मायने समझ के बाहर हैं कि पाकिस्तान में नवाज शरीफ को मजबूत करने के लिए लोकतंत्र विरोधी पाकिस्तान की जिहादी फौज को उसका कश्मीर कार्ड खेलने दिया जाए। कूटनीतिक भंगिमाओं के तय उद्देश्य और सीमाएं होती हैं। द्विपक्षीय बातचीत और वार्ताओं से सीमा पार सत्ता परिवर्तन नहीं होगा। भारत-पाकिस्तान वार्ताओं में भारत का उद्देश्य पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार और सर्वशक्तिमान 'एस्टैब्लिशमेंट' के घर्षण को उभारकर दुनिया के सामने रखना और वैश्विक आतंकवाद के मसले पर उसको घेरना ही होना चाहिए। भारत-पाक संबंधों पर जब भी चर्चा होती है है तो 'मुशर्रफ के चार सूत्रीय फॉर्मूले' का जिक्र जरूर निकलता है। इस पर बहुत पन्ने रंगे जा चुके हैं। आज भी बड़े-बड़े नाम इसे कश्मीर समस्या का अचूक हल बताने से नहीं चूकते। 8 जनवरी 2007 को फिक्की में बोलते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक वक्तव्य दिया कि 'मैं उस दिन का स्वप्न देखता हूं जब हमारी (भारत और पाकिस्तान) राष्ट्रीय पहचानों को अक्षुण्ण रखते हुए, एक व्यक्ति अमृतसर में नाश्ता कर सके। लाहौर में दोपहर का भोजन कर सके और रात का खाना काबुल में खाए।' डॉ. सिंह के इसी स्वप्न को लेकर बर्बर तानाशाह मुशर्रफ ने एक मायाजाल बुना था-मुशर्रफ फार्मूला।
देश नहीं जानता था कि ये फर्मूला क्या बला है, लेकिन विकिलीक्स के अनुसार 2009 में मुशर्रफ और मनमोहन सिंह इस पर आगे बढ़ने के लिए तैयार थे। इसके अनुसार नियंत्रण रेखा को ही वास्तविक सीमा रेखा मानते हुए, संविधान को यथावत रखते हुए, सीमाओं को 'अप्रासंगिक' बना दिया जाए। कश्मीर में दोनों ओर मुक्त आवागमन, व्यापार और पर्यटन के लिए सीमाएं खोल दी जाएं। और इस प्रकार से 'हिंसा का अंत' कर दिया जाए। कितना सुन्दर परन्तु घोर अव्यावहारिक, आतंकियों और उनके आकाओं को प्रिय लगने वाला तथाकथित शांति फर्मूला। मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू के अनुसार इस योजना को कांग्रेस अध्यक्षा का आशीर्वाद प्राप्त था। और इसके लिए माहौल बनाने का विशेष प्रभार था पी. चिदंबरम के पास। इसी लिए संप्रग सरकार द्वारा चुना गया त्रिसदस्यीय विशेष वार्ता दल वह मसौदा तैयार करके लाया था जिसे सीधे हुर्रियत कांफ्रेंस से भी लिखवाया जा सकता था।
आगे की क्या अपेक्षाएं अथवा योजना थी, इस पर पाकिस्तान के नामी अखबार डॉन ने लिखा है कि 'भारत में सरकार हुर्रियत कांफ्रेंस को मुख्यधारा में लाने में विफल रही। डॉ. सिंह अपने वादे के अनुसार 'आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट' को हटाने में नाकामयाब रहे। मानवाधिकार मामलों पर भी कोई प्रगति नहीं हुई।' रणनीतिक दृष्टि से भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण, दुरूह चढ़ाइयों पर लड़कर जीती हुई सियाचिन की चोटियों से सेना को हटाने पर भी विचार हो रहा था। दुश्मन की तलवार पर गर्दन रखना और किसे कहते हैं? स्पष्ट है कि ये फार्मूला आईएसआई और पाक फौज की इच्छाओं की पूर्ति की एक रणनीति थी। ये फार्मूला लाहौर घोषणा पत्र और शिमला समझौते के खिलाफ था। ये फार्मूला पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव से छूट दिलाता था जिसमंे उसे जम्मू-कश्मीर पर उसके अवैध कब्जे को छोड़ने के लिए कहा गया था। ये समझौता भारतीय संसद के उस संकल्प के खिलाफ था जिसमें पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर को वापस लेने की बात कही गयी थी। ये फार्मूला मनमोहन सिंह के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उस बयान के भी उलट था जिसमंे उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान से कश्मीर पर बात करनी है क्योंकि हमें पाकिस्तान के कब्जे से शेष जम्मू-कश्मीर को वापस लेना है।
समय की नदी में काफी पानी बह चुका है, लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आज भी संप्रग के दौर में जी रहा है। अच्छी बात है कि भारत का नेतृत्व भारत की संभावनाओं को टटोलते हुए व्यावहारिक समाधान की दिशा में बढ़ रहा है। भारत के एक राष्ट्रीय समाचार पत्र ने प्रधानमंत्री की अमरीका यात्रा की समाप्ति पर लिखा-'परिणामविहीन वार्ताओं-समझौतों और याचनाओं के दिन खत्म हुए। सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति ओबामा पर निश्चित समय सीमा के अंदर अंतरराष्ट्रीय निर्यात नियमन संस्था में भारत को स्थान दिलवाने के लिए जोर दिया। साथ ही सुरक्षा परिषद में सुधार के लिए भी निश्चित समय के अंदर परिणाम लाने के लिए सहयोग मांगा। जहां प्रधानमंत्री ने एशिया-प्रशांत और हिन्द महासागर क्षेत्र में संयुक्त रणनीतिक दृष्टि और जापान जैसे सहयोगियों से तालमेल का स्वागत किया वहीं अमरीका से एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग संगठन में भारत की सदस्यता के लिए मिलकर काम करने की भी इच्छा जताई। संक्षेप में, शक्ति का रास्ता ही शांति का राजमार्ग है। भारत अपनी समस्याओं के हल के लिए आगे बढ़ रहा है।
प्रशांत बाजपेई
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