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प्राचीन भारतीय ग्रंथों में पांच प्रमुख देवताओं का उल्लेख किया गया है, वे हैं- विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य और गणेश। इन्हें 'पंच देवता' भी कहा गया है। इन पांचों में भी सर्वाधिक प्रमुख और प्रथम पूजनीय हैं- गणेश। परिवार में सभी प्रकार के शुभ और मंगल कार्यों का प्रारंभ 'गणेश-पूजन' से किया जाता है। वे देवताओं में अग्रगण्य हैं। देवगुरु बृहस्पति भी सर्वपथम उन्हीं का पूजन करते हैं और दूसरी तरफ राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य भी, नवग्रहाधिपति के रूप में सबसे पहले गणेश का ही स्मरण करते हैं। सभी प्रकार के संकटों से मुक्त रहने के लिए अधिकांश हिन्दू-परिवार अपने मकान के प्रवेश-द्वार पर गणेश की मूर्ति की स्थापना करते हैं और नित्य प्रात: उनका पूजन करते हैं। किसी कार्य के श्रीगणेश का अर्थ ही गणेश-स्मरण के साथ उस कार्य को प्रारंभ करने का होता है। हिन्दुओं के सभी वर्गों में गणेश निर्विवाद रूप में सर्वाधिक लोकप्रिय और सम्माननीय देवता हैं। गणेश के व्यक्तित्व और उनकी अन्य विशेषताओं के आधार पर उन्हें अनेक नामों से पुकारा जाता है। यथा गजानन, लम्बोदर, मोदकप्रिय, वक्रतुण्ड, शूपकर्ण, एकदन्त, सिन्दूर-वदन आदि। इनके प्राचीनतम नाम हैं- गणनायक और गणपति, जिनका अर्थ होता है समूह का नेता। गणपति शब्द का प्रयोग तो विश्व के आदिग्रंथ ऋग्वेद में भी अनेक बार हुआ है।
गणपति की अभ्यर्थना में ऋग्वेद के मंत्रसृष्टा ने यह मंत्र भी पढ़ा-
गणानांत्वा गणपति गुंग हवामहे…
ऋग्वेद में केवल गणपति शब्द का प्रयोग है, गणेश का नहीं। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से गणपति और गणेश में कोई अन्तर नहीं है, लेकिन ऋग्वेद में यत्र-तत्र गणपति का संबोधन रुद्र और इन्द्र आदि देवताओं के लिए भी किया गया है। गणतंत्र के मुखिया के लिए सामान्य रूप में भी इस संबोधन का प्रयोग है। जहां तक गणेश का संबंध है, उन्हें गणपति के रूप में विशेषत: मारुतगण के साथ जोड़ा गया है। अतएव संभव है कि अतीत में मारुतों में ही गणेश की विशेष प्रतिष्ठा रही हो।
गणेश की आकृति विचित्र है। उनका सिर हाथी का है। आंखें, कान और मुंह भी वैसे ही हैं। बाहर निकला हुआ केवल एक दांत है, दूसरा टूटा हुआ है। शरीर का शेष भाग मनुष्यों के समान है, लेकिन भुजाएं चार हैं और टांगें अपेक्षाकृत काफी छोटी हैं। पेट काफी बड़ा है। उनकी चार भुजाओं में से एक में त्रिशूल, दूसरी में अक्षमाला, तीसरी में परशु और चौथी में लड्डू हैं। हाथ में लड़डू होने से वे मोदकप्रिय के रूप में जाने जाते हैं। ऋद्धि और सिद्धि उनकी दो पत्नियां हैं, जो सुख-संपत्ति की दाता हैं। उनका शरीर रक्त-वर्ण से रंगा हुआ है, जो उनके शूरवीर स्वरूप को प्रकट करता है।
प्रसंग है कि माता पार्वती की आज्ञा से जब बालक गणेश ने महादेव को माता के कक्ष में प्रवेश से रोका तो शिव अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने अपने त्रिशूल से गणेश का मस्तक काट दिया। दु:खी पार्वती को प्रसन्न करने के लिए शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर गणेश के धड़ पर लगाकर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया।
गणेश का एक दांत टूटा हुआ है। इससे उनका एक नाम एकदन्त भी है। गणेश और परशुराम के बीच युद्ध छिड़ गया। परशुराम ने क्रुद्ध होकर शिव के द्वारा दिया हुआ परशु गणेश की तरफ फेंका। पिता का सम्मान करने की दृष्टि से गणेश ने उस परशु का विरोध नहीं किया और उसे अपने एक दांत पर झेल लिया। इससे उनका एक दांत टूट गया और वे एकदंत कहलाए।
मूषक को वाहन बनाने के संबंध में गणेश पुराण में कई कथाएं हैं। गणेश के मोदकप्रिय होने के बारे में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने अमृत का लड्डू बनाकर पार्वती को भेंट किया और पार्वती ने वह लड्डू अपने पुत्र गणेश को दे दिया। मां का प्रसाद मानकर गणेश ने बड़े प्रेम से उस लड्डू को खाया। इससे गणेश को अमरता तो मिली ही, साथ ही उनका नाम भी मोदकप्रिय हो गया।
गणेश की प्रतिष्ठा संपूर्ण भारत में समान रूप में व्याप्त है। महाराष्ट्र में ये मंगलकारी देवता के रूप में और मंगलमूर्ति के नाम से विशेष लोकप्रिय हैं। दक्षिण में इनकी विशेष लोकप्रियता कला शिरोमणि के रूप में है तथा कोलकाता के संग्रहालयों में श्रीगणेश की नृत्य मुद्रा में आकर्षक मूर्तियां रखी हुई हैं। उड़ीसा और तमिलनाडु के अधिकांश गांवों में प्राय: प्रत्येक मार्ग पर पीपल के वृक्ष के नीचे गणेश की प्रतिमाएं मिलती हैं। गणेश की प्रतिमा के बिना हमारे यहां मंदिर भी अधूरे माने जाते ६ैं। बौद्ध धर्म के माध्यम से गणेश का विदेशों में भी पर्याप्त प्रसार हुआ है। चीन, तिब्बत, बर्मा, जावा, सुमात्रा, जापान, थाईलैंड, तुर्की आदि देशों में भी हमें गणेश की प्रतिमाएं तथा उनके मंदिर देखने को मिलते हैं। -प्रो. योगेश चन्द्र शर्मा
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