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सतीश पेडणेकर
कुछ दिनों पहले राज्यसभा चैनल के एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला जहां अन्य साहित्य के साथ उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के भाषणों की एक पुस्तक भी दी गई थी। पुस्तक काफी मोटी और अंग्रेजी में थी इसलिए पढ़ तो नहीं पाया मगर थोड़ा उलटने-पलटने पर धारणा बनी कि हमारे उपराष्ट्रपति काफी पढ़े-लिखे और विद्वान व्यक्ति हैं। इसलिए हाल ही में जब मजलिसे मुशावरत के जलसे में दिया गया उनका बहुचर्चित भाषण पढ़ा तो बहुत निराशा हुई, क्योंकि तमाम बुद्धिजीविता के लब्बोलुआब के बावजूद वह एक सांप्रदायिक मुस्लिम नेता का भाषण लगता है। उपराष्ट्रपति से यह उम्मीद होना स्वाभाविक है कि वे किसी एक समुदाय विशेष की तरफदारी करने के बजाय सबके हित की बात करेंगे। लेकिन उनके भाषण में यही बात गायब थी।
अपने उस भाषण में उपराष्ट्रपति ने कहा कि देश के मुसलमानों के सामने पहचान, सुरक्षा, शिक्षा और सशक्तिकरण की समस्या है। इसके अलावा उन्हें राज्य के संसाधनों में समान हिस्सेदारी और निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी मिले। सबसे पहला मुद्दा लें पहचान का। कभी-कभी तो लगता है स्वतंत्र भारत ने मुसलमानों की मजहबी पहचान की रक्षा के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। सबसे पहले तो देश को अपनी पंथनिरपेक्ष पहचान के साथ समझौता करना पड़ा। देश में सबके लिए एक ही कानून होना चाहिए था, लेकिन मुसलमानों की मजहबी पहचान बनी रहे इसके लिए समान नागरिक कानून लागू करने के बजाय मुसलमानों को मुस्लिम पर्सनल ला लागू करने की छूट दी गई। किसी भी लोकतांत्रिक देश में कानून के सामने सब बराबर होने चाहिएं लेकिन जब कानून ही अलग-अलग हों तो बराबरी का सवाल ही कहां रह जाता है? मुस्लिम पर्सनल ला ने देश के पंथनिरपेक्ष चरित्र को ही विकृत कर दिया। लेकिन मुसलमानों के लिए दी गई सुविधा का जिक्र कोई मुस्लिम नेता नहीं करता। वे इसे अपना स्वाभाविक अधिकार मानते हैं। मुसलमानों को एक और नायाब सुविधा संविधान में दी गई है। दरअसल यह संवैधानिक अधिकार सभी अल्पसंख्यकों को दिया गया है लेकिन उसका लाभ सबसे ज्यादा मुसलमानों और ईसाइयों को ही होता है। वह है अपनी शिक्षण संस्थाएं स्वायत्त तरीके से चलाने का अधिकार। यह अधिकार सारे अल्पसंख्यकों को हासिल है लेकिन बहुसंख्यकों को हासिल नहीं है। बहुसंख्यकों को इसका नुक्सान भी हो रहा है क्योंकि इन सुविधाओं को पाने के लिए हिन्दू समाज के कई संप्रदाय अपने को अल्पसंख्यक साबित करने पर तुले हुए हैं। इनमें रामकृष्ण मिशन प्रमुख है। इसे लेकर अदालत में लंबे समय तक मामला चलता रहा। सारे मुसलमानों के लिए न सही, मगर कश्मीर के मुस्लिम चरित्र को बरकरार रखने के लिए धारा 370 का प्रावधान किया गया है। यहां कोई गैर कश्मीरी नागरिक नहीं हो सकता। न ही जमीन-जायदाद खरीद सकता है। इस तरह कश्मीर का मौजूदा मुस्लिम चरित्र सुरक्षित रखने की कोशिश की गई। जब भारत में मुस्लिम शासन था तब मुस्लिम शासकों ने बड़े पैमाने पर मंदिर तोड़े।
जाने-माने लेखक सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक-'हिन्दू टैंपल-व्हाट हैपन्ड टू दैम' में सप्रमाण बताया है कि तीन हजार मंदिर तोड़े गए। स्वतंत्र भारत में उन्हें पाने के लिए कई मुकदमे दायर हुए तो सरकार पूजास्थल विधेयक लेकर आई जिसमें यह प्रावधान किया गया कि सभी पूजास्थलों की वही स्थिति बनी रहेगी जो 15 अगस्त 1947 को थी। इस तरह उनसे जुड़े मुकदमे भी न्यायालयों में नहीं चल पाएंगे। यह कानून सीधे-सीधे मुस्लिमों के पक्ष में फैसला था। इस विधेयक के कारण हिन्दू अपने उन पूजास्थलों को कभी नहीं पा सकेंगे, जिन्हें आजादी से पहले जबरन मस्जिद आदि में बदल दिया गया था। इतना ही नहीं तो मुसलमान अपने मजहबी यात्रा हज कर सकें इसके लिए हज सब्सिडी दी जाती है। ऐसी स्थिति में समझ नहीं आता कि इतने विशेष अधिकार मिलने पर भी उपराष्ट्रपति को कैसे लगता है कि मुसलमान-अस्मिता को खतरा है? इससे तो बहुसंख्यक हिन्दू समाज को खतरा है। देश के पंथनिरपेक्ष चरित्र को खतरा है। पर तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी दलों के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होने के बावजूद अपने मजहब से ऊपर उठकर हामिद अंसारी यह बात नहीं कह पाए।
इसी तरह अंसारी ने मुसलमानों की सुरक्षा का मामला भी उठाया। सुरक्षा का मामला उठाते हुए अंसारी क्या यह कहना चाहते थे कि मुसलमानों को बहुसंख्य समाज से खतरा है? उनका इशारा शायद दंगों की तरफ था, लेकिन वे तो अधिकांशत: अल्पसंख्यक शुरू करते हैं। जब बहुसंख्यकों की उस पर प्रतिक्रिया होती है तो उसे मुस्लिम सुरक्षा का मुद्दा बना दिया जाता है। गुजरात और 'पिछड़ने' की वजह और बेमौसमी रागमुंबई के दंगे इस तरफ इंगित करते हैं। गोधरा
में पहले हिन्दू जला दिए गए जब उसकी प्रतिक्रिया हुई तो उसे 'नरसंहार' कह कर प्रचारित किया गया। मुंबई में लंबे समय से दोनों समुदायों के बीच तनाव बढ़ रहा था, लेकिन जोगेश्वरी में हिन्दू परिवार के पांच लोगों और दो कामगारों की हत्या के बाद हिन्दुओं की तरफ से प्रतिक्रया हुई तो उसे मुस्लिम सुरक्षा का सवाल बना दिया गया। दूसरी तरफ मुस्लिम बहुसंख्यकों की दहशत के कारण हिन्दुओं को कश्मीर घाटी छोड़नी पड़ी। लेकिन याद नहीं आता कि किसी हिन्दू बहुल राज्य से मुसलमानों को खदेड़ा गया हो। इस संदर्भ में उपराष्ट्रपति जैसे व्यक्ति का केवल एक समुदाय की सुरक्षा की बात करना अजीब लगता है। दंगे केवल मुस्लिम सुरक्षा का सवाल नहीं हैं, हिन्दू सुरक्षा का सवाल भी हैं। देश के सात राज्यों में हिन्दू भी अल्पसंख्यक हैं। इसके अलावा देशभर में हुई इस्लामी आतंकवाद की घटनाओं में सैकड़ों हिन्दू मारे गए हैं। क्या उनका खून खून नहीं, पानी है?
हमारे देश के संविधान में पांथिक आरक्षण का प्रावधान नहीं है लेकिन उपराष्ट्रपति के भाषण से यह ध्वनि निकली कि मुसलमानों के साथ भेदभाव को दूर करने के लिए उनको आरक्षण दिया जाना चाहिए। हकीकत यह है कि कई मुस्लिम जातियों को पिछड़ी जाति के तौर पर आरक्षण मिला हुआ है। बाकी मुस्लिम जातियां अगर अपने को पिछड़ा मानती हैं तो उन्हें दावा करना चाहिए, लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन करना चाहिए। लेकिन इतने भर से समस्याएं हल होने वाली नहीं। नौकरियां पाने के लिए मुसलमानों को शिक्षा हासिल करनी होगी। यदि उनमें पर्याप्त साक्षरता नहीं है तो उसके लिए कौन दोषी है? अगर मुस्लिम पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी नहीं लेते तो इसके लिए दोषी सरकार को तो नहीं ठहराया जा सकता। कोई यह नहीं कह सकता कि सरकारी स्कूलांे में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर भर्ती में मुस्लिम छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है। जबकि हकीकत यह है कि भारत सरकार स्कूल बना सकती है मुस्लिम बस्तियों में, लेकिन वहां पढ़ने तो मुस्लिम छात्रों को ही जाना पड़ेगा। यह तभी होगा जब मुसलमानों का शिक्षा के प्रति नजरिया बदले। लेकिन मुसलमानों की नजर कुरान, हदीस और शरीयत आदि से आगे नहीं बढ़ती। कभी कभी तो यह समझ में नहीं आता कि जो कौम कई सदियों तक देश पर शासन करती रही है वह आज वंचितों से भी पिछड़ी क्यों है? जब मुस्लिम शासक थे तब भी वे अशिक्षित ही थे। औरंगजेब और कई मुस्लिम सुल्तान केवल मुसलमानों को ही नौकरी देना चाहते थे, लेकिन उनमें शिक्षा का इतना अभाव था कि आखिरकार पढ़ने-लिखने की नौकरियां हिन्दुओं को ही देनी पड़ती थीं।
असल में मुस्लिम दुनियाभर में पिछड़े हैं। वही पिछड़ापन भारत में भी नजर आता है। सच्चर कमेटी की रपट आने के बाद हर तरफ एक ही हल्ला था कि मुसलमान देश का सबसे पिछड़ा तबका है। वह वंचितों से भी ज्यादा पिछड़ा है। यह माहौल बनाया गया कि इस पिछड़ेपन के लिए भारत सरकार और भारतीय समाज का मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण नजरिया ही जिम्मेदार है। इस कलंक को मिटाने के लिए पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार ने अपना सारा खजाना खोल दिया। मुसलमानों के लिए विशेष उपाय योजना, बैंक कजोंर् में 15 प्रतिशत कर्ज मुसलमानों को देने का प्रावधान, मुस्लिम छात्रों को वजीफे आदि न जाने कितने विशेष उपाय किए गए, लेकिन ये सब बेकार साबित हुए।
कुछ वर्ष पहले पाकिस्तान के स्वतंत्र पत्रकार डॉ़ फारुख सईद के कुछ लेखों ने मुस्लिम जगत को चौंका दिया था। इस लेख के आंकडे़ कुछ साल पुराने हैं लेकिन आज भी प्रासंगिक हैं। वे कहते हैं, हालांकि दुनिया में कई मुस्लिम देश काफी अमीर हैं लेकिन मुसलमान दुनिया के गरीबों में सबसे गरीब हैं। उनके मुताबिक 57 मुस्लिम देशों का सकल घरेलू उत्पाद 2 ट्रिलियन डालर से कम है जबकि अकेला अमरीका 11 ट्रिलियन डालर के उत्पाद और सेवा देता है तो चीन 5़ 7 ट्रिलियन डालर का। जापान जैसे छोटे से देश का सकल घरेलू उत्पाद 3़ 5 ट्रिलियन डालर है और जर्मनी का 2़1 ट्रिलियन डालर। यानी कई देश हैं जो अकेले इतना उत्पादन करते हैं जितना 57 मुस्लिम देश मिलकर नहीं कर पाते। तेल के बूते अमीर बनने वाले देशों सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर का मिलकर सकल घरेलू उत्पाद 430 बिलियन डालर ही है। मुस्लिम दुनिया की 22 प्रतिशत आबादी हैं, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में उनका योगदान पांच प्रतिशत का है। चिंता की बात यह है कि यह प्रतिशत भी लगातार गिरता जा रहा है। दुनिया के जो नौ सबसे ज्यादा गरीब देश हैं उनमें से छह मुस्लिम देश हैं।
आज का युग ज्ञान-विज्ञान का युग है मगर शिक्षा-साक्षरता के मामले में मुस्लिम देशों की हालत बहुत ही खस्ता है। फारुख सईद कहते हैं, 57 मुस्लिम देशों की एक अरब 40 करोड़ आबादी के लिए सिर्फ छह सौ विश्वविद्यालय हैं। यानी प्रति मुस्लिम देश मात्र 10 विश्वविद्यालय हैं। जबकि सिर्फ अमरीका में इससे दस गुना यानी 5758 विश्वविद्यालय हैं। फारुख सईद ने संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूएनडीपी द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर ईसाई और मुस्लिम देशों की शिक्षा की स्थिति की तुलना की।15 ईसाई बहुल देश ऐसे हैं जहां साक्षरता100 प्रतिशत है। मगर एक भी मुस्लिम देश ऐसा नहीं है जहां साक्षरता 100 प्रतिशत हो। मुस्लिम बहुल देशों में औसत साक्षरता 40 प्रतिशत के नजदीक है। ईसाई देशों में 40 प्रतिशत ने कालेज शिक्षा भी ली है। तो मुस्लिम देशों में यह आंकड़ा केवल दो प्रतिशत का है। फारुख सईद इसके आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं कि मुस्लिम देशों में ज्ञान पैदा करने की क्षमता का ही अभाव है।
किसी देश द्वारा किए गए निर्यात में उच्च तकनीक उत्पादों का कितना हिस्सा है, यह पैमाना होता है कि कोई देश ज्ञान-विज्ञान का कितना इस्तेमाल कर पा रहा है। पाकिस्तान के निर्यात में उच्च तकनीक उत्पादों का हिस्सा एक प्रतिशत है तो कुवैत, मोरक्को, अल्जीरिया और सऊदी अरब आदि मुस्लिम देशों में यह आंकड़ा 0़ 3 प्रतिशत है। दूसरी तरफ सिंगापुर में यह आंकड़ा 57 का है। इससे स्पष्ट है कि मुस्लिम देश विज्ञान के व्यावहारिक या तकनीकी प्रयोग में कहीं है ही नहीं। नोबल पुरस्कार भी किसी देश या समाज की वैज्ञानिक प्रगति को नापने का पैमाना होता है। अब तक केवल दो मुस्लिम वैज्ञानिकों को नोबल पुरस्कार मिले हैं मगर दोनों ही ने अपनी उच्च शिक्षा पश्चिमी देशों में पाई है। दूसरी तरफ यहूदी, जिनकी आबादी दुनिया में मात्र एक करोड़ चालीस लाख है, अब तक पंद्रह दर्जन नोबल पुरस्कार जीत चुके हैं। मुस्लिम देशों के पिछड़ेपन के बारे में ये चौंकाने वाले आंकड़े देखकर डा. फारुख सईद सवाल उठाते हैं कि मुस्लिम गरीब, निरक्षर और कमजोर क्यों हैं? आखिर क्या गलत हो गया? फिर वे खुद ही जवाब देते हैं कि हम पिछड़े इसलिए हैं क्योंकि हम ज्ञान का निर्माण नहीं कर रहे। हम ज्ञान-विज्ञान को अमल में लाने में भी नाकाम रहे हैं। जबकि आज का युग सूचना और ज्ञान का युग है। भविष्य केवल उन समाजों का है जो ज्ञान पर आधारित हैं। मुस्लिम देशों में ज्ञान पर आधारित समाज बनने की संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती क्योंकि उसकी पहली शर्त है शिक्षा, ज्ञान के प्रतिजिज्ञासा, जिसका मुस्लिम समाज में घोर अभाव है। ये तथ्य और आंकड़े इस बात की ओर इंगित करते हैं कि मुसलमान केवल भारत में ही नहीं दुनियाभर में सामाजिक,आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर पिछडे़ हैं। भारत के बारे में आप कह सकते हैं कि यहां की सरकार मुसलमानों से भेदभाव करती है लेकिन इन 57 मुस्लिम देशों का क्या? यहां तो मुस्लिम सरकारें हैं फिर मुस्लिम शिक्षा में पिछड़े क्यों हैं? इसलिए भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए केवल भारतीय समाज और भारत सरकार को दोषी ठहराना गलत है।
दरअसल सच्चर कमेटी को भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों का भी पता लगाना चाहिए था। साथ ही साथ इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि क्यों मुसलमान दुनियाभर में पिछड़े हैं। कहीं उनकी विशिष्ठ मजहबी सोच, मतांधता, रीति-रिवाजों का कट्टरपन, मुल्ला-मौलवियों का शिकंजा इस पिछड़ेपन की वजह तो नहीं? इस्लाम के कुछ जानकारों का कहना है कि मुसलमानों में अपने हर सवाल के जवाब कुरान में देखने की आदत पड़ी हुई है जो उनकी जिज्ञासा को कुंठित कर देती है। उन्हें यह गलतफहमी है कि उनकी हर जिज्ञासा का जवाब कुरान हदीस में मौजूद है। फिर पढ़ने-लिखने की जरूरत क्या है। आम जिंदगी में मुसलमानों का ज्यादा भरोसा कलम में कम और तलवार में ज्यादा रहा है। इस्लामी मजहबी किताब के मुताबिक इस्लाम पूर्व का युग अज्ञान और अंधकार का युग था इसलिए उससे कुछ लेने का सवाल ही नहीं उठता। इस्लाम खुद कोई ज्ञान-विज्ञान कभी पैदा नहीं कर सका। दूसरे मतों द्वारा पैदा किए गए ज्ञान-विज्ञान को वह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाया। यही वजह है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने कई विश्वविद्यालयों को नेस्तोनाबूद कर दिया। उनके ग्रंथालयों को जला डाला। मुसलमान तो इस देश में सात सदियों तक शासक रहे और काफी लूट-खसूट की, मगर उससे महल बनवाए, मकबरे बनवाए पर उच्च शिक्षा का कोई संस्थान नहीं बनवाया, अगर उनके नाम पर कुछ दर्ज है तो इस्लामी शिक्षा देने वाले संस्थान। ऐसे लोगों पर सरस्वती कैसे प्रसन्न हो सकती है?
अंसारी ने अपने भाषण में विभाजन का मुद्दा उठाते हुए कहा कि मुसलमानों को उन राजनीतिक घटनाओं और समझौतों का अन्यायपूर्ण बोझ भी उठाना पड़ रहा है जो विभाजन का कारण बनीं। लेकिन हामिद अंसारी भूल जाते हैं कि मुस्लिम विभाजन के शिकार नहीं उसकी वजह हैं। उनके इस कृत्य के नतीजे सारे गैर मुस्लिम झेल रहे हैं।
एक बात बहुत स्पष्ट रूप से इस देश का समाज जानता है, वह यह कि मुस्लिम विभाजन के अपराधी हैं। यदि इतिहास के पन्ने उलटें तो एक और बात उभर कर आती है कि मुसलमानों ने आजादी से पहले पाकिस्तान के लिए वोट किया लेकिन सभी पाकिस्तान गए नहीं। दिसंबर 1945 में हुए सेंट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल के चुनाव में मुसलमानों के लिए आरक्षित 30 सीटों में से सारी सीटें मुस्लिम लीग ने जीती थीं। इस तरह सौ फीसद सीटें जीतकर मुस्लिम लीग ने शानदार सफलता हासिल की थी। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के मुद्दे पर यह चुनाव लड़ा था और इस पर मुसलमानों ने जैसे मुहर लगा दी थी। इस चुनाव के बाद मुस्लिम लीग बलपूर्वक यह दावा करने लगी थी कि वह मुस्लिमों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था है और मुस्लिम समाज में कांग्रेस के तथाकथित मुस्लिम राष्ट्रवादी नेताओं को कोई समर्थन हासिल नहीं है। नतीजों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जिन्ना ने कहा था कि यह मुस्लिम भारत द्वारा पाकिस्तान के बारे में दिया गया स्पष्ट फैसला है। इसके बाद प्रोविंशियल लेजिस्लेटिव काउंसिलों के चुनाव में भी मुस्लिम लीग को भारी सफलता मिली। मुस्लिम बहुसंख्या वाले राज्यों में 309 आरक्षित मुस्लिम सीटों में से मुस्लिम लीग को 261 सीटें यानी 84 प्रतिशत सीटंे मिलीं। सारे भारत में 492 आरक्षित मुस्लिम सीटों में से 425 सीटें यानी 86 प्रतिशत सीटें मिलीं। इस तरह मुसलमानों ने पाकिस्तान के पक्ष में वोट दिया लेकिन पाकिस्तान बनने पर पाकिस्तान गए नहीं। दरअसल जब सारा देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था तो चंद राष्ट्रवादी मुसलमानों को छोड़कर बाकी सब अलग पाकिस्तान के लिए आंदोलन कर रहे थे। अक्सर गांधी और नेहरू को हिन्दू-मुस्लिम एकता के मसीहा के तौर पर पेश किया जाता है लेकिन 1945 के चुनावों ने बता दिया कि इन दोनों में से किसी को आम मुसलमान का समर्थन हासिल नहीं था। जिन्हें राष्ट्रवादी मुसलमान कहा जाता है उनकी अपने समाज में कोई हैसियत नहीं थी।
ऐसी स्थिति में अंसारी को आम मुस्लिम नेताओं की तरह मुस्लिम समुदाय को भारतीय समाज के भेदभाव के शिकार की तरह पेश करने के बजाय इस्लाम की रूढ़ीवादिता और कट्टरपन के बारे में मुसलमानों से खरी-खरी बातें कहनी चाहिए थीं जिसके कारण मुसलमान बाकी किसी भी समाज के साथ तालमेल बिठा नहीं पाते और संघर्ष का कारण बनते हैं। ऐसे में विकास और प्रगति की बातें तो गौण हो जाती हैं। यही भारत में होता आ रहा है।
अपने प्रगतिशील मुखौटे के बावजूद हामिद अंसारी का भाषण मुस्लिम संस्थाओं के मांगपत्र जैसा लगता है, जिसमें आत्मविश्लेषण की कोई इच्छा नजर नहीं आती। उसमें कई बार आधुनिकता जैसे शब्द भी आए हैं लेकिन यह बात तो अंसारी ही बता सकते हैं कोई मजहबी समुदाय अपनी 1400 साल पुरानी पोथियों की बातों को आज भी जस का तस लागू करने की इच्छा रखने पर आधुनिक कैसे हो सकता है? इस्लाम में रेडिकल वे होते हैं जो आज इस्लाम मेंे 1400 साल पुरानी चीजोें को ज्यों का त्यों लाना चाहते हैं जैसे आईएस या तालिबान या बोको हराम। इस तरह इस्लाम और आधुनिकता दो ध्रुव हैं जो आपस में मिल नहीं सकते। लेकिन अंसारी जैसे नेता उनको यह बात कभी समझाते नहीं।
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