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अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
तुगलक रोड के उस विशाल बंगले के अन्दर उन्हें घुटन महसूस हो रही थी। सोच-सोच कर माथा फटा जा रहा था। साठ दिनों के प्रवास में जितने तीर इकट्ठे कर के लाए थे वे सब कभी के तरकस से छोड़े जा चुके थे। परन्तु उनके एक-एक शब्द पर 'वाह-वाह' करने वाले चाटुकारों का ख्याल था कि उनके बंगले से प्रवाहित हो रहे तुगलकिया विचारों का स्रोत कभी सूखेगा ही नहीं। पिछले दिनों लोकसभा की कार्यवाही में अड़ंगा लगाने के उनके अंदाज पर शुरू में जो वाहवाही मिली थी उसकी सार्थकता पर इतनी जल्दी सवाल उठने लगेंगे यह भी उन्होंने नहीं सोचा था। पर कम से कम जब तक संसद का सत्र चला वे नए मुद्दों की तलाश करने की जहमत से तो बचे रहे।
इस बीच सरकार के किसी कदम पर जहां किसी ने भी कोई सवाल उठाया वे अपने कुरते की बाहें मोड़ते हुए जा धमके थे। पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में चार साल के कोर्स को छ:-छ: साल में भी पूरा किये बिना, छात्रावास को स्थायी आवास में बदल लेने वाले हड़तालियों को पुचकार कर खलनायक से लेकर विदूषक तक के किरदारों पर उन्होंने उनसे विचारों का आदान प्रदान किया। पर बाद में लगा कि बेकार दौड़े, देश की जनता का ध्यान कहीं और था। फिर बिहार में केंद्र सरकार के विशालकाय आर्थिक पैकेज में झांक कर आपत्तिजनक वस्तुओं की तलाश में लग गए। उसमें भी बयानबाजी लायक कुछ न मिला। वैसे भी इतनी बड़ी सहायता के प्रावधान उनकी समझ के बाहर थे, फिर लगा कि पैकेज की जितनी प्रतिशत बातें उन्हें समझ में आ पाई थीं उतनी प्रतिशत सीटें भी उनकी थकी हारी पार्टी को कोई गठबंधन देने को तैयार नहीं था। जिस गठरी के ऊपर वे पहले कब्जा जमा कर बैठते थे उसे पहले ही लालू और नीतीश ने उनके हाथों से झटक लिया था। अब उस गठरी में भी छेद करके वोट चुराने के लिए ओवेसी आ गए थे। बिहार की सोचते तो गाने का मन करता 'रहना नहिं देस बेगाना है'
इसी बीच जंतर मंतर पर जाकर फौजियों के बीच भी फोटो खिंचवाकर आ गए। बेचारे फौजियों ने नम्रतावश उन्हें याद नहीं दिलाई कि 1971 के बंगला देश में जिन सिंह समान फौजियों की पीठ पर सवारी करके उनकी दादी जी दुर्गा का अवतार कहलाई थीं उन्हीं की पेंशन और वेतन में दो साल के अन्दर ही उन्होंने भारी कटौती कर दी थी। तभी एक रैंक एक वेतन की मांग का जन्म ही सन 73 में हुआ था। दादी के पिता जी तो यहां तक पूछ बैठे थे कि स्वतन्त्र भारत को सशस्त्र सेनाओं की जरूरत ही क्या थी जब आतंरिक सुरक्षा के लिए पुलिस थी? सीमाओं को घेरे देश तो विश्वबंधुत्व के चौधरी बने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री के चहेते भाई थे। फिर उनमें से सबसे बड़े भाई ने पीठ में ऐसा छुरा घोंपा कि सेनाओं का अस्तित्व मिटाने की भूलकर वे इस चिंता में पड़ गए कि कहीं देश का ही अस्तित्व न मिट जाए। तब उन्हें सुध आई थी कि हिमाच्छादित चोटियों पर लड़ने वाले सैनिकों को गरम जुरार्बें व फर वाले दस्ताने भी चाहिए थे।
अब वे बिचारे फौजियों की पेंशन की क्या सोचते जब अपने रक्षा मंत्री को ही पेंशन पर भेजना पड़ गया। मम्मी ने भी कमाल दिखाया फौजियों को बुद्धु बनाने में। 2002 में कहा समान पेंशन देंगे फिर 2014 तक कभी देंगे, कभी नहीं देंगे कहकर उन्हें फुसलाती आईं। अंत में 2015 के आम चुनावों से तुरंत पहले नरेंद्र मोदी को फौजियों में लोकप्रिय होते देखा तब घबराकर 'ऊंट के मुंह में जीरे' के कुछ दाने उड़लने की घोषणा कर दी।
चलो जो हुआ सो हुआ पर अब कुछ सूझ नहीं रहा था कि आगे क्या करें, ले दे कर यह 'ओआरओपी' वाला मसला ही सुर्खियों में था। वह भी सुलझ गया। इधर सुर्खियों में लगातार शीना की हत्या छाई रही। अब उसमंे किस वाले पति के साथ सहानुभूति दिखाएं, काश देश की हर अन्य समस्या की तरह शीना वोरा हत्याकांड का ठीकरा भी भाजपा सरकार और मोदी के सिर पर फोड़ा जा सकता।
दिग्विजय अंकल होते तो कुछ तरीका सुझाते पर वे तो अन्य जरूरी कामों में व्यस्त थे। उधर शीना की हत्या भी तो मनमोहन अंकल के जमाने में हुई थी। मुंह खोला तो कहीं इस मामले में भी कोई मुसीबत गले न पड़ जाए. फिर आखिर किस बात पर अपना मुंह खोलें। सोचते-सोचते वे सिर पकड़ कर धम्म से बंगले की सीढि़यों पर बैठ गए। सुरक्षाकर्मचारी, चमचे, सब दौड़े आए। अफरातफरी मच गयी। तभी कोई बोला 'अरे,सर जी जमीन पर बैठे हैं। झट से एक चमचे ने पास ही पड़ा एक मूढ़ा उठाया। बोला 'सर जी इस पर बैठिए' उनके धैर्य का बांध टूट गया। चीखते हुए बोले 'मूढ़ा नहीं चाहिए बेवकूफो, ढूंढकर कोई मुद्दा लाओ मुद्दा! वरना मुझे सब भूल जाएंगे'
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